नारी विमर्श >> हेमन्त का पंछी हेमन्त का पंछीसुचित्रा भट्टाचार्य
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घर गृहस्थी संभालने वाली महिला यदि अपने एकाकीपन को दूर करने के लिए कोई ऐसा सहारा ढूँढ ले जिसमें उसे अपने जीवन के मायने मिलें तो...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कामयाब पति, दो-दो बुद्धिमान बेटे और अपनी घर-ग्रहस्थी में डूबी अदिति,
उम्र के चालीसवें के मध्य तक पहुँचते-पहुँचते अचानक महसूस करती है कि वह
भयंकर अकेली है। पति अपनी नौकरी में व्यस्त है, दोनों बेटे भी अपने-अपने
आकाश में पंख फैलाये उड़ने लगे हैं। अकेली अदिति अब अपने दिन या तो अपने
आप से या पिंजरे की मैना से बातें करती हुई गुजरती है। उन्हीं दिनों उसकी
जिन्दगी में हेमेन मामा दाखिल होते हैं, उन्हीं की प्रेरणा से जाग उठती
है-एक नई अदिति धीरे-धीरे वह अपनी रची-गढ़ी दुनिया में मग्न हो जाती है।
ब्याह से पहले वह लेखन के क, ख, ग से परिचित हो चुकी थी। अब वह दोबारा
लिखना शुरू करती है। अब जब वह अपने पति, सन्तान और ग्रहस्थी को नई निगाह
से तौलना-परखना शुरू कर देती है, तो शुरू होता है-जबर्दस्त टकराव भयंकर
दर्द के काले बादल घिर आते हैं।
अदिति क्या सिर्फ सुप्रतिम की पत्नी भर है ? मात्र बच्चों की माँ ? वह क्या सिर्फ खून-माँस की मशीन भर है, जिससे सिर्फ यह आपेक्षित है कि बेहद-सहज स्वाभाविक तरीके से ग्रहस्थी की गाड़ी बढ़ाती रहे ? इस दायरे से बाहर क्या अदिति का कोई अस्तित्व नहीं ?
सुचित्रा भट्टाचार्य की सशक्त कलम ने हेमन्त का पंक्षी में औरत के इसी सच की बेचैन तलाश को उकेरा है।
अदिति क्या सिर्फ सुप्रतिम की पत्नी भर है ? मात्र बच्चों की माँ ? वह क्या सिर्फ खून-माँस की मशीन भर है, जिससे सिर्फ यह आपेक्षित है कि बेहद-सहज स्वाभाविक तरीके से ग्रहस्थी की गाड़ी बढ़ाती रहे ? इस दायरे से बाहर क्या अदिति का कोई अस्तित्व नहीं ?
सुचित्रा भट्टाचार्य की सशक्त कलम ने हेमन्त का पंक्षी में औरत के इसी सच की बेचैन तलाश को उकेरा है।
हेमन्त का पंछी
1
पिंजरे की मैना को बोलना सिखाने की कोशिश कर रही थी, अदिति। हर रोज दोपहर
के वक्त उसका यही कार्यक्रम। दोपहर का निर्जन वक्त। चिडिया की ज़िद, वह
हरगिज नहीं बोलेगी; अदिति इस बात पर अड़ी हुई थी कि वह उसे बुलाकर ही दम
लेगी। दोनों के दरमियान यह अज़ीबो गरीब निभृत खेल, लगातार जारी।
करीब महीने-भर पहले, राह चलते चिड़ीमार से उसने यह मैना ख़रीदी थी। पूरे अस्सी रुपए के कड़क नोट गिन गए थे उसने। पक्का हरा रंग, पुष्ट डैन, गर्दन पर बकलस की तरह, गोलाकार गहरे निशान। मैना बेचते वक्त, उस चिढ़ीमार ने काफी बढ़-चढ़कर आश्वासन दिए थे। सेल्समैनशिप में मानो सुप्रतिम को भी मात दे गया।
‘‘खरीद लीजिए, भाभी जी, एकदम तैयार चिड़िया है। कुल हफ़्ते भर में पोस मान लेगी। इसकी नसल पर तो नज़ डालें-असली ठेंठ सिंगापुरी मैना है। इस जात की मैना, मामूली बात नहीं करती, बड़े-बड़े लेक्चर देती है, हाँऽऽ। जो भी सुनेगी, दिन-भर चढ़ी-चढ़ी घूमती फिरेगी, मानों घर का अपना बच्चा हो। इसकी मासूम हरकतें देखकर, आपको खुद ही उस पर लाड़ आने लगेगा, पिंजरे में डालने का मन ही नहीं करेगा। लेकिन चिड़िया थी कि जुबान खोलने को तैयार नहीं थी। महीने-भर तो गुज़र गए। फूहड़-सी कर्कश सुर में टर्र-टर्र के अलावा, उसके कानों को अभी तक कुछ भी सुनायी नहीं दिया। पोस मानना तो दूर, पिज़रें का दरवाजा खोलकर, चना देते हुए भी, वह एकदम से कर्राती आवाज़ में झपट पड़ती। सुप्रतिम, बाबाइ, ताताइ के सामने अदिति की इज्जत पानी-पानी हो गई। असल में वह मैना काफी बुढ़ा गई थी, हर वक़्त, बस टर्राती रहती थी।
