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कहानी संग्रह >> यही सच है

यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...



थोड़ी देर बाद पापा ने रुकते-रुकते कहा था, ‘‘एक बार कोशिश करके इसे चढ़वा तो दे; तेरी हेडमास्टर साहब से अच्छी जान-पहचान है…वहाँ भी जाए तो एक साल तो बच जाए।’’

ज़हर की तरह कुन्ती ने चाय का घूँट निगला था और अपने को भरसक संयत करके बोली थी, ‘‘पापा, कम-से-कम स्कूलों को तो इन सारी बातों से भ्रष्ट न करवाओ। टुन्नी मेरा अपना विद्यार्थी होता तब भी मैं उसे कभी नहीं चढ़ाती।’’ उसके स्वर में आवेश नहीं था, पर दृढ़ता थी और पापा चुप हो गए थे।

पर आज टुन्नी का पत्र न जाने क्यों रह-रहकर मन में टीस उठा रहा है। कुन्ती को लगा, जैसे प्यास से उसका गला सूख रहा है। उसने उठकर पानी पिया। आकर लेटी तो नज़र फिर वायलिन पर पहुँच गई। एक बार फिर इच्छा हुई कि वायलिन लेकर छत पर चली जाए। पर उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

सावित्री की ट्यूशन वह निभा सकेगी? अब तो जैसे भी हो, निभाना ही होगा। वह स्कूल में छः घण्टे काम करती है, तब जाकर उसे दो सौ रुपए मिलते हैं और कहीं डेढ़ घण्टे के ही दो सौ! फिर एक महीने खुशामद की उसकी माँ ने। चार चक्कर तो घर के ही लगाए, पर फिर भी…और उसकी आँखों के सामने मकान-मालिक के मास्टरजी फिर घूम गए…वे मास्टरजी हैं, पर कभी रिक्शा में सामान लदवाकर लाते हैं, तो कभी सेठानी का हिसाब लिखते हैं। हूँ! वह तो जिस दिन भी देखेगी कि उसके सारे परिश्रम के बावजूद सावित्री नहीं सुधर रही, कुछ भी नहीं सीख रही, उसी दिन छोड़ देगी, चाहे कितनी ही मुसीबत क्यों न सहनी पड़े। सावित्री को पढ़ाना कोई सरल काम नहीं है। जो आठवीं के भी लायक नहीं है उसे नवीं में पास करवाना…

एक महीने में ही बैंक से पापा के हज़ार से अधिक रुपए निकल चुके थे। वह नहीं चाहती है कि अब और निकलें। पूँजी के नाम पर उनके पास कुल पाँच हज़ार ही तो थे जिनके प्रति उनका मोह उम्र के साथ-ही-साथ बढ़ता जा रहा था। लगता था, जैसे यह रुपया ही उनका एकमात्र सहारा है। उसे वे कभी कुन्ती के ब्याह के लिए बताकर एक उत्तरदायी बाप होने का सन्तोष प्राप्त करते थे, तो कभी टुन्नी की पढ़ाई के लिए बताकर उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना का सुख लेते थे। उसमें से भी अब खर्च होने लगा। कुन्ती भी क्या करती? यों तो पापा की पेंशन, अपनी तनख्वाह और गाँव के मकान के किराए से वह अच्छी तरह काम चलाती आ रही थी, पर बीमारी का यह अतिरिक्त खर्च…और बीमारी भी अनिश्चित अवधि तक की…

दूर कहीं मुर्गा बोला। यह क्या सवेरा होने आया? तो वह आज बिल्कुल नहीं सोने पाई। कल सवेरे से ही फिर जुट जाना है…बाज़ार, स्कूल, सावित्री, पापा की परिचर्या…उसका सिर भारी होने लगा।

