कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
|
8 पाठकों को प्रिय 403 पाठक हैं |
मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
‘‘यह क्या बहनजी! आपके भरोसे तो हमने नया स्कूल शुरू करवाया। आपके पास पढ़कर
इसका मन कुछ-कुछ लगने लगा था…ऐसा तो मत करिए। एक बार बस किसी तरह दसवीं में
पहुँचा दीजिए।’’
‘‘मैं बेहद थक जाती हूँ। दूर भी तो बहुत आना पड़ता है, फिर पापा बीमार हैं,
उनकी देखभाल, दवा-दारू करने के लिए भी तो मैं ही हूँ।’’ पर कु्न्ती को स्वयं
लगा कि बात के अन्त तक आते-आते उसके स्वर की दृढ़ता जाती रही है।
‘‘दूर तो है’’, कलाई में हीरे की चूड़ी नचाती हुई सावित्री की माँ बोली,‘‘पर एक
साल तो अब आप निभा ही दीजिए।’’ फिर कुछ रुकते-रुकते बोलीं, ‘‘न हो, मैं गाड़ी
का प्रबन्ध कर दूँगी; और क्या कर सकती हूँ?’’
कुन्ती अवाक्-सी माँ का चेहरा देख रही थी…दो सौ रुपए और गाड़ी!
‘‘बात यह है बहनजी, कि सावित्री की बात एक बहुत बड़े घर में चल रही है। उन
लोगों की एक ही ज़िद है कि लड़की दसवीं हो जाएगी तो शादी करेंगे। आप किसी न
किसी तरह दसवीं में पहुँचवा दीजिए, फिर वो सँभाल लेंगे। अब आजकल के लड़कों को
भी क्या कहें, और यह सावित्री भी है कि आपके सिवा किसी से पढ़ने को राज़ी ही
नहीं होती। आप आइए, गाड़ी का प्रबन्ध मैं कर दूँगी।’’
उस दिन कुन्ती गाड़ी में बैठकर घर लौटी। जैसे ही गाड़ी कोठी के फाटक में घुसी,
उसने देखा, मकान-मालिक के यहाँ वाले मास्टर साहब रिक्शा में सामान लदवाए चले आ
रहे हैं। अपने को गाड़ी में पाकर उसका मन गर्व और आत्मसन्तोष से भर गया। उसने
ट्यूशन भी की तो आत्मसम्मान के साथ की। बड़ी कोठी को पार करके वह अपने घर के
सामने उतरी। पापा ने सुना तो वे भी प्रसन्न हुए।
दूसरे दिन संध्या को जब वह गाड़ी में बैठकर सावित्री के यहाँ जा रही थी तो उसने
पहली बार देखा कि वह रास्ता कितना सुन्दर है। ठसाठस भरी हुई बस में धक्के खाते
समय शायद अपने को सँभालने की चिन्ता ही अधिक रहती थी, और काम से लौटे हुए,
सट-सटकर खड़े प्राणियों के पसीने की दुर्गन्ध से सिर भन्नाता रहता था। उस सबको
पार करके रास्ते का सौन्दर्य देख पाना क्या कोई सरल काम था? थोड़े दिनों में तो
उसे लगने लगा, काश, वह स्कूल भी गाड़ी में ही जा पाती!
टुन्नी का मन अब लग गया था। मामा ने खबर दी थी कि वह पढ़ाई में भी अच्छा चल रहा
है। पापा की तबीयत कभी ठीक, कभी खराब ऐसे ही चलती। बोलना उन्होंने एक प्रकार से
बन्द ही कर दिया था। उनकी देखभाल के लिए रमा बुआ आ गई थीं। कुन्ती के लिए वही
स्कूल, घर, सावित्री…सारा घर जैसे ढर्रे पर चल रहा था। मन जब बहुत उबलता तो रात
में ऊपर जाकर घंटों वायलिन बजाती, यही तो उसके नीरस जीवन का एक आधार था।
उस दिन कुन्ती सावित्री को पढ़ाकर घर के लिए काम दे रही थी कि सावित्री की माँ
ने एक बच्चे के साथ प्रवेश किया, ‘‘बहनजी, यह सावित्री का भानजा है। अब से मेरे
पास ही रहेगा। इसे कल ही स्कूल में डाला है। सावित्री के बाद थोड़ी देर तक इसे
भी देख लिया करिए।’’ कुन्ती को बोलने का अवसर दिए बिना ही वह बोले चली जा रही
थी, ‘‘बड़ा प्यारा बच्चा है। मीठी-मीठी बातें करके आपका मन मोह लेगा। नमस्ते
करो मुन्नू! और उस बच्चे ने छोटे-छोटे हाथ जोड़ दिए।
कुन्ती न हाँ कह सकी, न ना। अब सावित्री के बाद आधे घंटे के करीब वह बच्चे को
भी पढ़ाने लगी। सन्तोष और तसल्ली यही थी कि उसके बाद उसे गाड़ी घर तक छोड़ने
आती थी और गाड़ी में बैठकर जब ठंडी हवा का झोंका उसके बदन को सहलाता था, तो उसे
बहुत अच्छा लगता था।
धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ता गया। सावित्री के छोटे भाई-बहन में से कोई न कोई अब
आता ही रहता। कभी किसी को घर का काम पूछना रहता था, तो किसी को टेस्ट की तैयारी
करनी रहती थी। माँ बस इसी बात का ध्यान रखती थी कि सावित्री जब तक पढ़े, कोई
बच्चा कमरे में न जा पाए। कभी-कभी तो स्वयं उसके पास आकर बैठती, सावित्री की
पढ़ाई की बात पूछती, पापा की तबीयत के बारे में पूछती, घर की और बातें पूछती और
फिर कुन्ती के धैर्य की, उसके साहस की तारीफ करती हुई चली जाती। शुरू-शुरू में
कुन्ती को यह सब बहुत अटपटा लगता था, फिर धीरे-धीरे वह इस सबकी अभ्यस्त हो गई।
रात को जब वह लेटी तो टुन्नी की बड़ी याद आ रही थी। आज स्टाफ-रूम में देखे हुए
एक सिनेमा पर बड़ी बातें होती रही थी। टुन्नी के जाने के बाद कितना नीरस हो गया
है उसका जीवन। बिस्तर पर लेटे हुए पापा और काम में व्यस्त बुआजी। उसके बराबर की
और लड़कियाँ कितनी मौज करती हैं। घूमना-फिरना, सैर-सपाटे, हँसी-मज़ाक उसके जीवन
में तो यह सब दूर-दूर तक भी नहीं है…क्या कहीं भी नहीं होगा? क्या उसका सारा
जीवन यों ही निकल जाएगा? जितना रुपया वह कमाती है, उसमें कितने ठाठ से वह रह
सकती है। पर वह जानती ही नहीं कि ठाठ क्या होता है, मौज क्या होती है? पापा
क्या अब कभी अच्छे नहीं होंगे? कितने दिन वह इस तरह पड़े रहेंगे? टुन्नी होता
तो वह कल ही उसके साथ सिनेमा जाती। कब टुन्नी बड़ा होगा और उसके कन्धों का भार
हल्का करेगा? सच, अब तो वह ऊब गई है।
|