अदिति को तो जैसा विश्वास ही नहीं आता था। अच्छा, यह भी तो हो सकता है, मैना खासी तेज़, प्रखर और बुद्धिमती हो। मुमकिन है, वह सोच रही हो, अदिति तंग आकर, किसी दिन खुद ही पिंजरे का दरवाज़ा खोल देगी, और वह फुर्र से आसमान में उड़ जाएगी या फिर अभी तक उसका नन्हा सा दिल-दिमाग़, पीछे छूटी हुई नदी, वन जंगल, पेड़-पौधों के नज़ारों में खोया हुआ। शायद उसने कसम खा रखी हो, जब तक वे यादें धुल-पुँछ नहीं जातीं, वह जुबान नहीं खोलेगी।
ना, हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा। बचपन में पापाइ हिसाब में किस क़दर कच्चा था। मामूली सा गुणा-भाग का सवाल लगाते हुए, डर के मारे उसकी नानी मर जाती थी। दाँतों तले पेंसिल का सिरा चबाते-चबाते, उसकी हुलिया बिगाड़ देता, समूची पेंसिल का सत्यानाश कर डालता।
‘‘मेरा दिमाग़ बिल्कुल काम नहीं कर रहा है, अम्मू ! कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा है। यह सवाल मुझसे नहीं होगा अम्मू !’’
अदिति बेटे के पीछे पड़ी रही। अब वही बेटा गणित में बाकायदा पहलवान बन चुका है। माध्यमिक में उसे सत्तानवें नम्बर मिले। उच्च माध्यमिक में पूरे एक सौ नब्बे। इंटर स्कूल प्रतियोगिता में भी पैंतरे भाँजते हुए, जाने कितने ही इनाम जीत चुका है। आज कल फिजिक्स के मुश्किल-मुश्किल सवाल हल कराने के लिए, उसके थर्ड इयर के सहपाठी, लाइन बाँधकर, उसकी शरण में धरना दिए रहते हैं। किसी चिड़िया की जुबान खुलवाना, क्या गणित का हौवा दूर भगाने से, ज्यादा मुश्किल है ?
अदिति ने बरामदे की रॉड से झूलते हुए लोहे के पिंजरे को हिला दिया।
‘‘क्यों री, तूने क्या क़सम खा रखी है कि बात नहीं करेगी ? तू मुँह से फूटेगी नहीं ?’’ उसने धीमी आवाज़ में पूछा।
मैना उछलती-फुदकती पिंजरे के दूसरे छोर पर पहुँच गई।
अदिति भी तेजी से घूमकर, उसके सामने जा खड़ी हुई।
पिंजरे में अपना चेहरा टिकाकर उसने बेहद कोमल आवाज़ में कहा, ‘‘बोल, सुप्रतिम ! सु-प्र-ति-म ! बोल न ! बोल !’’
मैना को संयुक्त अक्षरों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने गर्दन घुमाकर, एक बार अदिति की तरफ देखा और फिर मुँह फेर लिया।
‘‘समझी, तुझे मेरा दूल्हा पसन्द नहीं। पसन्द हो भी कैसे ? वह भलामानस कौन सा तुझे प्यार करता है !’’
मैना के तन-बदन में कोई हरक़त नहीं हुई। वह बस, खामोश सुनती रही, मानो उसकी बात में हुँकारी भर रही हो।
अदिति के होंठों पर दबी-दबी मुस्कान खिल उठी, ‘‘ख़ैर, कोई बात नहीं। चल, पापाई, ताताई को ही बुला। बोल, पा-पा-इ ! ता-ता-इ !’’
मैना, गले से फूहड़ सी आवाज निकालती हुई, पिंजरे की निचली छड़ पर आ बैठी। पिंजरे के जाल में कैद, वह पंख फड़फड़ाते, बेचैन नज़र आई।
‘‘कितनी बदतमीज़ है री तू ! तुझे अपने भाई भी नहीं सुहाते ?’’
मैना तड़ाक से पिंजरे के ऊपरी छोर से झूल गई और कलाबाज़ी दिखाने लगी।
‘‘ठीक है, बाबा, ठीक है। किसी को भी बुलाने की जरूरत नहीं। चल, मुझे ही पुकार ले। बोल, अदिति ! अ-दि-ति !’’
