लोगों की राय

पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

Like this Hindi book 17 पाठकों को प्रिय

313 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास...

क्षण-भर के लिए राम ने मारीच के लौट आने की प्रतीक्षा की, पर मारीच कहीं दिखाई नहीं पड़ा। तब उन्होंने पीछे की ओर होते चीत्कारपूर्ण कोलाहल की ओर देखा।

पीछे से राक्षसों की सेना ने लक्ष्मण की टोली पर आक्रमण किया था। अपनी समझ में कदाचित् उन्होंने गुप्त रूप से प्रहार किया था, किंतु लक्ष्मण अपनी टोली के साथ पूर्णतः सावधान थे। वे सारे राक्षस लगभग वैसे ही भयंकर थे, जैसे मारीच और सुबाहु थे। किंतु, आकार में वे लोग कुछ छोटे थे। उनके वस्त्र और आभूषण भी उतने मूल्यवान नहीं थे।

उन लोगों ने अपने आक्रमण के साथ-हीं-साथ मारीच और सुबाहु का परिणाम देख लिया था-उनके मुख पर क्रूरता और भय में द्वंद्व चल रहा था। वे लोग अपने भय से मुक्त होने के लिए ही जोर-जोर से चिल्ला रहे थे। अपने ही मन को आश्वासन देने के लिए वे लोग अपने व्यवहार में बहुत आक्रामक होने का प्रयत्न कर रहे थे। किसी निश्चित योजना के अभाव में वे व्याकुल-से इधर-उधर भाग रहे थे और कभी-कभी आकाश की ओर उछलने का अभिनय कर रहे थे।

लक्ष्मण की टोली बड़े आत्मविश्वास और सामर्थ्य के साथ, उनसे जूझ रही थी। लक्ष्मण ताक-ताक कर उन्हें तीक्ष्ण फलों वाले बाण मार रहे थे। बीच-बीच में वह वायवास्त्र का भी प्रयोग कर रहे थे।

राक्षसों की संख्या क्रमशः कम होती जा रही थी। उनका चीत्कार और कोलाहल भी धीमा पड़ता जा रहा था। राम को इस युद्ध में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं लगी। वह अपनी टोली के साथ मुख्य द्वार की ओर सन्नद्ध खड़े रह कर इस युद्ध के साक्षी होने का आनन्द उठा सकते थे। राम के आ जाने से लक्ष्मण को अपना पूर्ण पराक्रम प्रकट करने का अवसर नहीं मिल पाता।

...तभी युद्ध वाली दिशा में, योद्धाओं का एक और दल राक्षसों की पीठ पर प्रकट हुआ और उन पर टूट पड़ा। राक्षस दो पाटों के बीच फंस गए थे। नवागंतुक निश्चित रूप से आश्रम-वाहिनी के लोग नहीं थे। किंतु थे वे भी राक्षसों के शत्रु ही। राम कुछ विस्मय से उन लोगों को देख रहे थे। वे आर्य नहीं थे। रंग-रूप से वे लोग निषाद जाति के लगते थे। उनके पास कुछ छोटी पुरानी तलवारें, कुछ कुल्हाड़ियां और कुछ छोटे-छोटे धनुष थे, जिनसे छोटे और हलके बाण चलाए जा सकते थे। उनके बाण भी बिना फल के 'थे; परंतु उनका पराक्रम अद्भुत था।

इन दो पाटों के बीच नेतृत्वविहीन राक्षस अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। उनकी संख्या इतनी तेजी से कम हो रही थी युद्ध में वे अधिक देर टिकते नहीं लग रहे थे। इसका आभास स्वयं राक्षसों को भी था... यह उनके चेहरों के भाव स्पष्ट घोषित कर रहे थे।

अकस्मात ही बिना किसी पूर्व भूमिका के राक्षसों के, पांव उखड़ गए। वे लोग भागे। उनके भागने की कोई विशेष, दिशा नहीं थी। वे नियंत्रणहीन हो, तितर-बितर, अपने प्राणों की रक्षा के लिए भाग रहे थे।

"इनका पीछा करो।'' लक्ष्मण ने अपनी टोली को आदेश दिया, ''देखो, कहीं ये दुष्ट यहां से असफल हो, तुम्हारे ग्रामों में घुसकर हानि न करें।''

ग्रामीण तथा निषाद योद्धा अपने दबाव बनाए हुए, प्रहार करते हुए, राक्षसों को खदेड़ते हुए दूर तक चले गए।

युद्ध सहसा ही समाप्त हो गया था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book