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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183618892

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

पाँच


सवेरे चिड़ियों की चहचहाहट से ही बंटी की नींद उचटी। आँखें बंद किए-किए ही उसने करवट बदली। बिस्तर के अनछुए हिस्से की नमी-भरी ठंडक, सारे शरीर में एक फरहरी-सी दौड़ाती हुई, उसे ऊपर से नीचे तक ताज़गी से भर गई। नींद की दुनिया से वह असली दुनिया में आया तो कल का सारा दिन एक क्षण को खुमारी-भरी आँखों के सामने कौंध गया-पापा के साथ बिताया हआ दिन। और साथ ही खयाल आया ममी का ! ममी की उदास, सूजी-सूजी-सी आँखें। बिना एक शब्द भी बोले उसे चुपचाप सुला देना। न एक बार भी अपने पलंग पर आने को कहा, न प्यार किया, न सारे दिन के बारे में कुछ पूछा, पर क्यों ?

और कल की बात के साथ ही कल का ‘क्यों' भी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसने करवट बदली। अधमँदी आँखों से ही ममी के पलंग की ओर देखा। पलंग खाली था। तो ममी उठकर चली गईं। एक बोझ जैसे उस पर से उतर गया। वरना ममी के सामने वह कैसे आँखें खोलता ? कल वापस लौटने के बाद से बराबर ही लग रहा था, जैसे उससे कुछ गुनाह हो गया, कुछ गलत हो गया। नहीं भेजना था तो ममी मना कर देतीं। इतना नाराज़ होने और रोने की क्या ज़रूरत थी ?

अब वह भीतर जाएगा तो अभी भी ममी उससे नहीं बोलेंगी ? ममी नहीं बोलेंगी तो कैसे रहेगा ? अब इम्तिहान भी तो शुरू होनेवाले हैं, कौन पढ़ाएगा उसे ? एकाएक बंटी का मन रोने को हो आया। वह उठा। देखता हूँ, कैसे नहीं बोलेंगी। मैं क्या कर सकता था, पापा ने जो बुलाया था।

कमरे में घुसते ही नज़र पापा की दी हुई चीज़ों पर पड़ी। एक बार इच्छा हुई मैकेनो को खोलकर देखे। पर नहीं, अभी नहीं, वह दबे पैरों गया और सब चीजें उठाकर सोफ़े के पीछे रख दीं। ममी कॉलेज चली जाएँगी तब खोलेगा, उसकी तो आज छुट्टी है।

फिर दौड़कर वह पीछेवाले आँगन में आया, जैसे सीधा बाहर से ही आ रहा हो। ममी अख़बार पढ़ रही हैं। दरवाज़े की ओर पीठ है, इसलिए चेहरा नहीं दिखाई दे रहा। अच्छा ही है। हमेशा की तरह बंटी गया और पीठ पर लदकर गले में झूल गया।

“उठ गए ?" ममी ने उसको अलग करते हुए पूछा।

पर बंटी पीठ पर लदा रहा। अपनी तरफ से वह पूरी तरह सुलह कर लेना चाहता है। अब ममी को एक मिनट के लिए भी नाराज़ नहीं रहने देगा, दुखी भी नहीं रहने देगा। ममी नहीं चाहेंगी तो वह कहीं नहीं जाएगा, कुछ भी नहीं करेगा।

“जा, ब्रश करके आ बेटा ! फूफी दूध गरम कर रही है।" लगा स्वर हमेशा की तरह मुलायम ही था। बंटी हलके से आश्वस्त हुआ और दौड़ता हुआ बाथरूम की ओर चला गया।

लौटा तो मेज़ पर ममी की चाय और उसका दूध रखा हुआ था। ममी अखबार पढ़ने के साथ-साथ चाय पी रही थीं। वह आया तो उसका दूध उसके सामने रख दिया, उसके टोस्ट पर मक्खन लगा दिया।

“ममी !" जैसे भीतर से हिम्मत जुटाकर बंटी बोला।

“हूँ ?''..अख़बार पर नज़र गड़ाए-गड़ाए ही ममी ने पूछा। बंटी को लगा जैसे ममी उससे नज़र नहीं मिला रहीं। आँखें शायद अभी सूजी हुई हैं। ममी क्या बहुत तकलीफ़ में हैं ? बंटी भीतर ही भीतर ममी के दुख से कातर होने लगा।

