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परदेस

सुचित्रा भट्टाचार्य

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2743
आईएसबीएन :81-7119-589-X

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क्या अपना गाँव ही, देश ही शायद उसकी पनाह है, बाकी हर जगह परदेश है, जहाँ वे महज प्रवासी हैं।

Pardes

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इन्सान अपना गाँव देहात छोड़ कर, रोटी-रोज़ी या कारोबार के चक्कर में किसी और शहर में आ बसता है। जहाँ की संस्कृति विशेष रहन-सहन बोल-चाल में घुल-मिल जाता है और उसी शहर में अपनी जड़े जमा लेता है। यही होता है, अक्सर होता है। पंजाब के गाँव देहात की जमीन में उगा राजिन्दर परिवार जब ’84 के सिख-विरोधी दंगों के चलते दिल्ली से उड़कर कलकत्ता जैसे महानगर में पनाह देता है, तो यह शहर भी उसका अपना हो जाता है। परिवार का नौजवान बेटा, कुलदीप, अपने बंगाली मित्र राना की बहन रिमझिम से प्यार भी करने लगता है।

मगर उनके भरे-पूरे ख़ुशहाल परिवार पर मौत की छाया तब उतर आती है, कि कलकत्ता घूमने आए राजिन्दर के बेटे और जीजा को आतंकवादी समझकर पंजाब पुलिस गोलियों से भून डालती है। इस अन्याय, अत्याचार और बेईमानी की आग में समूचा का समूचा परिवार जलकर भस्म हो जाता है। इस प्रतिकारहीन अँधेरे में नौजवान वर्ग का प्रतिनिधि कुलदीप, एक बूँद उजास की तलाश में दिशाहीन हो उठता है कि अपना गाँव ही देश ही शायद उसकी पनाह है, बाकी हर जगह परदेश है, जहाँ वे महज प्रवासी हैं। कुलदीप वापस अपने गाँव जाने का फैसला करता है, मगर कुछेक जलते हुए सवाल हो लेते हैं-वहाँ जाकर क्या वह भूमिपुत्र हो सकेगा ? अपनी ही नज़रों में क्या वह अजनबी नहीं होगा ? इन तमाम सवालों का जवाब है, कथाकार सुचित्रा भट्टाचार्य का विस्मयकारी उपन्सास परदेश।

परदेश

1

...योर अटेंशन प्लीज...टू हाजार तीन शो दुइ डाउन, न्यू दिल्ली, हावड़ा-राजधानी एक्सप्रेस, ऐक घोंटा चोल्लिस मिनिट लेट आशछे...कृपया ध्यान दें, दो हजार तीन सौ नंबर डाउन; नई दिल्ली से आनेवाली, राजधानी एक्सप्रेस, एक घंटा चालीस मिनट लेट...योर अटेंशन प्लीज, टू थ्री जीरो टू डाउन...
राजिन्दर ने यह त्रिभाषी घोषणा कान लगाकर सुनी। सुनी नहीं, सुनने की कोशिश की। जैसा खड़खड़िया एंप्लीफायर, उतनी ही लटपटी आवाज ! यूँ भी बँगला और अंग्रेजी का उच्चारण अगर साफ न हो तो उसे समझने में जरा मुश्किल होती है, लेकिन इस उद्घोषिका की तो हिंदी भी काफी गड़बड़ थी। वैसे इस घोषणा का मतलब, वह कमोबेश समझ गया और एकदम से बेचैन हो आया। यह बार-बार राजधानी की ही सूचना क्यों दी जा रही है, अमृतसर मेल कहाँ गई ? घर से निकलते वक्त भी, हावड़ा इन्क्वायरी की सूचना के मुताबिक गाड़ी तीन घंटे लेट थी। अमृतसर मेल के आने का वक्त था—सात-पचपन। लेकिन इस वक्त सवा ग्यारह बज चुके, ट्रेन को तो अब तक प्लेटफॉर्म पर लग जाना चाहिए था। कहीं और लेट तो नहीं हो गई ? लेट चलने के मामले में रेल कंपनी क्या जरा समयनिष्ठ नहीं हो सकती ? न्ना, इस वक्त राजिन्दर का दुकान जाना खारिज !

