कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
कानपुर
मन में उत्कट अभिलाषा होते हुए भी निशीथ की आवश्यक मीटिंग की बात सुनकर मैंने कह दिया था कि तुम स्टेशन मत आना। इरा आई थी, पर गाड़ी पर बिठा कर ही चली गई, या कहूं कि मैंने ज़बरदस्ती ही उसे भेज दिया। मैं जानती थीं कि लाख मना करने पर भी निशीथ आएगा और विदा के उन अंतिम क्षणों में मैं उसके साथ अकेली ही रहना चाहती थी। मन में एक दबी-सी आशा थी कि चलते समय ही शायद वह कुछ कह दे।
गाड़ी चलने में दस मिनट रह गए तो देखा, बड़ी व्यग्रता से डिब्बों में तांकता-झांकता निशीथ आ रहा था…पागल। उसे इतना तो समझना चाहिए कि उसकी प्रतीक्षा में मैं यहां बाहर खड़ी हूं।
मैं दौड़कर उसके पास जाती हूं, ‘‘आप क्यों आए?’’ पर मुझे उसका आना बड़ा अच्छा लगता है! वह बहुत थका हुआ लग रहा है। शायद सारा दिन बहुत व्यस्त रहा और दौड़ता-दौड़ता मुझे सी-ऑफ़ करने यहां जा पहुंचा। मन करता है कुछ ऐसा करूं, जिससे इसकी सारी थकान दूर हो जाए। पर क्या करूं? हम डिब्बे के पास आ जाते हैं।
‘‘जगह अच्छी मिल गई?’’ वह अन्दर झांकते हुए पूछता है।
‘‘हां!’’
‘‘पानी-वानी तो है?’’
‘‘है।’’
‘‘बिस्तर फैला लिया?’’
मैं खीझ पड़ती हूं। वह शायद समझ जाता है, सो चुप हो जाता है। हम दोनों एक क्षण को एक-दूसरे की ओर देखते हैं। मैं उसकी आंखों में विचित्र-सी छायाएं देखती हूं, मानो कुछ है, जो उसके मन में घुट रहा है, उसे मथ रहा है, पर वह कह नहीं पा रहा है। वह क्यों नहीं कह देता, क्यों नहीं अपने मन की इस घुटन को हल्का कर लेता?
‘‘आज भीड़ विशेष नहीं है’’, चारों ओर नज़र डालकर वह कहता है।
मैं भी एक बार चारों ओर देख लेती हूं, पर नज़र मेरी बार-बार घड़ी पर ही जा रही है। जैसे-जैसे समय सरक रहा है, मेरा मन किसी गहरे अवसाद में डूब रहा है। मुझे कभी उस पर दया आती है तो कभी खीझ। गाड़ी चलने में केवल तीन मिनट बाक़ी रह गए हैं। एक बार फिर हमारी नज़रें मिलती हैं।
‘‘ऊपर चढ़ जाओ, अब गाड़ी चलने वाली है।’’
बड़ी असहाय-सी नज़र से मैं उसे देखती हूं, मानो कह रही होऊं, तुम्हीं चढ़ा दो। और फिर धीरे-धीरे चढ़ जाती हूं। दरवाज़े पर मैं खड़ी हूं और वह नीचे प्लेटफ़ार्म पर।
‘‘जाकर पहुंचने की ख़बर देना। जैसे ही मुझे इधर कुछ निश्चित रूप से मालूम होगा, तुम्हें सूचना दूंगा।’’
मैं कुछ बोलतीं नहीं, बस उसे देखती रहती हूं।…
सीटी…हरी झंडी…फिर सीटी। मेरी आंखें छलछला आती हैं।