“ममी, तुम मुझसे गुस्सा हो ?' उसकी आवाज़ रुआंसी-सी हो गई।

ममी ने अख़बार हटाकर भरपूर नज़रों से उसकी ओर देखा और देखती ही रहीं। बंटी को लगा-ममी की आँखें, ममी का चेहरा जैसे पिघलकर एकदम नरम-नरम हो गया।

“पागल कहीं का ! किसने कहा मैं तुझसे नाराज़ हूँ ?" और आँखों में वही प्यार उमड़ आया-माँ वाला प्यार।

बंटी का मन हुआ दूध-टोस्ट रखकर ममी के गले से लिपट जाए, पर वह हिला नहीं। बस, ममी की आँखों के उस लाड़ को रोम-रोम में महसूस करता बैठा रहा। लगा मन पर एक बहुत बड़ा बोझ था, वह उतर गया।

ममी फिर अख़बार पढ़ने लगीं। धीरे-धीरे उनके चेहरे पर फिर वही उदासी फैल गई।

ममी उदास होती हैं तो सारा घर कैसा उदास हो जाता है ? कमरे, कमरे की हर चीज़। हमेशा बकर-बकर करनेवाली फूफी भी जाने कैसे-कैसे हो जाती है।

बंटी बोले तो किससे बोले, करे तो क्या करे ? तभी आँखों के सामने मैकेनो का वह डिब्बा घूम गया। नहीं, अभी बिलकुल नहीं।

ममी ने हीरालाल को बुलाकर कहा, “हीरालाल, आज हम कॉलेज नहीं आ पाएँगे।

मिसेज़ कौशिक से कहना ज़रा देख लेंगी।"

“जी, बहुत अच्छा सरकार।" हीरालाल ने सलाम ठोंका और चला गया।

ममी को तैयार होता देख बंटी ने पूछा, “ममी, तुम कहाँ जा रही हो ?' एक क्षण को बिंदी लगाता हुआ ममी का हाथ जहाँ का तहाँ रुक गया। माथे पर बल पड़े, चेहरे पर एक अजीब-सी उलझन आई। फिर धीरे-से बोली, “ज़रा काम से बाहर जाना है।"

पापा ने दस बजे ममी को पहुँचने के लिए कहा था। पर कहाँ ? ममी पापा के पास जा रही हैं तो उसे क्यों नहीं ले जा रहीं ? पूछ ले।

“तुम पापा के पास जा रही हो, ममी ?"

ममी फिर एक क्षण को रुकीं। फिर थोड़ी सख्त आवाज़ में कहा, “कहा न, काम से जा रही हूँ।"

हूँऽऽ! न ले जाना चाहती हैं तो न ले जाएँ, झूठ क्यों बोलती हैं ? कल उसके सामने ही तो पापा ने कहा था कि दस बजे पहुँच जाना। मत बताओ, मेरा क्या जाता है।

सवेरे मन में जो एक अपराध-बोध था, भय था, वह धीरे-धीरे गुस्से में बदलने लगा। अच्छा है, कोई कुछ मत बताओ। मेरा क्या जाता है। मैं भी अपनी कोई बात नहीं बताऊँगा। इम्तिहान होगा तो यह भी नहीं बताऊँगा कि कैसा करके आया हूँ। तब पता लगेगा।

फूफी से बात करके ममी चली गईं। बंटी ने मडकर देखा भी नहीं। ममी के पास भी नहीं गया। हालाँकि मन में बराबर उम्मीद थी कि जाते-जाते एक बार ममी ज़रूर बुलाएँगी...कुछ कहेंगी पर ममी चली गईं। दूर होती घोड़े के घुघरुओं की आवाज़ से ही बंटी ने जाना कि ममी का ताँगा चला गया।

फनफनाता हुआ वह फूफी के पास गया, “फूफी बताओ तो ममी कहाँ गई हैं?"

"गई हैं भाड़ झोंकने !' बंटी अवाक्-सा उसका मुँह देखता रह गया।

"क्या बक रही है ?"