ऑफिस टाइम की भाग-दौड़ अभी तक खत्म नहीं हुई थी। लहर-दर-लहर लोग, भिन्-भिन् करते लोग, पिल्-पिल् करते लोग। लोकल ट्रेनों की धुआँधार आवा-जाही ! बिल फोड़कर, किलबिलाकर निकगली हुई चीटियों की तरह, बेतहाशा दौड़ता-भागता जनस्त्रोत ! टूटती-बिखरती भीड़। चारों तरफ क्लोजसर्किट टी.वी. की कतारें। झूलते हुए डब्बों में कारोबार समेत, विभिन्न कलाबाजियों की नुमाइश ! साबुन, मसाले, गंजे सिर के लिए तेल, साड़ी, गंजी-जाँघियों से बिखरता हुआ सुर्ख लाल, आँखें चौंधियानेवाला पीला-नीला-जोगिया-बैंजनी रंग। समूचे स्क्रीन पर फैला हुआ ! बड़े घड़ियाल के सामने जटाधारी साधुओं का डेरा पड़ा हुआ। जत्थों में बैठे साधु, गोद में चिमटा रखे, निस्पृह भाव से बीड़ी फूँकते हुए। पूरे स्टेशन पर दंगल के दंगल गँवई देहातियों की निर्विकार गृहस्थी बिखरी-छितराई हुई ! रंग-बिरंगे बक्से-पिटारीस केले के छिलके, नग्नप्राय शिशु, थैले-बोरियाँ, पान की पीक, अधखाए खाने वगैरह बिखरे हुए ! उधर वर्ग-क्षेत्राकार में सजे हुए, अभी तक अटूट, फाइबर ग्लास की कुर्सियों पर जमे, गपशप करते हुए छोटे-छोटे परिवार ! बंगाली, मद्रासी, गुजराती, मारवाड़ी, मराठी मुसाफिरों के झुंड ! वहाँ एक टोपीधारी मौलवी साहब भी आसीन थे, साथ में बुर्कापोश उनकी बीवियाँ। शायद वे उत्तर प्रदेश के थे। बहती-उतराती भीड़ ! प्रतीक्षारत भीड़ ! निरासक्त भीड़ ! उत्सुक भीड़ ! मस्त-मगन भीड़ ! कुली, फेरीवाले, हॉकर, चेकर, भिखारी, व्यसायी, अमले, दलाल, पुलिस, संदेहभाजन, औरत-मर्द-कुल मिलाकर, अंग्रेजों के जमाने में निर्मित हावड़ा स्टेशन, हस्बेमामूल एक मिनी-भारतवर्ष ! छोटा हिंदुस्तान !

स्टेशन से मिला-जुला शोर गूँजता हुआ ! चप्पे-चप्पे में कोलाहल ! अपने देश भारत की गहमा-गहमी। उस माहौल में कई-कई तरह की दबी-ढकी गंध भी मौजूद ! पंचमेल, झाँस-भरी गंध ! भारतवर्ष की ही समवेत आवाज़ें ! मिली-जुली गंध !
ऐसे लंबे-चौड़े स्टेशन पर ज्यादा देर तक खड़े-खड़े राजिन्दर को बेहद परेशानी होने लगती है। इन आवाजों या गंध की तरह उसकी परेशानी भी आकारहीन होती है। बस, बेचैनी-सी परेशानी। कभी नाड़ी की रफ्तार तेज हो जाती है, कभी उनसठ साला लंब-तड़ंग देह का वजन सँभाले घुटनों में लड़खड़ाहट का अहसास, कभी सीने में चिनचिनाहट। पता नहीं, ऐसा क्यों होता है। क्या उसे पुरानी बातें याद आने लगती हैं ? वैसे इस उपमहादेश के किसी भी बड़े स्टेशन से जुड़ी, कोई भी सुखद स्मृति, उसके हिस्से कभी नहीं आई। उसके पास तो जो यादें जमा हैं, वह बेहद खौफनाक हैं। दुःस्वप्न ! लाहौर...अमृतसर, दिल्ली...मौत, खून-खराबा, आर्तनाद, हाहाकार। इन पचास सालों में लाहौर, अमृतसर काफी फीका पड़ चुका है, लेकिन एक सदी पहले का दिल्ली स्टेशन, मानो आज भी ताजा जख्म की तरह, उसकी यादों में जिंदा है।

