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यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...




यही सच है

कानपुर

सामने आंगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ़ गई और कंधे पर बस्ता लटकाए नन्हें-नन्हें बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो एकाएक ही मुझे समय का आभास हुआ…घंटाभर हो गया यहां पर खड़े-खड़े और संजय का अभी तक पता नहीं। झुंझलाती-सी मैं कमरे में आती हूं। कोने में रखी मेज़ पर किताबें बिखरी पड़ी हैं, कुछ खुली कुछ बन्द। एक क्षण मैं उन्हें देखती रहती हूं, फिर निरुद्देश्य-सी कपड़ों की अलमारी खोलकर सरसरी-सी नज़र से कपड़े देखती हूं। सब बिखरे पड़े हैं। इतनी देर यों ही व्यर्थ खड़ी रही; इन्हें ही ठीक कर लेती…पर मन नहीं करता और फिर बन्द कर देती हूं।

नहीं आना था तो व्यर्थ ही मुझे समय क्यों दिया? फिर यह कोई आज ही की बात है! हमेशा संजय अपने बताए हुए समय से घंटे-दो-घंटे देरी करके आता है, और मैं हूं कि उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूं। उसके बाद लाख कोशिश करके भी तो किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाती। वह क्यों नहीं समझता कि मेरा समय बहुत अमूल्य है; थीसिस पूरी करने के लिए अब मुझे अपना सारा समय पढ़ाई में ही लगाना चाहिए। पर यह बात उसे कैसे समझाऊं!

मेज़ पर बैठकर मैं फिर पढ़ने का उपक्रम करने लगती हूं, पर मन है कि लगता ही नहीं। पर्दे के ज़रा-से हिलने से दिल की धड़कन बढ़ जाती है और बार-बार नज़र घड़ी के सरकते हुए कांटों पर दौड़ जाती है। हर समय यही लगता है, वह आया!…आया!….

तभी, मेहता साहब की पांच साल की छोटी बच्ची झिझकती-सी कमरे में आती है, ‘‘आंटी, हमें कहानी सुनाओगी?’’

‘‘नहीं, अभी नहीं, पीछे आना!’’ मैं रूखाई में जवाब देती हूं। वह भाग जाती है।

ये मिसेज़ मेहता भी एक ही हैं! यों तो महीनों शायद मेरी सूरत नहीं देखतीं, पर बच्ची को जब-तब मेरा सिर खाने को भेज देती हैं। मेहता साहब तो फिर भी कभी-कभी आठ-दस दिन में ख़ैरियत पूछ ही लेते हैं, पर वे तो बेहद अकड़ू मालूम होती हैं। अच्छा ही है, ज़्यादा दिलचस्पी दिखातीं तो क्या मैं इतनी आज़ादी से घूम-फिर सकती थी।

खट-खट-खट…वही परिचित पदध्वनि? तो आ गया संजय। मैं बरबस ही अपना सारा ध्यान पुस्तक में केन्द्रित कर लेती हूं। रजनीगंधा के ढेर सारे फूल लिए संजय मुसकराता-सा दरवाज़े पर खड़ा है। मैं देखती हूं, पर मुसकराकर उसका स्वागत नहीं करती। हंसता हुआ वह आगे बढ़ता है; और फूलों को मेज़ पर पटककर, पीछे से मेरे दोनों कंधे दबाता हुआ पूछता है, ‘‘बहुत नाराज़ हो?’’

रजनीगंधा की महक से जैसे सारा कमरा महकने लगता है।

‘‘मुझे क्या करना है नाराज़ होकर?’’ रुखाई से मैं कहती हूं।

वह कुर्सी-सहित मुझे घुमाकर अपने सामने कर लेता, और बड़े दुलार के साथ ठोड़ी उठाकर कहता है, ‘‘तुम्हीं बताओ, क्या करता? क्वालिटी में दोस्तों के बीच फंसा था। बहुत कोशिश करके भी उठ नहीं पाया। सबको नाराज़ करके आना अच्छा भी तो नहीं लगता।’’

