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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

निमिष मात्र में मस्तिष्क और शरीर दोनों को ही काम करना था। ...राम ने कान तक धनुष की प्रत्यंचा तानकर एक साधारण बाण मारा। बाण ने किसी शक्तिशाली पक्षी के समान झपटते हुए आते हुए उस मांस-खंड को यज्ञ-बेदी से बहुत दूर वायु में ही रोक दिया। मांस-खंड अधिक आगे नहीं बढ़ सका।

किंतु मारीच... राम ने तूणीर से तुरन्त दूसरा बाण खींचा और लाघवपूर्वक इतने कम अंतराल में उसे चला दिया, मानो दोनों बाण साथ ही साथ छोड़े गए हों... किंतु दूसरा बाण, पृथ्वी से उछले मारीच की ओर झपटा ही था कि राम ने अनुभव किया कि उनके धनुष से अनुपयुक्त अस्त्र छूटा है। यह शीतेषु नामक मानवास्त्र था। साधारण मनुष्य के लिए यह अस्त्र यम का दूत था, किंतु मारीच जैसे बलवान राक्षस के वध के लिए कदाचित इसकी शक्ति अपर्याप्त हो...।

शीतेषु ने मारीच के वक्ष पर आघात किया। राम का लक्ष्य सुई की नोक-भर भी नहीं भटका था। मारीच के कंठ से लंबा चीत्कार फूटा और शीतेषु के वेगपूर्ण आघात से वह उल्टी दिशा में परे जाकर वृक्षों के किसी झुंड में गिर पड़ा...।

क्षण-भर तक राम ने मारीच की प्रतीक्षा की, किंतु उसके वहां होने या लौटने का कोई चिह्न नहीं था। सुबाहु ने भी अब तक आक्रमण का कोई प्रयत्न नहीं किया था। वह भौंचक-सा मारीच और राम का यह अद्भुत युद्ध देख रहा था। उसने अपने जीवन में इससे पूर्व किसी मानव को राक्षसों से ऐसे लड़ते नहीं देखा था। वह अपनी स्थिति भूला-सा मारीच के लौट आने की प्रतीक्षा कर रहा था...। किंतु मारीच के लौटने का कहीं कोई आभास नहीं था। या तो वह मर चुका था, या गंभीर घाव खाकर कहीं पड़ा था। सहसा सुबाहु अपनी स्थिति के प्रति सावधान हुआ। वह सिद्धाश्रम में खड़ा था-अपने शत्रुओं से घिरा हुआ। सामने राम थे, दूसरी ओर लक्ष्मण। लक्ष्मण बच्चा था, पर राम साधारण योद्धा नहीं थे। उन्होंने ताड़का और मारीच जैसे प्रसिद्ध राक्षस योद्धाओं को मार गिराया था...।

राम अपने तीसरे बाण के साथ प्रस्तुत थे। इस बार वे संयोग पर निर्भर नहीं थे। उन्हें चयन का अवसर मिल गया था। उन्होंने इस बार अपने धनुष पर आग्नेयास्त्र धारण किया था। आग्नेयास्त्र के आघात को सुबाहु भी नहीं झेल पाएगा-वे जानते थे।

सुबाहु ने अपना खड्ग ताना और राम पर प्रहार करने के लिए झपटा।

राम इस बार पूर्णतः प्रस्तुत थे। कोई जल्दी नहीं थी। पूर्व योजना के अनुसार उपयुक्त क्षण पर, राम ने अपना धनुष ताना और पूरे वेग के साथ आग्नेयास्त्र सुबाहु के वक्ष में दे मारा।

आग्नेयास्त्र ने सुबाहु के वक्ष को मध्य से बेध दिया। वक्ष से रक्त का जैसे उत्स फूटा। सुबाहु का शरीर निमिष-भर को कांपा और औंधा होकर पृथ्वी पर गिरा। उसकी गर्दन तनिक-सी कांपी, माथे पर पीड़ा की रेखाएं प्रकट हुईं और मुख से रक्त स्रोत का दमन हुआ। वह मरते हुए पशु के समान, पीड़ा में डकराया और उसने अपना निश्चेष्ट सिर भूमि पर टेक दिया।

वह मर चुका था।

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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