‘‘खबरदार ! खबरदार !’’ दो तगड़े जवान शख्स, माल से लदी ट्रॉली खींचते हुए दौड़े चले आ रहे थे। सीमेंट के फर्श पर, पहियों की घरघराहट के तीखे शोर ने राजिन्दर की हड्डियों में अजीब-सी थरथराहट भर दी। ये आवाजें इस कदर कर्कश होती हैं....
करीब ही व्हीलर-स्टॉल ! कुलदीप कोई पत्रिका उलट-पुलट रहा था। आकाशी रंग का शर्ट; काली ट्राउजर; सिर पर नेवी ब्लू रंग की पगड़ी। चौड़े, विशाल कंधे, ताम्रवर्णी रंग। साढ़े इक्कीस वर्षीय कुलदीप, उस विराट जन-अरण्य के बीच भी पलक झपकते नजर आता हुआ !
नपे-तुले कदमों से बुक-स्टॉल की तरफ बढ़ते हुए राजिन्दर ने कुलदीप को आवाज दी, ‘‘पुत्तर—’’
कुलदीप फौरन पीछे मुड़ा, ‘‘जी, पापाजी !’’
‘‘ट्रेन आने का तो अभी तक कोई आसार नहीं, मामला क्या है पुत्तर ?’’
‘‘आ जाएगी, पापाजी—’’

‘‘एक बार जरा इन्क्वायरी तक जाकर फिर पता कर आएँ ?’’
‘‘अभी जरा देर पहले ही तो जाकर पता किया था पापाजी !’’ अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डालते हुए कुलदीप ने पत्रिका यथास्थान रख दी, ‘‘दस मिनट के अंदर, अंदर तुम्हारी ट्रेन प्लेटफॉर्म के अंदर होगी।’’
‘‘तो फिर एनाउंस क्यों नहीं कर रहे कि ट्रेन किस प्लेटफॉर्म पर लगेगी ?’’
‘‘सात नंबर !’’
‘‘तूने ठीक-ठीक पता कर लिया है ?’’
‘‘हाँ-जी !’’ बातचीत में पहली बार कुलदीप ने अपनी मातृभाषा का छौंका लगाया।
अगले ही पल, उसने मंद-मंद मुसकुराते हुए पूछा, ‘‘तब से तुम इतने टेंशन में क्यों हो, पापाजी ?’’
‘‘टेंशन नहीं होगी ? इतनी दूर से वे बिचारे बूढ़े-बूढ़ी अकेले आ रहे हैं। दो रातें ट्रेन में गुजारीं। उस पर से भैनजी ने लिखा था, जीजाजी की तबीयत भी ठीक नहीं है...अक्सर बुखार रहने लगा है...’’
‘‘रिलैक्स, पापाजी, फिकर छोड़ें !’’ कुलदीप की आवाज में हिंदी-अंग्रेजी की कटलेट बन गई, ‘‘असल में, तुम्हारे ब्रदर-इन-लॉ इज ए टिपिकल, पंजाब का पुत्तर ! असली घी खाते हुए ! बुखार-टुखार इज स्केयर्ड ऑफ हिम ! बुखार-टुखार उनसे डरते हैं। नथिंग विल हैपेन !’’