“हम कहते हैं, तुम यहाँ से चले जाओ बंटी भय्या। हमारे तन-बदन में आग लगी हुई है इस बख़त। बहू को ले जाकर थाना-कचहरी में खड़ा करेंगे। मर्दानगी दिखाएँगे। अरे हाथ पकड़कर निभाने की मर्दानगी जिनमें नहीं होती, वह ऐसे ही मर्दानगी दिखाते हैं। अनबन किसमें नहीं होती, तो क्या ब्याही औरत को यों छोड़ दिया जाता है ?"

“तब से तुम बकर-बकर किए जा रही हो। बताती क्यों नहीं कि ममी कहाँ गई हैं ?"

"हमें नहीं मालूम कहाँ गई हैं ? पूछ लिया होता न अभी ! तुम हमारे सामने से चले क्यों नहीं जाते हो ? नहीं, हम चार बात अभी तुम्हें भी सुना देंगे, समझे !"

"हैं सुना देंगे ! बड़ी आई है सुनानेवाली ! कोई मत बताओ मुझे कि क्या बात है।" गुस्से से भन्नाता हुआ बंटी कमरे में आया।

ब्याही औरत छोड़ने की बात का अर्थ तो फिर भी उसकी समझ में आ गया था, पर थाना-कचहरी की क्या बात है ? एकाएक चाचा की कुछ बातें मन में उभरीं। यह सब चाचा का ही चलाया हुआ चक्कर है। वकील हैं तो यही सब करेंगे। थाना-कचहरी में ममी को पुलिस ने ही रख लिया तो ? एक अजीब-सी दहशत उसके मन में भरने लगी।

सब-कुछ जान लेने की आतुरता और कुछ भी न जान पा सकने की विवशता से बंटी को रोना आ गया।

मैं भी पापा के खिलौने से खेलूँगा, ज़रूर खेलूँगा। जिसको गुस्सा होना हो, होए गुस्सा। बंटी ने सोफ़े के पीछे से सब चीजें निकालीं और मैकेनो का डिब्बा खोलकर बैठ गया। अच्छा है ममी आकर देखें।

"चलकर नाश्ता कर लो।"

लो, अब ये फूफी भी रोकर आई है। अच्छा है, सब रोओ, खूब रोओ। पर उसे कुछ मत बताना। वह होता ही कौन है किसी का ?

मेज पर दूध-दलिया और एक सेब कटा हुआ रखा था। देखते ही बंटी फिर भभक उठा-"फिर वही दूध-दलिया। मैं नहीं खाता रोज़-रोज़ सड़ा दलिया।" और गुस्से में आकर बंटी ने दूध-दलिये की कटोरी उछाल दी। झन्नऽऽ की आवाज़ कमरे में गूंजती हुई सारे घर में फैल गई। अजीबोगरीब क़िस्म के नक्शे बनाता हुआ दलिया सारे कमरे में यहाँ से वहाँ तक बिखर गया।

पूरी तरह तैयार होने के बावजूद, एक क्षण को बंटी जैसे अपने किए पर सहम गया।

“फेंको, खूब फेंको, सारी चीजें उठाकर फेंक दो। आखिर तम किसी से कम हो ? यह तो एक बहूजी हैं जो तुम्हारे पीछे जान हलकान किए रहती हैं। नहीं तो..."

"चोऽप कर !" बंटी पूरी ताकत लगाकर चीखा।

“चुप करे वह जिसके जीभ नहीं है। आने दो ममी को, यों का यों पड़ा रहने दूँगी यह सारा दलिया। देखें तो तुम्हारे कारनामे। अभी से तुम्हारा यह हाल है तो बड़े होकर पता नहीं क्या सुख दोगे अपनी महतारी को !"

बंटी ने अपनी बंदूक उठाई और फूफी को यों ही बकता छोड़कर बगीचे में आकर दनादन दागने लगा...ठाऽय, ठाऽय...

पेड़ों पर बैठे कौवे और चिड़िया उड़ गए और चारों ओर कुछ भी समझ में न आनेवाली आवाज़ों का शोर फैल गया।

कमरे के एक कोने में ममी खड़ी हैं, दूसरी ओर फूफी और बंटी। बीच में दलिया फैला पड़ा है। एक ओर को कटोरी लुढ़की पड़ी है।

"बंटी!"