अपना क्लास लेकर कुन्ती स्टाफ-रूम में पहुँची और चुपचाप कुर्सी पर बैठकर बाहर देखने लगी। बहुत-सी कापियाँ देखने को जमा हो गई थीं, पर मन ही नहीं कर रहा था कुछ करने को। सिर बेहद भारी हो रहा था और नींद आँखों में घुल रही थी। तभी मिसेज़ नाथ अपने भारी-भरकम कंधों पर कापियों के दो गट्ठर लादे घुसीं। उसने देखकर भी नहीं देखा। नाथ भी कुछ नहीं बोलीं, चुपचाप कापियाँ देखने बैठ गईं। कुन्ती ने सोचा, क्या इन्हें मालूम नहीं हुआ है कि मैंने सावित्री के यहाँ ट्यूशन कर ली है? हो सकता है, आज न हुआ हो, पर कल तो होगा ही, तब…

फड़फड़ाती हुई एक कापी फर्श पर गिरी तो कुन्ती ने चौंककर पीछे देखा। नाथ ने गुस्से में आकर किसी लड़की की कापी ही उछाल दी थी और हड़बड़ा रही थी, ‘‘दिमाग में गोबर भरा है और पढ़ने का शौक चर्राया है। अपने घर बैठो, खाओ-पियो और मौज करो। न जाने कहाँ-कहाँ से दिमाग चाटने आ जाती हैं!…’’

कुन्ती फिर बाहर देखने लगी। यों वह इस एक साल में इन सब बातों की काफी अभ्यस्त हो चुकी थी, फिर भी लड़कियों पर यों झुँझलाना, ऐसे अपशब्द कहना उसे कभी अच्छा नहीं लगता। फिर पढ़ी-लिखी, सभ्य-सुसंस्कृत महिलाओं के मुँह से निकले हुए ऐसे शब्द, जो इतनी छात्राओं की अध्यापिकाएँ है, उनकी आदर्श हैं।

उसे याद आया, जब पहली बार उसने इन्हीं नाथ को डाँटते हुए सुना था, तो आश्चर्य और गुस्से के साथ-साथ उसे बेहद हँसी भी आई थी। वे गुस्से से काँपती हुई ज़ोर-ज़ोर से स्केल को मेज़ पर पटककर सामने खड़ी थर-थर काँपती किसी लड़की को कह रही थीं, ‘कल यदि पाठ याद करके नहीं आई तो इस चलते हुए पंखे में लटका दूँगी।’ और कुन्ती को पंखे से लटकी हुई लड़की की कल्पना ने बेहद हँसाया था।

एक वह थी जो अपनी कमज़ोर छात्राओं को सवेरे जल्दी आकर पढ़ाया करती या देर तक ठहरकर पढ़ाती; स्नेह और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से उनके खोए आत्मविश्वास को जगाती। पढ़ाई के अतिरिक्त विभिन्न रुचियों के विकास के लिए नई योजनाएँ बनाया करती थी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में वह अपनी सहकर्मिणियों के बीच व्यंग्य और उपहास की पात्री और छात्राओं की ‘परम प्रिय बहनजी’ बन गई थी। पर साल-भर बीतते-बीतते उसका भी उत्साह बहुत कम हो गया था। कापियाँ देखते समय उसने कई बार अपने परिश्रम की व्यर्थता महसूस की थी। पर फिर भी ऐसे अपशब्द…इस तरह झल्लाना…

‘‘सुना है, सावित्री की माँ ने उसे किसी दूसरे स्कूल में नवीं कक्षा में भरती करवा दिया है और शायद तुमने उसे घर पर पढ़ाना मंज़ूर कर लिया है?’’

बात कुन्ती से ही कही गई थी, पर कुन्ती ने न मुड़कर उधर देखा, न जवाब ही दिया।

‘‘पैसे के ज़ोर से नवीं कक्षा क्या, मैट्रिक का सर्टिफिकेट भी मिल सकता है। और भई, हमने तो पहले ही कहा था कि ऐसी अच्छी ट्यूशन भाग्य से ही मिलती है। तब सामनेवाला खुशामद कर रहा है तो हमें क्या, सीखे न सीखे, हमारी बला से! हम तो जितना समय तय हुआ है, पढ़ाकर आ जाते हैं। अच्छा कुन्ती कितना लोगी?’’

