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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

और शिव-धनुष? शिव-धनुष के परिचालन की विधि? राम ने अजगव कभी देखा तक नहीं। फिर वह यह कैसे सोच सकते हैं कि वह उसका परिचालन कर ही लेंगे? राम! तुम बहुत कल्पनाजीवी हो गए हो। तुम बहुत सारी बातों को, परिस्थितियों को, पूर्व-स्वीकृत मान लेते हो। तुम मान लेते हो कि सीता तुमसे विवाह करने के लिए व्याकुल है! तुम मान लेते हो कि शिव-धनुष ने तुम्हें वचन दे रखा है कि तुम चाहोगे, तो वह तत्काल तुमसे परिचालित हो जाएगा...

क्या हो गया है राम तुम्हें?

थोड़ी-सी सफलताएं तुम्हारे मस्तिष्क को तो नहीं चढ़ गईं? तुम स्वयं को अतिमानव क्यों मानने लगे हो? या यह तुम्हारी मनोकामना का स्वेच्छित चिंतन है?

प्रश्नों के बीच घिरे राम को लक्ष्मण ने टोका, ''भैया ऋषि विश्वामित्र आपको बुला रहे हैं।''

राम ने चौंककर लक्ष्मण को देखा। लक्ष्मण वाटिका देखने गए, लौटकर अब उनके सम्मुख आए थे। इस बीच वह अवश्य ही गुरु के पास हो आए थे।

राम चल पड़े।

गुरु को अपनी ओर से निश्चित उत्तर वह दे सकते हैं, पर सीता की इच्छा और शिव-धनुष की शर्त...

''राम!'' गुरु ने कहा, ''पुनर्वसु ऋषि शतानन्द को सूचित कर आया है पुत्र! उसने कहा है, आज संध्या समय, शतानन्द और सम्राट् सीरध्वज दोनों ही यहां आएंगे।...वत्स! यदि तुम अपना मन मेरे सम्मुख खोल सको...।''

राम कुछ चकित-से गुरु की ओर देखते रहे। गुरु कितने सहज रूप से ऐसे प्रश्न पूछ लेते हैं, जैसे ये भी कोई दैनिक-क्रम की बातें हों। या गुरु और राम के बीच कोई अंतराल न हो...पर गुरु सहज होंगे, तो ही राम भी सहज हो पाएंगे...गुरु का पूछना उचित ही है, उनका सारा आगामी कार्यक्रम राम के उत्तर पर निर्भर करता है...

''गुरुदेव! मैं कर्म को प्रस्तुत हूं।'' राम बोले, ''किंतु महादेव शिव का धनुष, मैंने देखा तक नहीं है। आप ही के कहने के अनुसार, वह साधारण धनुष न होकर, एक अद्भुत यंत्र है, जिसके संचालन की कोई विशेष रीति है। संभव है, उस युक्ति का मुझे ज्ञान ही न हो, और इतना समय तो है नहीं कि मैं महादेव को प्रसन्न कर, उनसे यह युक्ति सीख आऊं।''

विश्वामित्र मुस्कराए, ''यह जानते हुए भी कि सीता अज्ञात कुलशीला युवती है, और सीरध्वज ने उसका पोषण मात्र किया है; यदि तुम उससे विवाह के लिए प्रस्तुत हो, तो अजगव की चिंता तुम मुझ पर छोड़ दो।'' गुरु तनिक-सा रुककर, आंखों से राम को तोलते हुए बोले, ''जो वनजा को सम्मान का वचन दे सकता है, अहल्या को सामाजिक प्रतिष्ठा देने का साहस कर सकता है, वह सीता के साथ अवश्य ही न्याय करेगा-ऐसा मेरा विश्वास है। और तुम मुझ पर विश्वास करो राम! तुम सीता को अपने योग्य पत्नी पाओगे।''

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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