बंटी चुप। जमीन में आँखें गड़ाए, पत्थर की तरह खड़ा है।

"बंटी !” आवाज में न सख्ती है न नरमी। जैसे कोई बटन दबा दिया हो और आवाज़ निकल गई।

बंटी टस से मस नहीं हुआ। जहाँ का तहाँ पत्थर का बना खड़ा रहा। उसने एक बार आँख तक उठाकर नहीं देखा। ज़मीन पर नज़रें टिकाए-टिकाए ही उसने जान लिया कि ममी चलकर उसके पास आ रही हैं। क्षणांश को वह सकपका गया। कहीं आते ही एक चाँटा नहीं जड़ दें। ठीक है, खा लेगा वह चाँटा भी, मारें तो सही। अब यहाँ कुछ भी हो सकता है। हमेशा ममी के गुस्से से या डाँट से बचानेवाली फूफी अगर बकर-बकर करके शिकायत कर सकती है तो ममी भी मार सकती हैं।

"बंटी !"

बंटी फिर भी चुप।

“तू सुन नहीं रहा बेटा, मैं क्या कह रही हूँ ?" और ममी का हाथ बंटी की पीठ सहलाने लगा। इस अप्रत्याशित स्नेह के लिए तो बंटी बिलकुल तैयार नहीं था। पर मिला तो जैसे वह एकाएक पिघल गया। इतनी देर का गुस्सा, खीझ, दुख और भी जाने क्या-क्या जमा हुआ था मन में, सब आँखों के रास्ते बह निकलने को अकुलाने लगा।

“रोज-रोज दलिया बनाकर रख देती है, हमसे नहीं खाया जाता। सवेरे-से गंदी-गंदी बातें बक रही है। तुम इसे कुछ नहीं कहतीं। पूछो तो इससे क्या-क्या कह रही थी..." और बंटी का गला भिंच गया।

ममी ने जैसे ही बड़े प्यार से उसे अपने से सटाया कि बंटी एकदम फूट पड़ा। बस फिर रोता ही रहा। रोते-रोते जैसे हिचकियाँ बँध गईं।

“जब कल इसने कह दिया था कि दलिया अब इसे अच्छा नहीं लगता तब तुमने आज फिर क्यों दलिया बनाया फूफी ? तुम इसका इतना भी ख़याल नहीं रख सकती ?"

“मत इतना सिर चढ़ाओ बहूजी, हम अभी से कहे देते हैं, नहीं फिर आप ही दुखी होंगी।"

"तुम गई हो तब से ऐसी ही गंदी-गंदी बातें कर रही है। और भी बहुत गंदी-गंदी बातें।"

ममी ने उसके आँसू पोंछे तो आने के बाद पहली बार उसने भरपूर नज़र से ममी को देखा। और उसकी रोई-रोई आँखें ममी के चेहरे पर जैसे चिपक गईं। तभी ख़याल आया ममी थाना-कचहरी से लौटी हैं। वहाँ ममी के साथ क्या हुआ ?

और खराब काम करने पर भी प्यार करनेवाली ममी के लिए उसके अपने मन में ढेर सारा प्यार भर गया।

लगता है, ममी बहुत परेशान हैं, शायद दुखी भी।

ममी बाथरूम में गईं तो वह कमरे में आ गया। पलंग पर फैला हुआ मैकेनो उसने जल्दी से समेटा और सोफ़े के पीछे छिपा दिया। अब वह ममी को बिलकुल भी दुखी नहीं करेगा।

ममी शायद सिर में भी पानी डालकर आई हैं। उन्होंने जड़ा खोला और गीले बालों की एक ढीली-सी चोटी बना ली। बंटी छिपी-छिपी नज़रों से देख रहा है, उनका चेहरा, उनके हाव-भाव, उनका हर काम, और अपने हिसाब से सब कुछ समझने की कोशिश कर रहा है।

“बाहर गरमी बहुत तेज़ थी, माथे में जैसे गरमी चढ़ गई।" ममी ने कहा और पलंग पर सीधे लेटकर बाँह आँखों पर रख ली। ममी का आधे से ज़्यादा चेहरा ढक गया।

ममी शायद नहीं चाहती कि बंटी उनका चेहरा देखे। कल से ही तो कितनी उदास हैं ममी ! और ममी की उदासी से बंटी ख़ुद भीतर ही भीतर कहीं बड़ा उदास और दुखी हो आया है। क्या करे ममी के लिए वह ? सारे घर में एक चक्कर लगा आया। पर कुछ भी तो समझ में नहीं आया। लौटकर फिर कमरे में आया। ममी वैसे ही लेटी हैं। दबे पाँव उसने सोफ़े के पीछे से पापा का दिया सामान निकाला और धीरे-से अलमारी खोलकर उसमें बंद कर दिया।

अब ?

