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कहानी संग्रह >> यही सच है

यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...

कानपुर

मैं जानती हूं, संजय का मन निशीथ को लेकर जब-तब सशंकित हो उठता है; पर कैसे विश्वास दिलाऊं कि मैं निशीथ से नफ़रत करती हूं, उनकी याद-मात्र से मेरा मन घृणा से भर उठता है।…फिर अठारह वर्ष की आयु में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला! निरा बचपना होता है, महज़ पागलपन। उसमें आवेश रहता है पर स्थायित्व नहीं, गति रहती है, गहराई नहीं। जिस वेग से आरम्भ होता है, ज़रा-सा झटका लगने पर उसी वेग से टूट भी जाता है।…और उसके बाद आहों, आंसुओं और सिसकियों का एक दौरा, दुनिया की निस्सारता और आत्महत्या करने के अनेकानेक संकल्प और फिर एक तीखी घृणा। जैसे ही जीवन को दूसरा आधार मिल जाता है, उस सबको भूलने में एक दिन भी नहीं लगता। फिर तो वह सब ऐसी बेवकूफ़ी लगती है, जिस पर बैठकर घंटों हंसने की तबीयत होती है। तब एकाएक ही इस बात का अहसास होता है कि ये सारे आंसू ये सारी आहें उस प्रेमी के लिए नहीं थे, वरन् जीवन की उस रिक्तता और शून्यता के लिए थे, जिसने जीवन को नीरस बनाकर बोझिल कर दिया था।

तभी तो संजय को पाते ही मैं निशीथ को भूल गई। मेरे आंसू हंसी में बदल गए और आहों की जगह किलकारियां गूंजने लगीं। पर संजय है कि जब-तब निशीथ की बात को लेकर व्यर्थ ही खिन्न-सा हो उठता है। मेरे कुछ कहने पर वह खिलखिला अवश्य पड़ता है, पर मैं जानती हूं, वह पूर्ण रूप से आश्वस्त नहीं है।

उसे कैसे बताऊं कि मेरे प्यार का, मेरी कोमल भावनाओं का, भविष्य की मेरी अनेकानेक योजनाओं का एकमात्र केन्द्र संजय ही है? यह बात दूसरी है कि चांदनी रात में, किसी निर्जन स्थान में पेड़-तले बैठकर भी मैं अपनी थीसिस की बात करती हूं या वह अपने ऑफ़िस की, मित्रों की बातें करता है, या हम किसी विषय पर बात करने लगते हैं। पर इस सब का यह मतलब तो नहीं कि हम प्रेम नहीं करते! वह क्यों नहीं समझता कि आज हमारी भावुकता यथार्थ में बदल गई है, सपनों की जगह हम वास्तविकता में जीते हैं। हमारे प्रेम को परिपक्तवता मिल गई है, जिसका आधार पाकर वह अधिक गहरा हो गया है, स्थायी हो गया है।

पर संजय को कैसे समझाऊं यह सब! कैसे उसे बताऊं कि निशीथ ने मेरा अपमान किया है, ऐसा अपमान जिसकी कचोट से मैं आज भी तिलमिला जाती हूं। सम्बन्ध तोड़ने से पहले एक बार तो उसने मुझे बताया होता कि आख़िर मैंने ऐसा कौन-सा अपराध कर डाला था, जिसके कारण उसने मुझे इतना कठोर दंड दे डाला। सारी दुनिया की भर्त्सना, तिरस्कार, परिहास और दया का विष मुझे पीना पड़ा।…विश्वासघाती! नीच कहीं का।…और संजय सोचता है कि आज भी मेरे मन में उसके लिए कोई कोमल स्थान है! छिः! मैं उससे नफ़रत करती हूं! और सच पूछो तो अपने को भाग्यशालिनी समझती हूं कि मैं एक ऐसे व्यक्ति के चंगुल में फंसने से बच गई, जिसके लिए प्रेम महज़ एक खिलवाड़ है।

संजय, यह तो सोचो कि यदि ऐसी कोई भी बात होती, तो क्या मैं तुम्हारे आगे, तुम्हारी हर उचित-अनुचित चेष्टा के आगे, यों आत्मसमर्पण करती? तुम्हारे चुम्बनों और आलिंगनों में अपने को यों बिखरने देती? जानते हो, विवाह से पहले कोई लड़की किसी को इन सबका अधिकार नहीं देती। पर मैंने दिया, क्या केवल इसीलिए नहीं कि मैं तुम्हें प्यार करती हूं, बहुत-बहुत प्यार करती हूं? विश्वास करो संजय, तुम्हारा-मेरा प्यार ही सच है, निशीथ का प्यार तो मात्र छल था, भ्रम था, झूठ था।

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    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

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