मैना पिंजरे के सींखचे पर आ बैठी। उसके हिलने-डुलने में अजीब सी छटपटाहट थी। वह बार-बार आँखें पिटापिटा रही थी।
अदिति ने फुसफुसाहट के लहजे में कहा, ‘‘क्यों ?’’ अदिति बोलना भी मुश्किल लग रहा है ? चल, मुनिया को आवाज़ दे। बोल, मुनिया ! मु-नि-या !’’
अदिति के दोनों बेटे भी, बचपन में उसे इसी नाम से बुलाते थे। मु-नि-या ! उन दोनों को यह पट्टी, सुप्रतिम ने ही पढ़ाई थी। छोटू तो काफी सयानी उम्र तक, उसे इसी नाम से बुलाता था। ताताइ पांचवीं क्लास में पहुँच गया था, मगर अपनी माँ को ‘मुनिया-माँ’ कहकर आवाज़ देता था। इसके लिए, वह अपने बेटे को काफी डाँटती-डपटती भी रहती थी। लेकिन, अब....वर्षों बाद, जाने क्यों तो, वही पुकार सुनने का मन होता था।
अदिति ने संक्षिप्त सी उसाँस भरकर कहा, ‘‘एक बार, सिर्फ एक बार, मुझे मुनिया-माँ कहकर बुला न ! चल, बुला- मु-नि-या !’’
इतनी देर बाद, मैना के गले से, कर्कश सी आवाज़ फूटी-टाँय ! टाँय ! टाँय ! टाँय !
‘‘एइ, पाजी, यू गला फाड़-फाड़कर टर्रा क्यों रही है ?’’
-टाँय ! टाँय ! टाँय ! टाँय !
‘‘जा, मैं तुझसे नहीं बोलती। उन लोगों ने तुझे सही पहचाना है। तू न बुढ़िया की दुम है ! सात जंगली की एक जंगली।’’
अदिति झुँझलाकर पिंजरे से परे हट आई। बरामदे की ग्रिल थामे-थामे, उस मैना की तरफ, वह सन्देह-भरी निगाहों से घूरती रही। क्या सच ही, वह चिड़ीमार उसकी आँखों में धूल झोंककर चम्पत हो गया ? कमबख़्त ने उसे ठग लिया ? मुट्ठी-भर दाम वसूलकर। बदले में यह रद्दी सी गूँगी मैना उसके गले मढ़ गया ?
वैसे अदिति का ठगा जाना, कोई नई बात नहीं थी। इससे पहले, कितने शौक से उसने नेपाली मैना पाली थी। पिंजरे के सामने, मुँह बाएँ-बाएँ, वह इस उम्मीद से खड़ी रहती कि शायद अब वह मैना इंसान की आवाज में बोल पड़े। लेकिन, हाय री तक़दीर ! वह कमबख़्त तो पिंजरा ही गन्दा करती रही। आखिरकार एक दिन, बाप-बेटों की तुमुल हर्षध्वनि के बीच, पिंजरा खुला देखकर, वह एकदम फुर्र हो गई। लोगों का कहना था, वह गांगशालिक चिड़िया थी। अदिति उसे पहचानने में चूक गई। ख़ैर, चूक तो इंसान से ही हो सकती है।
दूसरी दफा...उन दिनों पापाइ-ताताइ काफी छोटे थे। अदिति अपने दोनों बेटों समेत, रासबिहारी के रथ-मेले से चार ललमुनिया ख़रीद लाई। हरा-पीला-काला-बादामी-नीला-कत्थई- वाह ! रंगों का मेला लग गया। दोनों बेटे पिचकारी में पानी भर लाए और कई दिनों तक, उन चारों पंछियों को नहलाते रहे। बस, रंगचोर ललमुनिया टें बोल गई।
उस बार सुप्रतिम बेतरह भड़क गया था। तीस रुपए बर्बाद करने के जुर्म में उसने अदिति को कम ताने नहीं दिए।
‘‘ख़ुद को तो कामना नहीं पड़ता न ! तुम क्या जानों रुपए की कीमत ?’’ उसने व्यंग्य-भरा तीर छो़ड़ा था।
वैसे अब उसके लिए अस्सी रुपए मामूली ही रकम है। आज अस्सी रुपए चले भी जाएँ, तो सुप्रतिम को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह पहले जैसा, भाग-दौड़ करनेवाला, कम्पनी का मामूली फेरीवाला नहीं रहा, अब वह बाक़ायदा लोटस इंडिया का रोबदार एरिया-मैनेजर है।