गाड़ी एक हल्के-से झटके के साथ सरकने लगती है। वह गाड़ी के साथ क़दम आगे बढ़ाता है और मेरे हाथ पर धीरे से अपना हाथ रख देता है। मेरा रोम-रोम सिहर उठता है। मन करता है चिल्ला पड़ूं–मैं सब समझ गई, निशीथ, सब समझ गई! जो तुम इन चार दिनों में नहीं कह पाए, वह तुम्हारे इस क्षणिक स्पर्श ने कह दिया। विश्वास करो, यदि तुम मेरे हो, तो मैं तुम्हारी हूं, केवल तुम्हारी, एकमात्र तुम्हारी!…पर मैं कुछ कह नहीं पाती, बस, साथ चलते निशीथ को देखती-भर रहती हूं। गाड़ी के गति पकड़ते ही वह हाथ को ज़रा-सा दबाकर छोड़ देता है। मेरी छलछलाई आंखें मुंद जाती हैं। मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, वह क्षण ही सत्य है, बाक़ी सब झूठ है, अपने को भूलने का, छलने का असफल प्रयास है।
आंसू-भरी आंखों से मैं प्लेटफ़ार्म को पीछे छूटता हुआ देखती हूं। सारी आकृतियां धुंधली-सी दिखाई देती हैं। असंख्य हिलते हुए हाथों के बीच निशीथ के हाथ को, उस हाथ को, जिसने मेरा हाथ पकड़ा था, ढूंढ़ने का असफल-सा प्रयास करती हूं। गाड़ी प्लेटफ़ार्म को पार कर जाती है, और दूर-दूर कलकत्ता की जगमगाती बत्तियां दिखाई देती हैं। धीरे-धीरे वे सब भी दूर हो जाती हैं, पीछे छूटती जाती हैं। मुझे लगता है, यह दैत्याकार ट्रेन मुझे मेरे अपने घर से कहीं दूर-दूर ले जा रही है–अनदेखी, अनजानी राहों में गुमराह करने के लिए, भटकाने के लिए!
बोझिल मन से मैं अपने फैलाए हुए बिस्तर पर लेट जाती हूं। आंखें बन्द करते ही सबसे पहले मेरे सामने संजय का चित्र उभरता है।…कानपुर जाकर मैं उसे क्या कहूंगी? इतने दिनों तक उसे छलती आई, अपने को छलती आई, पर अब नहीं।…मैं उसे सारी बात समझा दूंगी। कहूंगी, संजय, जिस सम्बन्ध को टूटा हुआ जानकर मैं भूल चुकी थी, उसकी जड़ें हृदय की किन अतल गहराइयों में जमी हुई थीं, इसका अहसास कलकत्ता में निशीथ से मिलकर हुआ। याद आता है, तुम निशीथ को लेकर सदैव ही संदिग्ध रहते थे; पर तब मैं तुम्हें ईर्ष्यालु समझती थी, आज स्वीकार करती हूं कि तुम जीते, मैं हारी।
सच मानना संजय, ढाई साल मैं स्वयं भ्रम में थी और तुम्हें भी भ्रम में डाल रखा था, पर आज भ्रम के, छलना के सारे ही जाल छिन्न-भिन्न हो गए हैं। मैं आज भी निशीथ को प्यार करती हूं। और यह जानने के बाद, एक दिन भी तुम्हारे साथ और छल करने का दुस्साहस कैसे करूं! आज पहली बार मैंने अपने सम्बन्धों का विश्लेषण किया, तो जैसे सब-कुछ स्पष्ट हो गया, तो तुमसे कुछ भी नहीं छिपाऊंगी, तुम्हारे सामने मैं चाहूं तो भी झूठ नहीं बोल सकती।
आज लग रहा है, तुम्हारे प्रति मेरे मन में जो भी भावना है, वह प्यार की नहीं, केवल कृतज्ञता की है। तुमने मुझे उस समय सहारा दिया था, जब अपने पिता और निशीथ को खोकर मैं चूर-चूर हो चुकी थी। सारा संसार मुझे वीरान नज़र आने लगा था, उस समय तुमने अपने स्नेहिल स्पर्श से मुझे जिला दिया; मेरा मुरझाया-मरा मन हरा हो उठा; मैं कृतकृत्य हो उठी, और समझने लगी कि मैं तुमसे प्यार करती हूं। पर प्यार की बेसुध घड़ियां, वे विभोर क्षण, तन्मयता के पल, जहां शब्द चुक जाते हैं, हमारे जीवन में कभी नहीं आए। तुम्हीं बताओ, आए कभी? तुम्हारे असंख्य आलिंगनों और चुम्बनों के बीच भी एक क्षण के लिए भी तो मैंने कभी तन-मन की सुध बिसरा देनेवाली पुलक या मादकता का अनुभव नहीं किया।
