कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
‘‘तुम भी एक ही मूर्ख हो! घर से दूर, यहां कमरा लेकर अकेली रहती हो, रिसर्च कर रही हो, दुनिया-भर में घूमती-फिरती हो और इंटरव्यू के नाम से डर लगता है। क्यों?’’ और गाल पर हल्की-सी चपत जमा देता है। फिर समझाता हुआ कहता है, ‘‘और देखो, आजकल ये इंटरव्यू आदि तो सब दिखावा-मात्र होते हैं। वहां किसी जान-पहचान वाले से इन्फ़्लुएंस डलवाना जाकर!’’
‘‘पर कलकत्ता तो मेरे लिए एकदम नई जगह है। वहां इरा को छोड़कर मैं किसी को जानती भी नहीं। अब उन लोगों की कोई जान-पहचान हो तो बात दूसरी है,’’ असहाय-सी मैं कहती हूं।’
‘‘और किसी को नहीं जानती?’’ फिर मेरे चेहरे पर नज़रें गड़ाकर पूछता है, ‘‘निशीथ भी तो वहीं है?’’
‘‘होगा, मुझे क्या करना है उससे?’’ मैं एकदम ही भन्नाकर जवाब देती हूं।’’ पता नहीं क्यों, मुझे लग रहा था कि अब वह यही बात कहेगा।
‘‘कुछ नहीं करना?’’ वह छेड़ने के लहजे में कहता है।
और मैं भभक पड़ती हूं, ‘‘देखो संजय, मैं हज़ार बार तुमसे कह चुकी हूं कि उसे लेकर मुझसे मज़ाक मत किया करो! मुझे इस तरह का मजा़क ज़रा भी पसन्द नहीं है!’’
वह खिलखिलाकर हंस पड़ता है, पर मेरा तो मूड ही ख़राब हो जाता है।
हम लौट पड़ते हैं। वह मुझे खुश करने के इरादे से मेरे कंधे पर हाथ रख देता है। मैं झटककर हाथ हटा देती हूं, ‘‘क्या कर रहे हो? कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?’’
‘‘कौन है यहां जो देख लेगा? और देख लेगा तो देख ले, आप ही कुढ़ेगा।’’
‘‘नहीं, हमें पसन्द नहीं है यह बेशर्मी!’’ और सच ही मुझे रास्ते में ऐसी हरकतें करना पसन्द नहीं है। चाहे रास्ता निर्जन ही क्यों न हो, पर है तो रास्ता ही; फिर कानपुर-जैसी जगह।
कमरे पर लौटकर मैं उसे बैठने को कहती हूं, पर वह बैठता नहीं, बस, बाहों में भरकर एक बार चूम लेता है। यह भी जैसे उसका रोज़ का नियम है।
वह चला जाता है! मैं बाहर बालकनी में निकलकर उसे देखती रहती हूं। उसका आकार छोटा होते-होते सड़क के मोड़ पर जाकर लुप्त हो जाता है। मैं उधर ही देखती रहती हूं–निरुद्देश्य-सी, खोई-खोई-सी। फिर जाकर पढ़ने बैठ जाती हूं।
रात को सोती हूं तो देर तक मेरी आंखें मेज़ पर लगे रजनीगंधा के फूलों को ही निहारती रहती हैं। जाने क्यों, अक्सर मुझे भ्रम हो जाता है कि ये फूल नहीं हैं, मानो संजय की अनेकानेक आंखें हैं जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलार रही हैं। और अपने को यों असंख्य आंखों से निरंतर देखे जाने की कल्पना से ही मैं लजा जाती हूं।
मैंने संजय को भी एक बार यह बात बताई थी, तो वह ख़ूब हंसा था और फिर मेरे गालों को सहलाते हुए उसने कहा था कि मैं पागल हूं, निरी मूर्खा हूं!
कौन जाने, शायद उसका कहना ही ठीक हो, शायद मैं पागल ही होऊं!
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