बेटे के अंदाज में जाने कैसा उपहास छिपा था। राजिन्दर को वह भला नहीं लगा। वैसे कुलदीप को अपने बुआ-फूफा से खास कोई लगाव नहीं था। खैर, अपने बुआ-फूफाजी को उसने आखिर देखा ही कितनी बार है ! इसलिए लगाव होने जैसी कोई बात भी नहीं थी। होश सँभालने के बाद उनसे बहुत कम बार मिला। जब तक वे लोग दिल्ली में थे, कमोबेश आना-जाना होता भी रहता था। उस वक्त कुलदीप कितना-सा था ? कलकत्ता चले आने के बाद, रिश्ते का वह महीन-सा धागा भी अब टूटने के कगार पर है। खैर, भैनजी तो फिर भी रश्मि के ब्याह में एक बार यहाँ का चक्कर लगा चुकी थीं। उनके साथ उनका बेटा-बहू पोता-पोती भी आए थे। वे लोग यहाँ पन्द्रह दिन रहे भी थे। लेकिन, जीजाजी कलकत्ता कभी नहीं आए। अगर सभी लोग रोहिला छोड़कर चले आते, तो उनकी खेती-बारी की देखभाल कौन करता ? अपनी खेती-बारी से जीजाजी को बेहद मोह है। राजिन्दर को आज भी याद है, जीजाजी जब दिल्ली आते थे, दो दिनों बाद ही भागने का बहाना ढूँढ़ने लगते थे। अपना गाँव, अपना मकान, अपने भाई-बिरादर—इससे बाहर, गुरवचन सिंह की कहीं कोई दुनिया नहीं थी। रोहिला से अमृतसर, कुल तीन घंटे का सफर। वे तो वहाँ भी साल में दो-तीन बार से ज्यादा नहीं गए। राजिन्दर को तो कभी-कभी यह शक होने लगता है कि वे सच्चे जाट हैं भी या नहीं। जाट भला कभी ऐसे घरघुसरे होते हैं !

अपने ख्यालों में खोए हुए राजिन्दर ने अनमनी-सी उसाँस भरी। संक्षिप्त-सी, मगर गहरी उसाँस ! वैसे रिश्ता कायम करना-ना करना क्या सिर्फ भैनजी-जीजाजी पर ही निर्भर करता है ? कलकत्ते में रहते हुए धीरे-धीरे तेरह साल गुजर गए। वह भी, कुलदीप-रश्मि को लेकर कितनी बार रोहिला गया ? बच्चे तो खैर जाना ही नहीं चाहते थे। आजकल के लड़के-लड़की शहर से निकलकर जंगल-पहाड़ की सैर के लिए जाते हैं, लेकिन दो हजार किलोमीटर का सफर तय करके गेहूँ के खेतों की सैर ? कभी नहीं ! राजिन्दर को ही क्या जोर-जबर्दस्ती नहीं करनी चाहिए थी ? जाट का बच्चा होते हुए अपने सगों से ही जान-पहचान न हो तो भला कोई रस्म-रिवाज फल-फूल सकता है ? पिछली जून में रोहिला से ऐसा दर्दनाक समाचार आया कि राजिन्दर सारा काम-काज छोड़कर, रोहिला दौड़ पड़ा। उन दिनों कुलदीप पार्ट-वन की परीक्षा देकर बिलकुल खाली ही बैठा था। राजिन्दर अगर उस पर जोर डालता, तो क्या उसे अपने साथ ले नहीं जा सकता था ? सचमुच, उसने ठीक नहीं किया।

राजिन्दर ने गला खखारकर पूछा, ‘‘घर से निकलते वक्त मैंने जो-जो कहा था, सब याद है न पुत्तर ?’’
कुलदीप की भौंहें सिकुड़ आईं, ‘‘कौन-सी बात ? जरा दुबारा बता दो।’’
‘‘देख बेटा, बुआजी-फुफ्फड़जी जैसे ही ट्रेन से उतरें, सबसे पहले उनके पैर छूकर ‘पैरी-पैरी’ कहना—
‘‘जी—’’
‘‘देख, सिर्फ जुबान से ‘पैरी-पैरी जी !’’ कहकर, महज फर्ज अदायगी मत करना, सचमुच पैरों पर मत्था टेकना।’’
‘‘आहो जी !’’
इसके अलावा और कौन-कौन सी हिदायतें दी जाएँ ? क्या वह उसे इस बारे में भी आगाह कर दे कि वह उन दोनों से हिंदी में नहीं, पंजाबी में बात करे ? लेकिन कुलदीप फेल हो जाएगा। राजिन्दर के बेटे-बेटी, दोनों घर पर भी हमेशा हिंदी ही बोलते हैं, कभी-कभार बँगला भी ! उनकी दादी चाहे जितना भी गुस्सा करें, बच्चे उनसे राष्ट्रभाषा हिंदी में ही बात करते हैं। उसका दामाद तो उन दोनों में से भी एक काँटी बढ़कर है। जब भी अपनी ससुराल आता है, साले से अँग्रेजी ही झाड़ता रहता है।