एकाएक ख़याल आया ममी के लिए शिकंजी बनाकर ले आए। वह दौड़ा-दौड़ा गया। नहीं, फूफी से वह बिलकुल बात नहीं करेगा। उस पर सवेरे से भूत चढ़ा हुआ है। अपने हाथ से शिकंजी बना लेगा। जाने कैसी फुर्ती आ गई है उसके हाथों में। स्टूल पर चढ़कर चीनी उतारी, नीबू काटा, बरफ़ निकाली। फूफी कैसे देख रही है उसकी तरफ़ ! बोले तो सही अब कुछ।

"ममी !” सारी मिठास घोलकर उसने धीरे-से पुकारा।

ममी चुप। क्या सो गई ? नहीं शायद रो रही हैं। वह गौर से देखने लगा कहीं से बदन थिरक रहा है। पर नहीं, ममी एकदम निस्पंद लेटी थीं।

“ममी, यह शिकंजी लो। मैं बनाकर लाया हूँ।" और उसने एक हाथ से खींचकर उनका हाथ हटा दिया।

बंद आँखें और ऐसा कातर चेहरा कि बंटी भीतर तक पिघल गया। क्या हो गया ममी को !

“ममी, शिकंजी पिओ न !'' बड़े अनुरोध-भरे स्वर में उसने कहा, पर अंत तक आते-आते उसका अपना स्वर जैसे बिखर गया।

ममी उठीं। उसके हाथ से गिलास लेकर बोली, “तू बनाकर लाया है शिकंजी, ममी के लिए ? मेरा राजा बेटा !" और बंटी को इस तरह एकटक देखने लगीं कि उनकी आँखों में पानी छलछला आया।

उन्होंने एक घूँट में गिलास खाली करके नीचे सरका दिया और बंटी को अपने पास खींचकर दोनों गालों पर एक-एक किस्सू दिया। बंटी जैसे निहाल हो गया। मन हुआ वह भी ममी के गले में बाँहें डालकर खूब प्यार करे।

अब ममी ज़रूर उसे अपने पास लिटाएँगी और सारी बातें बताएँगी। जो बच्चा माथे में गरमी चढ़ जाने पर अपने हाथ से शिकंजी बनाकर ला सकता है वह ममी की और बात नहीं समझ सकता ?

पर ममी ने इतना ही कहा, “जो भी तुझे पसंद हो, फूफी से कहकर बनवा ले और खा ले बेटा, मैं थोड़ा सोऊँगी।"

ममी लेट गई और बंटी वहीं खड़ा रह गया-अपमानित सा, उपेक्षित-सा। ममी उसे बताती क्यों नहीं कि क्या हुआ है ?

दोपहर में बारिश हुई थी और नहाया-धोया लॉन बड़ा ताज़ा-ताज़ा लग रहा था। आज क्यारियों को सींचने की ज़रूरत नहीं है। बंटी माली के साथ-साथ पौधों के पास उग आई घास को उखाड़-उखाड़कर फेंक रहा है। लॉन के एक सिरे पर बैठी ममी को रह-रहकर देख लेता है। जब से ममी जागी हैं, वह उन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रहा है। इस उम्मीद में कि शायद ममी कभी उसे बुला ही लें। या कि शायद उन्हें कभी उसकी ज़रूरत ही पड़ जाए। वह आज टीटू के यहाँ भी नहीं गया, न टीटू को ही यहाँ बुलाया। होगा टीटू समझदार, पर क्या वह यह समझ सकता है कि आज का दिन हल्ला-गुल्ला करनेवाला नहीं है। यह तो केवल बंटी ही समझता है कि उसके घर में कुछ बड़ी बात है। ममी बहुत उदास हैं, इसलिए उसे भी उदास रहना चाहिए। आज क्या खेल-कूद हो सकता है यहाँ ?"