कुछ देर, मैना की तरफ डबर-डबर आँखों से घूरते रहने के बाद, अदिति अपने कमरे में लौट आई। मलिना की माँ, कमरे में धुले हुए कपड़ों के ढेर लगा गई थी। वह कपड़े तहाने में जुट गई। पापाइ-ताताइ की पैंट, टी-शर्ट; सुप्रतिम का पज़ामा-बनियान; अपनी साड़ी-ब्लाउज़-पेटीकोट ! सारे कपड़े उसने अलग-अलग तहा डाले। तहाए हुए कुछेक कपड़े, उसने खूँटी पर टाँग दिए, कुछ बेटों के कमरों में रख आई और कुछ अलमारी में सहेज आई। उसके बाद कुछ देर पलंग पर लोट-पोट लगाते हुए, पढ़ा हुआ अखबार नए सिरे से उलटती-पुलटती रही। कुछ देर बाद, उसने अखबार भी एक किनारे रख दिया और आँखें मूँदकर लेटी रही। कमबख़्त नींद भी नहीं आ रही। वैसे अगर सच ही वह सो गई, तो भी मुसीबत। समूची शाम गले में जलन मची रहेगी, खट्टी डकारें आती रहेंगी। ऑपरेशन के बाद से बदहजमी का रोग कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। अब क्या वह उट जाए ? कुछ देर मैना से ही चोंच लड़ाए ? या कुछ देर और यूँ ही लेटी रहे ? अच्छा, कुछ देर बुनाई लेकर बैठे, तो कैसा रहे ? धत् ! बुनाई करके क्या होगा ? लड़के तो आजकल बाजा़र से ख़रीदे हुए स्वेटर ही ज्यादा पसन्द करते हैं।
अदिति इस वक्त क्या करे ?
आजकल हेमन्त का मौसम है। शरत और शीत के दरमियान, हेमन्त, जाने कैसा तो अजीब मौसम ! मुँहचोर कुँहासे की झीनी सी पर्त, जाने कब तो, एकदम से घिर आती है। उसके बाद, मानों टलने का नाम ही नहीं लेती; छँटना ही नहीं चाहती। नम हवा सूखकर काठ हो आती है। त्वचा खिंचने लगती है। हाँ, सुदूर बर्फीले मौसम की आहट भर सुनाई देती है, लेकिन करीब नहीं आती। उन दिनों भी, हवा में मानों शरत की गन्ध घुली-मिली होती है। छेड़छाड़ करते शरत और हड्डियाँ काँपने वाले जाड़े के बीच जाने कैसा तो बेजान वक्त। मौसम काफी देर तक ठहरा हुआ।
अचानक फोन की घंटी घनघना उठी। अदिति उठ खड़ी हुई। नहीं, तेज़ चाल में नहीं, आलस कदमों से वह ड्राइंग रूम में दाखिल हुई।
उसने आहिस्ते से फोन उठा लिया। सुप्रतिम !
‘‘क्या बात है ? सो रही थी क्या ?’’
‘‘नहीं, बस, यूँ ही ज़रा....’’
‘‘तुम्हारा भी न, जवाब नहीं। ठाठ से ऐश कर रही हो। सुखी जीव हो, भई !’’
‘‘यही कहने को फोन किया था ?’’
‘‘लगता है, ख़फा हो गई, सुख-भरी नींद में खलल जो डाल दिया-
सिर्फ अदिति की ही आवाज़ में, उदास-खोखली हँसी सनसना उठी, ‘‘क्या कहना है, कहो न-’’
जवाब देने से पहले, सुप्रतिम ने क्या ज़रा वक्त लिया ? शायद नहीं।
उसने काम की बात छेड़ दी, ‘‘गुलाबी रंग की कोई फाइल तो नहीं छोड़ आया मैं ?’’
‘‘रुको, देखती हूँ,’’ अदिति तेज़-तेज़ क़दमों से बेडरूम में झाँककर वापस लौट आई, ‘‘हाँ, पड़ी है।’’
‘‘चलो, जान बची। मुझे फिक्र थी, कहीं शेयर टैक्सी में तो नहीं छो़ड़ आया। उस फाइल में ढेर सारे कागजात हैं।’’
‘‘तुम आज अपना ब्रीफकेस लेकर नहीं गए ?’’
‘‘क्यों ? तुमने देखा नहीं, इधर कई दिनों से मैं ब्रीफकेस लेकर नहीं निकलता ?’’
अदिति जवाब में कह सकती थी-उसने ख्याल नहीं किया। सुबह के वक्त ख्याल करने की फुर्सत कहाँ होती है ? पापाइ-ताताइ तो जैसे घोड़े पर सवार, लगाम कसे रहते हैं। एकमात्र उसी वक्त, अभी भी उन्हें माँ की जरूरत होती है।
‘‘पैंट पर ज़रा आयरन फेर दो, अम्मू !’’
