कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
कानपुर
आज निशीथ को पत्र लिखे चौथा दिन है। मैं तो कल ही उसके पत्र की राह देख रही थी, पर आज की भी दोनों डाकें निकल गईं। जाने कैसा सूना-सूना, अनमना-अनमना लगता रहा सारा दिन! किसी भी तो काम में जी नहीं लगता। क्यों नहीं लौटती डाक से ही उत्तर दे दिया उसने? समझ में नहीं आता, कैसे समय गुज़ारूं!
मैं बाहर बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती हूं। एकाएक ख़याल आता है, पिछले ढाई सालों के क़रीब इसी समय, यहीं खड़े होकर मैंने संजय की प्रतीक्षा की है। क्या आज मैं संजय की प्रतीक्षा कर रही हूं या मैं निशीथ के पत्र की प्रतीक्षा कर रही हूं? शायद किसी की नहीं, क्योंकि जानती हूं कि दोनों में से कोई भी नहीं आएगा। फिर?
निरुद्देश्य-सी कमरे में लौट पड़ती हूं। शाम का समय मुझसे घर में नहीं काटा जाता। रोज़ ही तो संजय के साथ घूमने निकल जाया करती थी। लगता है, यहीं बैठी रही तो दम ही घुट जाएगा। कमरा बन्द करके मैं अपने को धकेलती-सी सड़क पर ले आती हूं।…शाम का धुंधलका मन के बोझ को और भी बढ़ा देता है। कहां जाऊं? लगता है जैसे मेरी राहें भटक गई हैं, मंज़िल खो गई हैं। मैं स्वयं नहीं जानती, आख़िर मुझे जाना कहां है। फिर भी निरुद्देश्य-सी चलती रहती हूं। पर आख़िर कब तक यों भटकती रहूं! हारकर लौट पड़ती हूं।
कमरे पर आते ही मेहता साहब की बच्ची तार का एक लिफा़फा़ देती है।
धड़कते दिल से मैं उसे खोलती हूं। इरा का तार था।
…नियुक्ति हो गई है। बधाई!
इतनी बड़ी ख़ुशख़बरी पाकर भी जाने क्या है कि खुश नहीं हो पाती। यह ख़बर तो निशीथ भेजने वाला था। एकाएक ही एक विचार मन में आता है, क्या जो कुछ मैं सोच गई, वह निरा भ्रम ही था, मात्र मेरी कल्पना, मेरा अनुमान! नहीं-नहीं! उस स्पर्श को मैं भ्रम कैसे मान लूं जिसने मेरे तन-मन को भिगो दिया था, जिसके द्वारा उसके हृदय की एक-एक परत मेरे सामने खुल गई थी?…लेक पर बिताएं मधुर क्षणों को कैसे भ्रम मान लूं, जहां उसका मौन ही मुखरित होकर सब-कुछ कह गया था? आत्मीयता के अनकहे क्षण! तो फिर पत्र क्यों नहीं लिखा? क्या कल उसका पत्र आएगा? क्या आज भी उसे वही हिचक रोके हुए है?
तभी सामने की घड़ी टन-टन करके नौ बजाती है। मैं उसे देखती हूं। यह संजय की लाई हुई है।…लगता है, जैसे यह घड़ी घण्टे सुना-सुनाकर मुझे संजय की याद दिला रही है। फरफराते ये पर्दे, यह हरी बुक-रैक, यह टेबिल, यह फूलदान, सभी तो संजय के ही लाए हुए हैं। मेज़ पर रखा यह पेन उसने मुझे सालगिरह पर लाकर दिया था।
अपनी चेतना के इन बिखरे सूत्रों को समेटकर मैं फिर पढ़ने का प्रयास करती हूं, पर पढ़ नहीं पाती। हारकर मैं पलंग पर लेट जाती हूं।
सामने के फूलदान का सूनापन मेरे मन के सूनेपन को और अधिक बढ़ा देता है। मैं कसकर आंखें मूंद लेती हूं।…एक बार फिर मेरी आंखों के आगे लेक का स्वच्छ, नीला जल उभर आता है, जिसमें छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। उस जल की ओर देखते हुए निशीथ की आकृति उभर आती है। वह लाख जल की ओर देखे; पर चेहरे पर अंकित उसके मन की हलचल को मैं आज भी, इतनी दूर रहकर भी, महसूस करती हूं। कुछ न कह पाने की मजबूरी, उसकी विवशता, उसकी घुटन आज भी मेरे सामने साकार हो उठती है। धीरे-धीरे लेक के पानी का विस्तार सिमटता जाता है, और एक छोटी-सी राइटिंग-टेबुल में बदल जाता है, और मैं देखती हूं कि एक हाथ में पेन लिये और दूसरे हाथ की उंगलियों को बालों में उलझाए निशीथ बैठा है…वही मजबूरी, वही विवशता, वही घुटन लिये।…वह चाहता है; पर जैसे लिख नहीं पाता। वह कोशिश करता है, पर उसका हाथ बस कांपकर रह जाता है।…ओह! लगता है, उसकी घुटन मेरा दम घोंटकर रख देगी।…मैं एकाएक ही आंखें खोल देती हूं। वही फूलदान, पर्दें, मेज़, घड़ी…
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