राजिन्दर ने अपनी आवाज को गहराते हुए कहा, ‘‘सुन, एक बात और ! कभी भूले भी उनसे हाय-हलो मत करना। पटर-पटर अंग्रेजी भी मत झाड़ने लगना। जीजाजी को यह विलायती गिट-पिट बोली बिलकुल पसंद नहीं।’’
कुलदीप हँस पड़ा, ‘‘फुफ्फड़जी को इतना कंजरवेटिव...इतना दकियानूसी क्यों समझते हैं आप ? मनजीत प्राजी तो हर साल कनाड़ा से रोहिला आते थे। क्या वे हर वक्त ‘तैनू-मैनू’ ही किया करते थे ? बुआजी ने बताया नहीं था कि उनका बड़ा बेटा बिलकुल पक्का साहब बन गया है ?’’

ऐन उसी वक्त मनजीत का जिक्र राजिन्दर के कानों को कहीं खट् से लगा। पिछली जून में जिस दुर्घटना का समाचार मिला था वह इसी मनजीत के बारे में ही था। टोरंटों में ही किसी सड़क हादसे में मनजीत की मौत हो गई थी। भैनजी-जीजा दुःख से टूटकर धज्जी-धज्जी हो गए थे। शोक के उन दिनों में राजिन्दर को अपने करीब पाकर रोहिणी बच्चे की तरह छाती पीट-पीटकर रोती थी। चौंतीस साल का उनका जीता-जागता बेटा हमेशा के लिए खो गया; इस शोक से वे दोनों आज तक क्या सँभल पाए हैं ? भैनजी के खतों से साफ कुछ जाहिर नहीं होता, लेकिन ऐसा लगता है कि उस जख्म पर ठंडा फाहा रखने के लिए इतने अर्से बाद जीजाजी अपनी जगह से हिले-डुले हैं।
राजिन्दर ने बेटे की पीठ पर हाथ रखा और धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म की ओर चल पड़ा।
‘‘खबरदार ! बुआजी-फुफ्फड़जी के सामने अपने मनजीत प्राजी का जिक्र न करना, बेटे ! उन्हें तकलीफ होगी।’’
ट्रेन किसी साँप की तरह, धीमी चाल में स्टेशन के अंदर दाखिल हुई। कुलियों की फौज, चलती ट्रेन में फटाफट उछलकर चढ़ गई। उनके पीछे-पीछे रद्दी कागज बटोरने वाले बच्चे भी ट्रेन के डिब्बों में घुस गए। निमिष-भर में सात नंबर का खाली प्लेटफॉर्म सरगर्म हो उठा।

राजिन्दर, कुलदीप हनहनाते हुए आगे बढ़े; बड़े गौर से स्लीपर के हर डिब्बे में झाँकते हुए रोहिणी गुरवचन से पहले ही डिब्बे से नीचे उतर आई थी। झोला-झंपड़, माल-असबाब समेत वह प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। दो-दो अदद वी. आई. पी. सूटकेस, बरगद की कटी हुई जड़ जैसा एक अदद गुड़ा-मुड़ा होल्डॉल ! मिनी-ड्रम साइज का पीने का जग, पहिएदार तीन फोल्डरवाला प्लास्टिक की किट्बैग ! बाकी सामान अभी उतारा जा रहा था। टोकरी, थैला, बाल्टीनुमा झोला, लाठी, दो-दो अदद गठरियाँ..
सबसे अंत में गुरवचन !