‘‘शर्ट का बटन टूट गया है, झटपट लगा दो तो-’’
‘‘इश्श ! इतना भात क्यों परोस दिया ? निकाल लो। निकाल तो। कम करो।’’
इतने सारे तकाजों के बीच भी, अदिति, सुप्रतिम का मोजा-टाई और रूमाल निकालकर, पलंग के किनारे रख आती। हाँ, जब वह दफ्तर के लिए निकलता है, तो दरवाज़े तक जाकर, ‘हे दुर्गा मइया, रक्षा करना’ प्रार्थना दोहराने की भी उसे मोहलत नहीं मिलती। काफी सालों पहले, यह आदत, कहीं पीछे छूट गई।
अदिति के स्वाभाविक लहजे में अगला प्रसंग छोड़ दिया, ‘‘अगर इतनी ही जरूरी फाइल थी, तो दफ़्तर पहुँचने के चार घंटे बाद याद आई ?’’
सुप्रतिम का भी चट-जल्दी गूँज उठा, ‘‘दफ्तर हो जाने की जहमत तो उठानी नहीं पड़ती न तुम्हें ? आराम से सोते-बैठते, ज़िन्दगी गुजार रही हो। यहाँ फर्स्ट आवर में दफ़्तर पहुँचते-न पहुँचते, सेल्स के छोकरों के साथ मीटिंग में बैठ गया। ज़रा फुर्सत मिली, तो फाइल की याद आई-’’
‘‘ओऽऽ, अब समझी,’’ अचानक उसकी जुबान से मानों कोई अप्रासंगिक सवाल फिसल गया, ‘‘लौटोगे कब ?’’
करीब महीने-भर पहले, राह चलते चिड़ीमार से उसने यह मैना ख़रीदी थी। पूरे अस्सी रुपए के कड़क नोट गिन गए थे उसने। पक्का हरा रंग, पुष्ट डैन, गर्दन पर बकलस की तरह, गोलाकार गहरे निशान। मैना बेचते वक्त, उस चिढ़ीमार ने काफी बढ़-चढ़कर आश्वासन दिए थे। सेल्समैनशिप में मानो सुप्रतिम को भी मात दे गया।
‘‘खरीद लीजिए, भाभी जी, एकदम तैयार चिड़िया है। कुल हफ़्ते भर में पोस मान लेगी। इसकी नसल पर तो नज़ डालें-असली ठेंठ सिंगापुरी मैना है। इस जात की मैना, मामूली बात नहीं करती, बड़े-बड़े लेक्चर देती है, हाँऽऽ। जो भी सुनेगी, दिन-भर चढ़ी-चढ़ी घूमती फिरेगी, मानों घर का अपना बच्चा हो। इसकी मासूम हरकतें देखकर, आपको खुद ही उस पर लाड़ आने लगेगा, पिंजरे में डालने का मन ही नहीं करेगा। लेकिन चिड़िया थी कि जुबान खोलने को तैयार नहीं थी। महीने-भर तो गुज़र गए। फूहड़-सी कर्कश सुर में टर्र-टर्र के अलावा, उसके कानों को अभी तक कुछ भी सुनायी नहीं दिया। पोस मानना तो दूर, पिज़रें का दरवाजा खोलकर, चना देते हुए भी, वह एकदम से कर्राती आवाज़ में झपट पड़ती। सुप्रतिम, बाबाइ, ताताइ के सामने अदिति की इज्जत पानी-पानी हो गई। असल में वह मैना काफी बुढ़ा गई थी, हर वक़्त, बस टर्राती रहती थी।
अदिति को तो जैसा विश्वास ही नहीं आता था। अच्छा, यह भी तो हो सकता है, मैना खासी तेज़, प्रखर और बुद्धिमती हो। मुमकिन है, वह सोच रही हो, अदिति तंग आकर, किसी दिन खुद ही पिंजरे का दरवाज़ा खोल देगी, और वह फुर्र से आसमान में उड़ जाएगी या फिर अभी तक उसका नन्हा सा दिल-दिमाग़, पीछे छूटी हुई नदी, वन जंगल, पेड़-पौधों के नज़ारों में खोया हुआ। शायद उसने कसम खा रखी हो, जब तक वे यादें धुल-पुँछ नहीं जातीं, वह जुबान नहीं खोलेगी।
ना, हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा। बचपन में पापाइ हिसाब में किस क़दर कच्चा था। मामूली सा गुणा-भाग का सवाल लगाते हुए, डर के मारे उसकी नानी मर जाती थी। दाँतों तले पेंसिल का सिरा चबाते-चबाते, उसकी हुलिया बिगाड़ देता, समूची पेंसिल का सत्यानाश कर डालता।
‘‘मेरा दिमाग़ बिल्कुल काम नहीं कर रहा है, अम्मू ! कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा है। यह सवाल मुझसे नहीं होगा अम्मू !’’