इच्छा होती है कह दूं, तुम्हें दोस्तों का ख़याल है, उनके बुरा मानने की चिन्ता है, बस मेरी ही नहीं! पर कह कुछ नहीं पाती, एकटक उसके चेहरे की ओर देखती रहती हूं…उसके सांवले चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक रही हैं। कोई और समय होता तो मैंने अपने आंचल से उन्हें पोंछ दिया होता, पर आज नहीं। वह मन्द-मन्द मुसकरा रहा है, उसकी आंखें क्षमायाचना कर रही हैं। पर मैं क्या करूं…तभी वह अपनी आदत के अनुसार कुर्सी के हत्थे पर बैठकर मेरे गाल सहलाने लगता है। मुझे उसकी बात पर ग़ुस्सा आता है। हमेशा इसी तरह करेगा और फिर दुनिया-भर का लाड़-दुलार दिखलाएगा। वह जानता जो है कि इसके आगे मेरा क्रोध टिक नहीं पाता।…फिर उठकर यह फूलदान के पुराने फूल फेंक देता है, और नये फूल लगाता है। फूल सजाने में वह कितना कुशल है! एक बार मैंने यों ही कह दिया था कि मुझे रजनीगंधा के फूल बड़े पसन्द हैं, तो उसने नियम बना लिया कि हर चौथे दिन ढेर-सारे फूल लाकर मेरे कमरे में लगा देता है। और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न पढ़ने में मन लगता है, न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते हैं।

थोड़ी देर बाद हम घूमने निकल जाते हैं। एकाएक ही मुझे इरा के पत्र की बात याद आती है। जो बात सुनाने के लिए मैं सवेरे से ही आतुर थी, इस गुस्सेबाज़ी से उसे ही भूल गई थी।

‘‘सुनो, इरा ने लिखा है कि किसी दिन भी मेरे पास इण्टरव्यू का बुलावा आ सकता है, मुझे तैयार रहना चाहिए।’’

‘‘कहां, कलकता से?’’ कुछ याद करते हुए संजय पूछता है, और फिर एकाएक ही उछल पड़ता है, ‘‘यदि तुम्हें वह जॉब मिल जाए तो मज़ा आ जाए, दीपा, मज़ा आ जाए!’’

हम सड़क पर हैं, नहीं तो अवश्य ही उसने आवेश में आकर कोई हरकत कर डाली होती। जाने क्यों, मुझे उसका इस प्रकार प्रसन्न होना अच्छा नहीं लगता। क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता चली जाऊं, उससे दूर…

तभी सुनाई देता है, ‘‘तुम्हें यह जॉब मिल जाए तो सच, मैं भी अपना तबादला कलकत्ता ही करवा लूं, हेड आफिस में। यहां की रोज की किचकिच से तो मेरा मन ऊब गया है। कितनी ही बार सोचा कि तबादले की कोशिश करूं, पर तुम्हारे ख़याल ने हमेशा मुझे बांध लिया। ऑफ़िस में शान्ति हो जाएगी, पर मेरी शामें कितनी वीरान हो जाएंगी।’’

उसके स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया। एकाएक ही मुझे लगने लगा कि रात सुहावनी हो चली है।

हम दूर निकलकर अपनी प्रिय टेकरी पर जाकर बैठ जाते हैं। दूर-दूर तक हल्की-सी चांदनी फैली हुई है, और शहर की तरह यहां का वातावरण धुएं से भरा हुआ नहीं है। वह दोनों पैर फैलाकर बैठ जाता है और घंटों मुझे अपने ऑफिस के झगड़े की बातें सुनाता है और फिर कलकत्ता जाकर साथ जीवन बिताने की योजनाएं बनाता है, मैं कुछ नहीं बोलती, बस एकटक उसे देखती हूं, देखती रहती हूं।

जब वह चुप हो जाता है तो बोलती हूं, ‘‘मुझे तो इंटरव्यू में जाते हुए बड़ा डर लगता है। पता नहीं, कैसे क्या पूछते होंगे! मेरे लिए तो यह पहला मौक़ा है।’’

वह खिलखिलाकर हंस पड़ता है।

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    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

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