गुरवचन सिंह ! खासा विशाल कद-बुत ! काफी हद तक पहाड़ जैसे आकार का ! जैसा लंबा, उतना ही चौड़ा। बदन पर मटमैले रंग का ढीलमढाल सलवार-कुर्ता। कुर्ते की लंबाई घुटने छूती हुई ! पाँव में काला नागरा, जिसे सहज ही नाव की संज्ञा दी जा सकती थी। राजिन्दर या कुलदीप की तरह उनकी दाढ़ी बँधी हुई नहीं थी। ‘लैकर’ वगैरह लगाकर बनावटी ढंग से उसे सजाया-सँवारा भी नहीं गया था। सीने तक झूलती हुई दाढ़ी के खुले-खुले बाल हवा में फर्र-फर्र उड़ते हुए। गुरवचन के कुर्ते के ऊपर कमर तक चमड़े का चौड़ा बेल्ट बँधा हुआ। दाहिनी तरफ फूला-फूला-सा बटुवा; बाईं तरफ कृपाण झूलती हुई ! सिर पर बाँधी हुई पगड़ी भी तरतीबहीन ! दस गजी पगड़ी का एक हिस्सा पीठ पर झूलता हुआ। पहली ही नजर में वह शख्स खौफनाक लगना चाहिए था, मगर हैरत है ऐसा नहीं था। उस शख्स की बड़ी-बड़ी आँखों में अद्भुत सरलता झलकती हुई ! उसे देखकर साधु-संत का ख्याल आता है। उसके अंग-प्रत्यंग खास सबल नहीं थे, सामने की तरफ किंचित् झुके हुए, मानो धरती के आकर्षण में जरा सामने की तरफ ढलके हुए ! उनके मुकाबले रोहिणी नितांत छोटे कद की ! लेकिन उसका चेहरा-मोहरा बेहद बुर्राक, जगमगाता हुआ ! राजिन्दर से सात साल बड़ी ! यानी पूरे छियासठ साल की ! अभी भी पक्का गेहुँवन रंग; उम्र की झुर्रियाँ, उसके चेहरे पर खास असर नहीं डाल पाईं थीं, उसका भी पहनावा—काई रंग की ढीली-ढाली सलवार—कमीज ! काले-सफेद खिचड़ी बालों का जूड़ा बँधा हुआ !

चंद मिनट छलछलाई हुई आँखों के साथ, एक-दूसरे से गले मिलने का पर्व जारी रहा। कुलदीप को अपने सीने से लगाकर रोहिणी ने उसके माथे-गर्दन पर दुलार किया। गुरवचन ने राजिन्दर को अपनी बाँहों में कसकर उसकी पीठ पर प्यार से धौल जमाई।
वाकई खासा मोहक दृश्य था। कुली के सिर पर माल लादकर वे चारों गाड़ी की तरफ चल पड़े। कुलदीप ने दौड़कर मारुति गाड़ी की डिक्की खोल दी। वहाँ सामानों का ढेर लग गया।
स्टेशन आते वक्त कुलदीप ही गाड़ी ड्राइव करके लाया था। वापसी में ड्राइविंग की बारी राजिन्दर की थी।
गाड़ी स्टार्ट करते हुए राजिन्दर ने कुलदीप से पूछा, ‘‘किस तरफ से चलें, पुत्तर ? लॉरियों का रास्ता तो खुल गया है। इस वक्त फर्स्ट ब्रिज तो बिलकुल जाम होगा।’’
‘‘सेकेंड ब्रिज पकड़ लो, पापाजी ! बुआजी-फुफ्फड़जी की सैर भी हो जाएगी। सेन फ्रांसिस्को के गोल्डन गेट का कलकत्ता में ही नजारा कर लें...’’

रोहिणी हँस पड़ी, ‘‘अरे वोऽ ? वो तो जब मैं पिछली बार आई थी, तभी देख गई थी।’’
‘‘अरे, तो एक बार फिर देख लो न ! इसे तो एक बार देखो, बार-बार देखो,’’ राजिन्दर बेवजह ही उल्लास से भर उठा।
उसने शीशे में देखा, गुरवचन ने अपना बदन ढीला छोड़ दिया था। उसकी आँखें मुँदी हुई थीं।
राजिन्दर ने दरयाफ्त किया, ‘‘जीजाजी, सफर करके थक गए हैं ?’’
गुरवचन ने आँखें खोले बिना ही हल्के से होंठ हिलाकर कहा, ‘‘हाँ, थोड़ी थकान लग रही है—’’
‘‘गर्मी तो नहीं लग रही है ?’’
‘‘हाँ, थोड़ी-सी—’’
‘‘आपके यहाँ ठंड पड़ने लगी ?’’

