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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

दो

 

चक्रवर्ती सम्राट् दशरथ की राज्यसभा, सूर्यवंशी राजाओं के गौरव के अनुकूल सुसज्जित थी। दशरथ अपने सिंहासन पर बैठे थे। निकट ही मंत्रिपरिषद उपस्थित थी। सामने एक उच्च स्थान पर वसिष्ठ एवं उनके अनुयायी ब्राह्मण बैठे थे। दूसरी ओर वामदेव और उनके शिष्य। एक ओर सेनापति थे, दूसरी ओर सामंत। राजसभा में पूर्ण शांति थी, जैसे चलती हुई बात कहीं रुक गई हो; और किन्हीं कारणों से सभा स्तब्ध रह गई हो।

सहसा उस निःस्तब्धता को भंग करता हुआ सम्राट् का स्वर गूंजा, ''तो गुरुदेव का क्या आदेश है?''

वसिष्ठ ने सारी राजसभा का मौन-निरीक्षण किया और अन्त में अपने नेत्र सम्राट् के चेहरे पर टिका दिए, जैसे वाणी से ही नहीं, वह अपनी आंखों से भी बहुत कुछ कहना चाहते हों। उनकी वाणी गंभीर, ठहरी हुई तथा पूर्णतः आश्वस्त थी, ''सम्राट् का विचार अति उत्तम है। राम का विवाह कर दिया जाना चाहिए, वह ब्रह्मचर्य की आयु पूर्ण कर चुके हैं। किंतु सम्राट् को विवाह-संबंध स्थापित करते हुए, अपने वंश के अनुकूल समधी की खोज करनी चाहिए। इस विषय में यदि मेरी इच्छा जानना चाहें तो मैं कहूंगा कि सम्राट् यदि किन्हीं राजनीतिक कारणों से भी चाहें तो राजकुमार का विवाह पूर्व के व्रात्यों में न करें-जिन्होंने वैदिक कर्मकांड का त्याग कर, स्वयं को ब्रह्मवादी चिंतन में विलीन कर भ्रष्ट कर लिया है। सम्राट् राजनीति का अपना महत्व है। किंतु आर्य जाति के रक्त, संस्कृति एवं विचारों की शुद्धता का महत्व उससे भी कहीं अधिक है।...पूर्व के अतिरिक्त दक्षिण में भी ऐसा कोई राजवंश मुझे नहीं दिखता, जो रघुकुल का उपयुक्त समधी हो सके। केवल उत्तर एवं पश्चिम...''

वसिष्ठ रुक गए। उनकी आंखें सम्राट् के मुख से हटकर उस प्रतिहारी पर जम गई थीं, जो राजसभा की कार्यवाही के मध्य भी कोई आवश्यक सूचना निवेदित करने के लिए सम्राट् के सम्मुख उपस्थित हुआ था। निश्चय ही समाचार अत्यन्त आवश्यक था, अन्यथा वह इस प्रकार कार्यवाही के मध्य में सभा-भवन के भीतर प्रवेश करने का साहस न करता। वसिष्ठ के साथ-साथ प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति का ध्यान प्रतिहारी की ओर आकर्षित हो चुका था।

सम्राट् की अनुमति पाते ही प्रतिहारी ने निवेदन किया, ''सम्राट्! द्वार पर स्वयं ऋषि विश्वामित्र अपनी शिष्य-मंडली के साथ उपस्थित हैं।''

विश्वामित्र! राजसभा में उपस्थित प्रत्येक चेहरे ने कोई न कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की। सबसे अधिक प्रभाव बूढ़े सम्राट् दशरथ पर हुआ-विश्वामित्र निष्प्रयोजन नहीं आते। नारद के समान भ्रमण उनका स्वभाव नहीं है। विशेषकर दशरथ की राजसभा में, जहां राजगुरु के आसन पर वसिष्ठ बैठे हैं।

''उन्हें सादर लिवा लाओ।'' दशरथ ने उच्च किंतु कंपित स्वर में आदेश दिया; और अगले ही क्षण, जोड़ दिया, ''ठहरो! मैं स्वयं चलता हूं।''

इससे पूर्व कि राजसभा का कोई अन्य सदस्य उठकर बाहर जाने का निर्णय कर पाए, सम्राट् स्वयं उठकर बाहर चले गए।

विश्वामित्र दशरथ के साथ भीतर आए। उनके साथ उनके दस पट्ट शिष्यों की मंडली थी। दशरथ ने उन्हें लाकर उसी स्थान पर बैठाया, जहां वसिष्ठ पहले से बैठे हुए थे। विश्वामित्र के बैठते ही सामग्री उपस्थित हुई और सम्राट् ने उनका पूजन कर उन्हें अर्ध्य दिया।

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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