घास उखाड़ते-उखाड़ते वे दोनों ममी के पास आ पहुँचे। उसी कोने में बंटी ने कुछ दिनों पहले आम की गुठलियाँ बोई थीं, जो अब एक-दो बारिश के बाद छोटे से पौधे के रूप में फूट आई थीं। बंटी रोज़ उन्हें देखता और प्रसन्न होता।

आज उनमें और दो-चार नई पत्तियाँ फूटी हुई थीं। बंटी ने बड़े दुलार से तांबई रंग की उन कोंपलों को छुआ-नरम-नरम, मुलायम-मुलायम। फिर सारी पत्तियों को गिना।

“माली दादा, अच्छा बताओ तो कितने दिनों में वह पौधा बन जाएगा बड़ा पेड़ जिसमें आम लगने लगें ?"

माली ने अपना झुर्रियोंवाला चेहरा ऊपर को उठाया, फिर अपनी गिजगिजी-सी आँखों को मिचमिचाते हुए बोला, "हमारे बंटी भैया बच्चे तो उनका पौधा भी बच्चा। बंटी भैया जब जवान होंगे तो पौधा पेड़ हो जाएगा। फिर बंटी भैया का ब्याह होगा, बहरिया आएगी, बाल-बच्चे होंगे तो पेड़ में भी बौर फूटेगा, कोयल कूकेगी, आम लटकेंगे। बंटी भैया के ब्याह में इसी आम की बंदनवार बाँधूंगा। समझे !" फिर ममी की ओर देखकर बोला, “सुन रही हैं बहूजी, बहुत बड़ी बख्शीश लूँगा बंटी भैया के ब्याह में। आशीर्वाद दीजिए कि आपका यह बूढ़ा माली जिंदा रह जाए तब तक।"

“धत्, बेकार की बातें करते हो।" बंटी झेंप गया, फिर उसने छिपी नजरों से ममी की ओर देखा। एक बड़ी फीकी पर मोहक-सी मुसकान ममी के चेहरे पर लिपटी हुई थी। तो क्या माली की बात से ममी खुश हुईं ?

"बताओ न, कब होगा यह पेड़ ?"

"बताया तो, अब तुम नहीं मानते तो बहूजी से पूछ लो।"

आखिर क्यारी साफ़ करके माली हाथ झाड़कर खड़ा हो गया, “आप ही बताओ बहूजी, आम का पौधा बंटी भैया के साथ ही जवान नहीं होगा ? मैं क्या झूठ कहता हूँ ?''

“तुम बताओ ममी !" और वह ममी की कुर्सी के हत्थे पर जा बैठा। यह बात ही शायद ममी और उसके बीच सेतु बन जाए। वह ममी से बोलना चाहता है, कुछ भी, किसी भी विषय पर, ममी जो भी कहें, वह सुनेगा, पर ममी कहें तो।

“आम के पेड़ को बहुत साल लगते हैं बेटे, शायद दस साल।"

"बाऽप रे, दस साल !" बहुत ही जल्दी दूसरी बात नहीं पूछेगा तो ममी चुप हो जाएँगी और उसे जैसे कोई बात ही समझ में नहीं आ रही है। बिना ज़रूरत के तो सैकड़ों बात दिमाग में आएँगी और इस समय...

“अच्छा ममी, कुछ-कुछ कहानियों में ऐसे पेड़ होते हैं न, जिनमें चाँदी की पत्तियाँ होती हैं, सोने के फल और फलों के अंदर मोतियों के दाने निकलते हैं। ऐसे पेड़ हम नहीं उगा सकते ?"

“नहीं रे, वे सब तो कहानियों की बातें होती हैं।" "पर अगर ऐसा होता नहीं है तो कहानी में कैसे आ जाता है ? कहानी तो आदमी ही बनाता है, जिस चीज़ को आदमी ने कभी देखा ही नहीं, वह बात उसके दिमाग में आती ही कैसे है फिर ? ज़रूर कभी ऐसा रहा होगा..."