‘‘हाँ, बस शुरू हो गई है; लेकिन कोई खास नहीं।’’
‘‘कलकत्ते में भी दिसंबर का महीना शुरू होते ही ठंड पड़ने लगती है। लेकिन इस बार ठंड का कहीं अता-पता नहीं, ‘‘इतना कहते हुए उसने मुड़कर पिछली सीट पर बैठे गुरवचन पर निगाह डालकर पूछा, ‘‘ए.सी. चला दूँ ?’’
‘‘नहीं, छोड़ो, रहने दो,’’ गुरवचन सीधे होकर बैठ गया, ‘‘नए-नए देश में आया हूँ, जरा यहाँ का हवा-पानी भी बदन पर लगा लूँ—’’
उनकी गाड़ी गंगा के किनारे-किनारे सपाट-पुख्ता सड़क पर दौड़ पड़ी। वैसे यह सड़क अक्सर खाली मिलती है, गाड़ी लगभग उड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है। किनारे-किनारे कतारों में स्थित कारखाने ! किसी-किसी कारखाने की चिमनी बिलकुल निष्क्रिय-बेजान ! गंगा घाट के बजाय गुरवचन की निगाहें कारखानों की तरफ गड़ी हुईं। कुलदीप भी चुपचाप बैठा हुआ ! शायद वह टूटी-फूटी पंजाबी बोलने के खौफ से खामोश बैठा हुआ था। राजिन्दर से अकेली रोहिणी ही बोले जा रही थी।

‘‘यह गाड़ी क्या तूने नई ली है ?’’
‘‘नई कहाँ ? इसे खरीदे तो साल-भर हो गए।’’
‘‘काफी सारी झाँड़-झंपड़ फिटिंग लगा रखे हैं। लाल-नीली बत्तियाँ ! स्टीरियों ! घड़ी ! ए.सी. वगैरह।’’
‘‘अरे भैनजी, ये सब तो अपनी दुकान के सामान हैं। नकदी चुकाने की जरूरत नहीं होती, महीने-महीने एडजस्ट हो जाते हैं।’’
‘‘यानी स्पेयर पार्टस का धंधा बिलकुल उठा दिया ?’’
‘‘बात दरअसल यह है, भैनजी, कि फैशनेबल फिटिंग्स के धंधे में फायदा ज्यादा है। बीस रुपए की चीज, आराम से दो सौ रुपए में बिक जाती है,’’ राजिन्दर ने जोर का ठहाका लगाकर कहा, ‘‘मजा यह है कि लोग-बाग धड़ल्ले से खरीद भी रहे हैं।’’
‘‘यानी तेरा कारोबार जम गया है ?’’

‘‘हाँ, कमोबेश ! दिल्ली की तरह न सही...! चैटर्जी बाबू ने मजे की लाइन पकड़ा दी—’’
‘‘ये चैटर्जी बाबू कौन हैं ? तेरा वही बंगाली पार्टनर ? अभी भी वह तेरे साथ है ?’’ साथ है मतलब ? ऊँचे-ऊँचे कनैक्शन तो उसी के लाए हुए हैं। फिल्म लाइन में, पुलिस लाइन में ! पता है ! इस साल कितनी सारी सरकारी जीपों के हुड़ लगाए हैं ?’’
‘‘ये बंगाली बडे़ धूर्त होते हैं रे, राजू ! तू ये साझेदारी का कारोबार छोड़कर अकेले...कोई अपना कारोबार क्यों नहीं शुरू करता ? बिलकुल अपना...’’

राजिन्दर ने दुबारा जोर का ठहाका लगाकर कहा, ‘‘तुम न इस कलकत्ता शहर को नहीं पहचानतीं, भैनजी ! यह दिल्ली नहीं है। यहाँ के लोग बड़े दरियादिल हैं।’’
‘‘चलो, ठीक है ! जिसमें तू राजी रहे...हमें और क्या चाहिए ? रब की मेहरबानी तुम पर बनी रहे। वाहे गुरु जो करेगा, भला करेगा,’ रोहिणी ने हलकी-सी जम्हाई लेकर, अपने हाथ-पैर सीधे करते हुए पूछा, ‘‘और बता, रश्मि की क्या खबर है ?’’
‘‘ठीक-ठाक ही है। पिछले सितंबर को उसकी कुड़ी की तीसरी सालगिरह मनाई गई...’’
 


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