कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
सामने वायलिन लटका था। अब वह बजा नहीं पाती, उसे देखती रहती है। उसे एकटक देखते
रहना भी सान्त्वना देता है। कितना कम हो गया है उसका वायलिन बजाना! जब-तब समय
मिलता है तो उसकी धूल पोंछ देती है। कभी-कभी तो उसका मन करता है कि स्कूल, घर
सब छोड़कर अपना वायलिन लेकर कहीं चली जाए और इतना बजाए, इतना बजाए कि उसका
अस्तित्व ही मिट जाए। वह कुन्ती न रहे, बस संगीत की एक स्वर-लहरी बन जाए, उसमें
मिल जाए!
दिसम्बर की छुट्टियों में टुन्नी आया। उसके आने से ही जैसे घर चहक उठा। पापा
प्रसन्न, कुन्ती प्रसन्न। घर की एकरसता टूट गई। आते ही उसने फरमाइश की कि
क्रिकेट का टेस्ट-मैच देखेंगे। अभी भी क्रिकेट के लिए उसका पागलपना जैसे का
तैसा बना हुआ था। पिछले साल सारे दिन क्रिकेट खेल-खेलकर ही तो फेल हुआ था। पर
इस बार कुन्ती ने टिकट का प्रबन्ध करने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर डाला। उसकी
बड़ी इच्छा थी कि जैसे भी हो, टुन्नी को वह मैच देखने के लिए भेज दे। इसी बहाने
वह अपने परिचितों के घर भी हो आई, वरना आजकल तो मिलना-जुलना भी छूट गया था।
पर किसी तरह भी टिकट का प्रबन्ध नहीं हो सका। वह समझ नही पा रही थी कि लोगों पर
ऐसा पागलपन कैसे सवार हो जाता है इस खेल को लेकर? किसी चीज़ का नशा भी होता है,
यह सब वह जैसे धीरे-धीरे भूलती जा रही थी। उसने टुन्नी को समझा दिया कि
कमेंट्री सुनकर ही सन्तोष कर लेना।
सावित्री के यहाँ पढ़ाने गई तो सावित्री ने डरते-डरते कहा, ‘‘बहनजी कल मत आइए,
हम मैच देखने जाएँगे।’’
‘‘अच्छा, तुम लोगों को टिकट मिल गए? मेरा छोटा भाई भी आया हुआ है इलाहाबाद से,
पागल हो रहा है, पर किसी तरह टिकट का इंतज़ाम नहीं हो सका।’’
‘‘माँ से पूछूँ, शायद एकाध ज़्यादा हो।’’ और सावित्री दौड़ गई।
कुन्ती सोच रही थी, उसे इन लोगों का ख्याल क्यों नहीं आया अभी तक?
माँ आई टेलीफ़ोन किया और कहा, ‘‘आप उसे तैयार रखिए नौ बजे। बच्चे गाड़ी में उधर
से ही उसे लेते जाएँगे।’’
कुन्ती प्रसन्न हो गई। टुन्नी सुनेगा तो कितना प्रसन्न होगा! वह ज़बरदस्ती इन
लोगों से खिंची-खिंची रहती है। कितना अपनापन रखती है बेचारी! पापा के बारे में
भी हमेशा पूछती रहती है, कहती रहती है, किसी भी तरह की ज़रूरत हो तो कहिएगा। वह
व्यवहार में क्यों ज़रूरत से ज़्यादा रूखी है?
टुन्नी इलाहाबाद लौट गया। उसी सप्ताह दो बार पापा की तबीयत बहुत खराब हुई। कई
दवाइयाँ बदलीं, विशेषज्ञ को भी बुलाना पड़ा और न चाहकर भी कुन्ती को फिर बैंक
से पाँच सौ रुपए निकालने पड़े। आखिर वह क्या करे? अब बचे ही कितने हैं, वे भी
समाप्त हो जाएँगे, तब? कुन्ती नहीं जानती कि तब वह क्या करेगी!
सावित्री के छमाही इम्तिहान का फल निकलने वाला है। वह पहले से कुछ सुधरी है, पर
नवीं में वह पास नहीं हो सकती, यह कुन्ती जानती है। उसने तो पहले भी कहा था पर
माँ को एक ही ज़िद है कि जैसे भी हो, उसे दसवीं में भेजना है। तो वह क्या करे?
वह पूरा परिश्रम करती है, जी-जान लगाकर पढ़ाती है। परीक्षाफल अच्छा नहीं निकला
तो माँ क्या कहेगी?
वह पहुँची तो पहले माँ से ही मुलाकात हुई, ‘‘लीजिए आपकी ही बात कर रही थी। इस
बार मेरा एक काम आपको करना होगा।’’
कुन्ती की जिज्ञासु आँखें माँ के चेहरे पर टिक गईं। मेज़ की दराज़ में से एक
थैला निकालकर वह बोली, ‘‘उस दिन आपका भाई जैसा स्वेटर पहने था, वैसा एक मेरे
लिए भी बना दीजिए। मैं तो यह काम जानती नहीं। उसका स्वेटर मुझे बहुत ही पसन्द
आया।’’ बाहर से किसी के बुलाने पर माँ थैला मेज़ पर छोड़कर चली गई, और फिर
लौटकर आई ही नहीं।
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