पता नहीं बंटी ने ऐसा क्या कह दिया कि ममी एकटक उसका चेहरा देखने लगीं और छलछलाई आँखों ने उनके चेहरे की उदासी को और गहरा दिया।

"ऐसा नहीं होता, मैंने कुछ गलत कहा है ममी ?" बंटी ने इस तरह कहा जैसे कोई अपराध हो गया हो उससे।

"होता होगा, मुझे नहीं मालूम।" और बात का सूत्र फिर टूट गया। बात को जोड़ने के प्रयत्न में बंटी का अपना मन जैसे कहीं से बिखरता जा रहा है।

रात को हाथ-मुँह धोकर, नाइट-सूट पहनकर, बिना एक बार भी 'नहीं' किए दूध पीकर एकदम राजा बेटा बना हुआ वह ममी के पास आया। लेकिन ममी ने फिर भी उसे अपने पास सोने के लिए नहीं कहा। थोड़ी देर वह इस प्रतीक्षा में खड़ा रहा, फिर बिना कहे ही वह ममी के पलंग पर बगल में लेट गया। मन हुआ ममी के तिल पर धीरे-धीरे उँगली फेरे, उनके गले में बाँहें डाल दे, पर आज जैसे उससे कुछ भी करते नहीं बन रहा था। बस, सवेरे से वह टुकुर-टुकुर ममी को देखता रहा है और प्रतीक्षा करता रहा है कि अब कुछ हो, अब कुछ हो। होना क्या था, यह शायद उसे भी नहीं मालूम था। पर फिर भी जैसे 'कुछ होने' की उसने हर क्षण प्रतीक्षा ज़रूर की है।

"-बंटी !" एकाएक ममी ने उसकी ओर करवट करके बहुत धीमी आवाज़ में कहा और अनायास ही उनकी उँगलियाँ उसके बालों को सहलाने लगीं।

"हाँ, माँ !" बहुत लाड़ में आकर वह ममी को माँ ही कहता है, एक बार ममी ने कहा भी था, तेरा 'माँ' कहना मुझे बहुत प्यारा लगता है।

"कल पापा के साथ क्या-क्या किया बेटा ?"

एक क्षण को बंटी समझ नहीं पाया कि कल की बात में से कौन-सी बात बतानी चाहिए और कौन-सी नहीं।

"कुछ नहीं, पहले पापा बातें करते रहे, फिर घुमाने ले गए, खिलाया-पिलाया, चीजें दिलवाईं और बस।" बात से भी ज़्यादा स्वर और लहजे को सहज बनाकर बंटी ममी को यह विश्वास दिला देना चाहता है कि कल कुछ ऐसा नहीं हुआ जिससे ममी नाराज़ हों या दुखी।

“जब बाहर से लौटकर वापस आए और देखा कि चपरासी वापस चला गया है तो मैंने पापा से कह दिया कि मैं यहाँ बिलकुल नहीं रहूँगा, घर ही जाऊँगा, ममी के पास। रात में मैं ममी के बिना रह नहीं सकता।" और इतना कहकर बंटी ने बाँह ममी के गले में डाल दी।

"क्या-क्या बातें करते रहे तुमसे ?"

"बहुत सारी। पढ़ाई की, खेल-कूद की, दोस्तों की, कलकत्ता की।" फिर एकाएक जैसे कुछ याद आ गया हो, इस तरह बोला, “पता है ममी, पापा क्या कह रहे थे ?” और वह एकदम कोहनियों के बल उठ आया।

"क्या ?"

“कह रहे थे तुम इस बार छुट्टियों में कलकत्ता आना। खूब घुमाएँगे-फिराएँगे, छुट्टियाँ ख़त्म होने पर फिर वापस छोड़ जाएँगे।"

इस वाक्य से ही ममी की जड़ता एकाएक जैसे टूट गई। अपने चेहरे पर गड़ी हुई नज़रों के तीखेपन को बंटी ने भीतर तक महसूस किया। अब इस बात से वह सचमुच ममी को जीत लेगा, उनकी सारी नाराजगी दूर कर देगा, ममी पहले ही पूछतीं तो वह सब बता देता। बिना कुछ जाने-पूछे बेकार ही सवेरे से नाराज़-नाराज़ घूम रही हैं। अब जानें सारी बात और देखें उसकी समझदारी।

"फिर तूने क्या कहा ?''

