कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
कुन्ती लौटी तो उसके हाथ में ऊन का थैला था। घर आते ही बुआ ने बताया, ‘‘डॉक्टर
साहब आए थे, एक नुस्खा दे गए हैं।’’ उसने बिना देखे ही नुस्खा पर्स में पटक
दिया। पापा के पास पहुँची तो वे आँखें बन्द किये सो रहे थे। एक क्षण वह उनके
मुरझाए ज़र्द चेहरे को देखती रही, फिर भारी मन से लौट आई। उस रात उसने खाना भी
नहीं खाया। चुपचाप पड़ी-पड़ी वायलिन को ही देखती रही। फिर आँखें मूँदीं, तो
कोरों से आँसू ढुलक पड़े।
आखिर जिस बात का डर था, वही हुआ। सावित्री छमाही इम्तिहान में फेल हो गई।
कुन्ती पहुँची तो देखा सावित्री रो रही थी माँ का पारा चढ़ा हुआ था। कुन्ती को
देखते ही बोली, ‘‘यह देखिए, यह निकला रिज़ल्ट! आप तो कहती थीं कि अब सुधर रही
है, निकल जाएगी, सभी में तो फेल है। नहीं बहनजी, अब तो यह पढाई छुड़ानी ही
पड़ेगी…पढ़ना-लिखना इसके बस का नहीं। फिर वह सगाई की बात भी खत्म हुई, अब कौन
पानी की तरह रुपया बहाए!’’
‘‘देखूँ,’’ कुन्ती ने रिपोर्ट हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘पेपर्स इतने खराब नहीं
किए थे कि सभी में फेल हो जाती।’’ पर उसे रिपोर्ट में लाल धब्बे के सिवा कुछ भी
नहीं दिखाई दे रहा था। सावित्री की रिपोर्ट के लाल धब्बे, पापा के कफ में खून
के लाल धब्बे…सब जगह बस लाल…लाल…
‘‘मैं तो अभी भी कहती हूँ कि आप एक बार इसके स्कूल जाइए, इसकी टीचरों से मिलिए।
स्कूल जाने से बात ही दूसरी हो जाती है। कुछ उम्मीद हो तो पढ़ाई जारी रखें,
नहीं तो किस्सा खत्म करें।’’
और कुन्ती सोच रही थी, उसके घर आकर उसकी खुशामद करने वाली माँ और यह माँ क्या
एक ही हैं?
‘‘मैं स्कूल जाकर पता लगाऊँगी, बात करूँगी। वार्षिक परीक्षा में तो इसे पास
करवाना ही है।’’
‘‘अब आप ज़िम्मा ले तभी पढ़ाऊँगी। जैसे भी हो, पास करवा दीजिए।’’
कुन्ती जानती है कि ऐसा ज़िम्मा कोई नहीं ले सकता, और ले तो निभा नहीं सकता।
फिर भी उसने कहा कि वह पूरी कोशिश करेगी।
और सचमुच कुन्ती सावित्री के स्कूल गई। सौभाग्य से वहाँ की अध्यापिकाओं में एक
पुरानी परिचिता मिल गईं। पर वहाँ वह पूछताछ के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थीं।
वह सावित्री को और ज्यादा मेहनत से और अधिक समय देकर पढ़ाने लगी…अभी सावित्री
का पढ़ना बन्द हो जाए तो? इस ‘तो’ के बारे में तो वह सोच ही नहीं सकती।
गरमियाँ आईं तो कुन्ती के नीरस, बोझिल, उदास दिन और भी लम्बे हो गए। अब उसे न
पापा की बीमारी की चिन्ता थी, न स्कूल के काम में कोई दिलचस्पी थी, और न
सावित्री को पढ़ाने में, फिर भी वह मशीन की तरह सब करती थी। अब सावित्री की माँ
की कोई भी बात उसे बुरी नहीं लगती। लौटते समय कभी कोई बच्चा साथ हो जाता, और
माँ आजकल के ज़िद्दी बच्चों को कोसती हुई कह देती, ‘‘बहनजी, ज़रा दो मिनट को
उतरकर इसे जूता दिलवा दीजिएगा। ये ड्राइवर लोग तो ठगा लाते हैं…बच्चे भी क्या
हैं, बात मुँह से पीछे निकलती है, चीज़ पहले चाहिए!’’
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