नाथ के शब्द कुन्ती को बुरी तरह बेध रहे थे। बिना मुड़े ही उसने जवाब दिया, ‘‘मैंने लेन-देन की कोई बात नहीं की। एक महीने में यदि वह कुछ सीखेगी तो पढ़ाऊँगी, नहीं तो छोड़ दूँगी।’’ और उसे लगा कि नाथ के चेहरे पर फिर वही व्यंग्यात्मक मुस्कराहट फैल गई है, मानो कह रही हो, अभी नई-नई हो, इसलिए यह सब कह रही हो, धीरे-धीरे अपने-आप रास्ते पर आ जाओगी।

‘‘क्या सचमुच कुन्ती भी एक दिन नाथ जैसी हो जाएगी?…घर जाकर कुन्ती ने चाय पी और सावित्री के यहाँ चलने की तैयारी करने लगी। चाय वह हमेशा पापा के साथ बैठकर ही पीती थी और उनकी तबीयत का हाल भी जान लेती थी। यों नौकर अच्छा है, फिर भी उसने रमा बुआ को लिख दिया है कि वे गाँव से आ जाएँ। उसका तो बहुत-सा समय बाहर निकल जाता है। घर का कोई आदमी पापा के पास होना ही चाहिए। वह उठने लगी तो पापा ने कहा, ‘‘अभी तो स्कूल से आई है, थोड़ी देर आराम कर ले।’’

वह बैठ गई। वह जानती है कि देर कर देने से ट्राम-बस में ऑफिस की भीड़ हो जाती है, घुसना असभ्भव हो जाता है, फिर भी पापा की बात टालना नहीं चाहती। उसके इस दोहरे परिश्रम से पापा यों ही काफी दुःखी हैं। इस सबके लिए वे अपने को ही उत्तरदायी समझते हैं। कुन्ती उनके दुःख को किसी प्रकार भी नहीं बढ़ाना चाहती। इस बीमारी ने कितना विवश, कितना निरीह बना दिया है पापा को!

एक महीना पढ़ाकर ही कुन्ती को लगा कि सावित्री को वह अब नहीं पढ़ा सकेगी। डेढ़ घंटा पढ़ाने के लिए, पूरा डेढ़ घंटा और उसे बस में बिगाड़ना पड़ता है। और इस प्रकार स्कूल के बाद पूरे तीन घंटे सावित्री के नाम अर्पण हो जाते हैं। उसके बाद वह इतनी थक जाती है कि किसी पत्रिका की दो पंक्तियाँ भी उससे नहीं पढ़ी जातीं। कल जब वह लेटी थी तो उसने देखा था कि वायलिन पर धूल की हल्की-सी परत जम गई है। उसका मन टीस उठा था। उसने धूल पोंछी, पर चाहकर भी बजाने के लिए वह ऊपर नहीं जा सकी थी। बस, एकटक उसे देखती रही थी, और उसे लग रहा था कि यदि ज़िन्दगी का यही रवैया रहा तो वह शायद फिर कभी वायलिन नहीं बजा सकेगी। इस कल्पना से उसकी आँखें छलछला आई थीं। नहीं-नहीं, जो भी होगा वह सहन कर लेगी, पर कल ही सावित्री की माँ से कह देगी कि वह अब पढ़ा नहीं सकेगी। और सचमुच वह दूसरे दिन कुन्ती ने जाकर सावित्री की माँ से कहा, ‘‘देखिए, मैंने अपनी ओर से भरसक प्रयत्न किया, पर लगता है, सावित्री को पढ़ाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा।’’ सारे रास्ते वह संकल्प-विकल्प करती रही थी। एक महीने के लिए हुए दो सौ होगा।’’ सारे रास्ते वह संकल्प-विकल्प करती रही थी। एक महीने के मिले हुए दो सौ रुपयों से घर की आर्थिक स्थिति कितनी सँभल जाएगी, यह भी उसके सामने था, पर फिर भी उसने कह ही दिया।

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    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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