अदिति बेटे के पीछे पड़ी रही। अब वही बेटा गणित में बाकायदा पहलवान बन चुका है। माध्यमिक में उसे सत्तानवें नम्बर मिले। उच्च माध्यमिक में पूरे एक सौ नब्बे। इंटर स्कूल प्रतियोगिता में भी पैंतरे भाँजते हुए, जाने कितने ही इनाम जीत चुका है। आज कल फिजिक्स के मुश्किल-मुश्किल सवाल हल कराने के लिए, उसके थर्ड इयर के सहपाठी, लाइन बाँधकर, उसकी शरण में धरना दिए रहते हैं। किसी चिड़िया की जुबान खुलवाना, क्या गणित का हौवा दूर भगाने से, ज्यादा मुश्किल है ?
अदिति ने बरामदे की रॉड से झूलते हुए लोहे के पिंजरे को हिला दिया।
‘‘क्यों री, तूने क्या क़सम खा रखी है कि बात नहीं करेगी ? तू मुँह से फूटेगी नहीं ?’’ उसने धीमी आवाज़ में पूछा।
मैना उछलती-फुदकती पिंजरे के दूसरे छोर पर पहुँच गई।
अदिति भी तेजी से घूमकर, उसके सामने जा खड़ी हुई।
पिंजरे में अपना चेहरा टिकाकर उसने बेहद कोमल आवाज़ में कहा, ‘‘बोल, सुप्रतिम ! सु-प्र-ति-म ! बोल न ! बोल !’’
मैना को संयुक्त अक्षरों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने गर्दन घुमाकर, एक बार अदिति की तरफ देखा और फिर मुँह फेर लिया।
‘‘समझी, तुझे मेरा दूल्हा पसन्द नहीं। पसन्द हो भी कैसे ? वह भलामानस कौन सा तुझे प्यार करता है !’’
मैना के तन-बदन में कोई हरक़त नहीं हुई। वह बस, खामोश सुनती रही, मानो उसकी बात में हुँकारी भर रही हो।
अदिति के होंठों पर दबी-दबी मुस्कान खिल उठी, ‘‘ख़ैर, कोई बात नहीं। चल, पापाई, ताताई को ही बुला। बोल, पा-पा-इ ! ता-ता-इ !’’
मैना, गले से फूहड़ सी आवाज निकालती हुई, पिंजरे की निचली छड़ पर आ बैठी। पिंजरे के जाल में कैद, वह पंख फड़फड़ाते, बेचैन नज़र आई।
‘‘कितनी बदतमीज़ है री तू ! तुझे अपने भाई भी नहीं सुहाते ?’’
मैना तड़ाक से पिंजरे के ऊपरी छोर से झूल गई और कलाबाज़ी दिखाने लगी।
‘‘ठीक है, बाबा, ठीक है। किसी को भी बुलाने की जरूरत नहीं। चल, मुझे ही पुकार ले। बोल, अदिति ! अ-दि-ति !’’
मैना पिंजरे के सींखचे पर आ बैठी। उसके हिलने-डुलने में अजीब सी छटपटाहट थी। वह बार-बार आँखें पिटापिटा रही थी।
अदिति ने फुसफुसाहट के लहजे में कहा, ‘‘क्यों ?’’ अदिति बोलना भी मुश्किल लग रहा है ? चल, मुनिया को आवाज़ दे। बोल, मुनिया ! मु-नि-या !’’
अदिति के दोनों बेटे भी, बचपन में उसे इसी नाम से बुलाते थे। मु-नि-या ! उन दोनों को यह पट्टी, सुप्रतिम ने ही पढ़ाई थी। छोटू तो काफी सयानी उम्र तक, उसे इसी नाम से बुलाता था। ताताइ पांचवीं क्लास में पहुँच गया था, मगर अपनी माँ को ‘मुनिया-माँ’ कहकर आवाज़ देता था। इसके लिए, वह अपने बेटे को काफी डाँटती-डपटती भी रहती थी। लेकिन, अब....वर्षों बाद, जाने क्यों तो, वही पुकार सुनने का मन होता था।
अदिति ने संक्षिप्त सी उसाँस भरकर कहा, ‘‘एक बार, सिर्फ एक बार, मुझे मुनिया-माँ कहकर बुला न ! चल, बुला- मु-नि-या !’’
इतनी देर बाद, मैना के गले से, कर्कश सी आवाज़ फूटी-टाँय ! टाँय ! टाँय ! टाँय !
‘‘एइ, पाजी, यू गला फाड़-फाड़कर टर्रा क्यों रही है ?’’