"मैं क्या कहता, मना कर दिया। कह दिया कि मैं तो ममी के बिना कहीं जाता ही नहीं।" बंटी एकाएक उत्साह में आ गया। अब तो ममी जान लें कि पापा के बुलाने से उनके पास हो आया तो क्या, वह बेटा तो ममी का ही है।

“अच्छा किया।" ममी का स्वर भीगा हुआ और आवाज़ सैंधी हुई-सी थी। “मैं क्यों जाऊँगा, अकेला तो मैं कब्भी जा ही नहीं सकता।"

"बंटी बेटा, तू मेरे ही पास रहना।" और उसके बाल सहलाती हुई ममी फिर जैसे अपने में ही खो गईं।

तो ममी को यह डर है कि पापा उसे अपने साथ ले जाएँगे। इसीलिए शायद सवेरे से ही नाराज़ थीं। पर पापा उसे क्यों ले जाएँगे भला ? वह तो शुरू से ही ममी के पास रहा है। कैसी लड़ाई है यह, ममी-पापा की ?

तभी मन में एक बात टकराई। याद आया एक बार उसकी और टीटू की लड़ाई हो गई थी, धुआँधार, घूसे, मुक्के, मार-पीट, सभी कुछ हुआ था। फूफी ने बीच-बचाव करके टीटू को उसके घर भेज दिया था। वह रोता हुआ चला गया था और थोड़ी देर बाद ही शन्नो आई थी-'बंटी, टीटू की सारी चीजें दे दो, वह अब तुमसे कभी नहीं बोलेगा। पक्की कुट्टी कर ली है उसने।' कर ली है तो कर ले। हमारी भी पक्की कुट्टी है। उसने कहा, पहले हमारी चीजें दे जाएगा, फिर अपनी ले जाएगा। हमें नहीं चाहिए, सड़ी-सड़ी चीजें। हँऽ-घमंडी, कटखना कहीं का...

और फिर दोनों ने अपनी-अपनी चीजें वापस ले ली थीं और दूसरे की लौटा दी थीं। घंटे-भर के भीतर-भीतर सारे हिसाब-किताब साफ़ कर लिए थे। लड़ाई में शायद ऐसा ही होता है।

पर वह भी किसी की चीज है क्या ? है तो किसकी ? ममी की या पापा की ? नहीं, वह ममी का है, ममी के ही तो पास रहता है। पापा उसे प्यार करते हैं, वह भी पापा को प्यार करता है, पापा उसे अच्छे भी लगते हैं, पर पापा उसे लेना क्यों चाहते हैं ? लेकिन पापा लड़े तो नहीं, उसने मना किया कि मैं वहाँ नहीं रहूँगा, घर जाऊँगा तो चुपचाप यहाँ छोड़ गए। यहाँ तो दोनों बिलकुल नहीं लड़े।

ममी-पापा की लड़ाई शायद ऐसी ही होती होगी, चुपचापवाली। कहीं ऐसा तो नहीं है कि सवेरे पापा ने ममी को बुलाकर कुछ कहा हो, और इसीलिए ममी इतनी उदास हों। उसने एक बार ममी को देखा। फिर हिम्मत करके पूछा, “ममी, आज सवेरे तुम पापा के पास गई थीं। वहाँ क्या हुआ ?"

“अब होने को बाकी ही क्या रह गया था ? बस, अब से तू मेरा बेटा है, केवल मेरा। भूल जा कि तेरे पापा..." और ममी का स्वर भिंच गया। उनसे फिर कुछ भी बोला नहीं गया।

ममी के रूंधे हुए स्वर और अँसुवाई आँखों ने बंटी को भीतर तक दहला दिया। पर ममी के प्रति सारे लाड़-प्यार और उनके दुख में दुखी होने के बावजूद एक क्षण को मन में यह बात ज़रूर आई-पापा को वह कैसे भूलेगा ? पापा तो उसे बहुत अच्छे लगते हैं।

कि एकाएक ममी फूट-फूटकर रो पड़ीं। तकिए में मुँह गड़ा लिया। सवेरे से जिस आवेग को रोके बैठी थीं, अचानक ही वह जैसे सारे बाँध तोड़कर बह निकला। बंटी बुरी तरह सकपका गया। ममी को उसने रोते देखा है, पर उसके सामने कभी रोती नहीं, इस तरह तो कभी रोती ही नहीं।

बंटी को कुछ भी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे, कैसे ममी को चुप कराए। और जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो ममी के गले से लिपटकर खुद भी फफक-फफककर रो पड़ा। "मत रोओ ममी-रोओ मत-"

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