सोचती हूं, निशीथ के चले जाने के बाद मेरे जीवन में एक विराट् शून्यता आ गई थी, एक खोखलापन आ गया था; तुमने उसकी पूर्ति की। तुम पूरक थे, मैं गलती से तुम्हें प्रियतम समझ बैठी।
मुझे क्षमा कर दो संजय, और लौट जाओ। तुम्हें मुझ-जैसी अनेक दीपाएं मिल जाएंगी, जो सचमुच ही तुम्हें प्रियतम की तरह प्यार करेंगी। आज एक बात अच्छी तरह जान गई हूं कि प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है; बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने का प्रयास-मात्र होता है…
इसी तरह की असंख्य बातें मेरे दिमाग़ में आती हैं, जो मैं संजय से कहूंगी। कह सकूंगी यह सब? लेकिन कहना तो होगा ही। उसके साथ अब एक दिन भी छल नहीं कर सकती। मन से किसी और की आराधना करके तन से उसकी होने का अभिनय करती रहूं? छिः।
नहीं जानती, यह सब सोचते-सोचते मुझे कब नींद आ गई। लौटकर अपना कमरा खोलती हूं, तो देखती हूं सब कुछ ज्यों-का-त्यों है, सिर्फ़ फूलदान के रजनीगंधा मुरझा गए हैं। कुछ फूल झरकर ज़मीन पर इधर-उधर भी बिखर गए हैं।
आगे बढ़ती हूं तो ज़मीन पर पड़ा एक लिफा़फा़ दिखाई देता है। संजय की लिखाई हैं; खोला तो छोटा-सा पत्र था :
दीपा,
तुमने तो कलकत्ता जाकर कोई सूचना ही नहीं दी। मैं आज ऑफ़िस के काम से कटक जा रहा हूं। पांच-छह दिन में लौट आऊंगा। तब तक तुम आ ही जाओगी। जानने को उत्सुक हूं कि कलकत्ता में क्या हुआ?
तुम्हारा,
संजय।
एक लम्बा निःश्वास निकल जाता है। लगता है एक बड़ा बोझ हट गया। इस अवधि में तो मैं अपने को अच्छी तरह तैयार कर लूंगी।
नहा-धोकर सबसे पहले मैं निशीथ को पत्र लिखती हूं। उसकी उपस्थिति में जो हिचक मेरे होंठ बन्द किए हुए थी, दूर रहकर वह अपने-आप ही टूट जाती है। मैं स्पष्ट शब्दों में लिख देती हूं कि चाहे उसने कुछ नहीं कहा, फिर भी मैं सब-कुछ समझ गई हूं। साथ ही यह भी लिख देती हूं कि मैं उसकी उस हरकत से बहुत दुखी थी, बहुत नाराज़ भी; पर उसे देखते ही जैसे सारा क्रोध बह गया। इस अपनत्व में क्रोध भला टिक भी कैसे पाता। लौटी हूं, तब से न जाने कैसी रंगीनी और मादकता मेरी आंखों के आगे छाई है…।
एक ख़ूबसूरत लिफ़ाफ़े में उसे बन्द करके मैं स्वयं पोस्ट करने जाती हूं। रात में सोती हूं तो अनायास मेरी ही नज़र सूने फूलदान पर जाती है। मैं करवट बदलकर सो जाती हूं।
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