-टाँय ! टाँय ! टाँय ! टाँय !
‘‘जा, मैं तुझसे नहीं बोलती। उन लोगों ने तुझे सही पहचाना है। तू न बुढ़िया की दुम है ! सात जंगली की एक जंगली।’’
अदिति झुँझलाकर पिंजरे से परे हट आई। बरामदे की ग्रिल थामे-थामे, उस मैना की तरफ, वह सन्देह-भरी निगाहों से घूरती रही। क्या सच ही, वह चिड़ीमार उसकी आँखों में धूल झोंककर चम्पत हो गया ? कमबख़्त ने उसे ठग लिया ? मुट्ठी-भर दाम वसूलकर। बदले में यह रद्दी सी गूँगी मैना उसके गले मढ़ गया ?
वैसे अदिति का ठगा जाना, कोई नई बात नहीं थी। इससे पहले, कितने शौक से उसने नेपाली मैना पाली थी। पिंजरे के सामने, मुँह बाएँ-बाएँ, वह इस उम्मीद से खड़ी रहती कि शायद अब वह मैना इंसान की आवाज में बोल पड़े। लेकिन, हाय री तक़दीर ! वह कमबख़्त तो पिंजरा ही गन्दा करती रही। आखिरकार एक दिन, बाप-बेटों की तुमुल हर्षध्वनि के बीच, पिंजरा खुला देखकर, वह एकदम फुर्र हो गई। लोगों का कहना था, वह गांगशालिक चिड़िया थी। अदिति उसे पहचानने में चूक गई। ख़ैर, चूक तो इंसान से ही हो सकती है।
दूसरी दफा...उन दिनों पापाइ-ताताइ काफी छोटे थे। अदिति अपने दोनों बेटों समेत, रासबिहारी के रथ-मेले से चार ललमुनिया ख़रीद लाई। हरा-पीला-काला-बादामी-नीला-कत्थई- वाह ! रंगों का मेला लग गया। दोनों बेटे पिचकारी में पानी भर लाए और कई दिनों तक, उन चारों पंछियों को नहलाते रहे। बस, रंगचोर ललमुनिया टें बोल गई।
उस बार सुप्रतिम बेतरह भड़क गया था। तीस रुपए बर्बाद करने के जुर्म में उसने अदिति को कम ताने नहीं दिए।
‘‘ख़ुद को तो कामना नहीं पड़ता न ! तुम क्या जानों रुपए की कीमत ?’’ उसने व्यंग्य-भरा तीर छो़ड़ा था।
वैसे अब उसके लिए अस्सी रुपए मामूली ही रकम है। आज अस्सी रुपए चले भी जाएँ, तो सुप्रतिम को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह पहले जैसा, भाग-दौड़ करनेवाला, कम्पनी का मामूली फेरीवाला नहीं रहा, अब वह बाक़ायदा लोटस इंडिया का रोबदार एरिया-मैनेजर है।
कुछ देर, मैना की तरफ डबर-डबर आँखों से घूरते रहने के बाद, अदिति अपने कमरे में लौट आई। मलिना की माँ, कमरे में धुले हुए कपड़ों के ढेर लगा गई थी। वह कपड़े तहाने में जुट गई। पापाइ-ताताइ की पैंट, टी-शर्ट; सुप्रतिम का पज़ामा-बनियान; अपनी साड़ी-ब्लाउज़-पेटीकोट ! सारे कपड़े उसने अलग-अलग तहा डाले। तहाए हुए कुछेक कपड़े, उसने खूँटी पर टाँग दिए, कुछ बेटों के कमरों में रख आई और कुछ अलमारी में सहेज आई। उसके बाद कुछ देर पलंग पर लोट-पोट लगाते हुए, पढ़ा हुआ अखबार नए सिरे से उलटती-पुलटती रही। कुछ देर बाद, उसने अखबार भी एक किनारे रख दिया और आँखें मूँदकर लेटी रही। कमबख़्त नींद भी नहीं आ रही। वैसे अगर सच ही वह सो गई, तो भी मुसीबत। समूची शाम गले में जलन मची रहेगी, खट्टी डकारें आती रहेंगी। ऑपरेशन के बाद से बदहजमी का रोग कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। अब क्या वह उट जाए ? कुछ देर मैना से ही चोंच लड़ाए ? या कुछ देर और यूँ ही लेटी रहे ? अच्छा, कुछ देर बुनाई लेकर बैठे, तो कैसा रहे ? धत् ! बुनाई करके क्या होगा ? लड़के तो आजकल बाजा़र से ख़रीदे हुए स्वेटर ही ज्यादा पसन्द करते हैं।
अदिति इस वक्त क्या करे ?
आजकल हेमन्त का मौसम है। शरत और शीत के दरमियान, हेमन्त, जाने कैसा तो अजीब मौसम ! मुँहचोर कुँहासे की झीनी सी पर्त, जाने कब तो, एकदम से घिर आती है। उसके बाद, मानों टलने का नाम ही नहीं लेती; छँटना ही नहीं चाहती। नम हवा सूखकर काठ हो आती है। त्वचा खिंचने लगती है। हाँ, सुदूर बर्फीले मौसम की आहट भर सुनाई देती है, लेकिन करीब नहीं आती। उन दिनों भी, हवा में मानों शरत की गन्ध घुली-मिली होती है। छेड़छाड़ करते शरत और हड्डियाँ काँपने वाले जाड़े के बीच जाने कैसा तो बेजान वक्त। मौसम काफी देर तक ठहरा हुआ।
अचानक फोन की घंटी घनघना उठी। अदिति उठ खड़ी हुई। नहीं, तेज़ चाल में नहीं, आलस कदमों से वह ड्राइंग रूम में दाखिल हुई।
उसने आहिस्ते से फोन उठा लिया। सुप्रतिम !
‘‘क्या बात है ? सो रही थी क्या ?’’
‘‘नहीं, बस, यूँ ही ज़रा....’’
‘‘तुम्हारा भी न, जवाब नहीं। ठाठ से ऐश कर रही हो। सुखी जीव हो, भई !’’
‘‘यही कहने को फोन किया था ?’’
‘‘लगता है, ख़फा हो गई, सुख-भरी नींद में खलल जो डाल दिया-
सिर्फ अदिति की ही आवाज़ में, उदास-खोखली हँसी सनसना उठी, ‘‘क्या कहना है, कहो न-’’
जवाब देने से पहले, सुप्रतिम ने क्या ज़रा वक्त लिया ? शायद नहीं।
उसने काम की बात छेड़ दी, ‘‘गुलाबी रंग की कोई फाइल तो नहीं छोड़ आया मैं ?’’
‘‘रुको, देखती हूँ,’’ अदिति तेज़-तेज़ क़दमों से बेडरूम में झाँककर वापस लौट आई, ‘‘हाँ, पड़ी है।’’
‘‘चलो, जान बची। मुझे फिक्र थी, कहीं शेयर टैक्सी में तो नहीं छो़ड़ आया। उस फाइल में ढेर सारे कागजात हैं।’’
‘‘तुम आज अपना ब्रीफकेस लेकर नहीं गए ?’’
‘‘क्यों ? तुमने देखा नहीं, इधर कई दिनों से मैं ब्रीफकेस लेकर नहीं निकलता ?’’
अदिति जवाब में कह सकती थी-उसने ख्याल नहीं किया। सुबह के वक्त ख्याल करने की फुर्सत कहाँ होती है ? पापाइ-ताताइ तो जैसे घोड़े पर सवार, लगाम कसे रहते हैं। एकमात्र उसी वक्त, अभी भी उन्हें माँ की जरूरत होती है।
‘‘पैंट पर ज़रा आयरन फेर दो, अम्मू !’’
‘‘शर्ट का बटन टूट गया है, झटपट लगा दो तो-’’
‘‘इश्श ! इतना भात क्यों परोस दिया ? निकाल लो। निकाल तो। कम करो।’’
इतने सारे तकाजों के बीच भी, अदिति, सुप्रतिम का मोजा-टाई और रूमाल निकालकर, पलंग के किनारे रख आती। हाँ, जब वह दफ्तर के लिए निकलता है, तो दरवाज़े तक जाकर, ‘हे दुर्गा मइया, रक्षा करना’ प्रार्थना दोहराने की भी उसे मोहलत नहीं मिलती। काफी सालों पहले, यह आदत, कहीं पीछे छूट गई।
अदिति के स्वाभाविक लहजे में अगला प्रसंग छोड़ दिया, ‘‘अगर इतनी ही जरूरी फाइल थी, तो दफ़्तर पहुँचने के चार घंटे बाद याद आई ?’’
सुप्रतिम का भी चट-जल्दी गूँज उठा, ‘‘दफ्तर हो जाने की जहमत तो उठानी नहीं पड़ती न तुम्हें ? आराम से सोते-बैठते, ज़िन्दगी गुजार रही हो। यहाँ फर्स्ट आवर में दफ़्तर पहुँचते-न पहुँचते, सेल्स के छोकरों के साथ मीटिंग में बैठ गया। ज़रा फुर्सत मिली, तो फाइल की याद आई-’’
‘‘ओऽऽ, अब समझी,’’ अचानक उसकी जुबान से मानों कोई अप्रासंगिक सवाल फिसल गया, ‘‘लौटोगे कब ?’’
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