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कहानी संग्रह >> यही सच है

यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...

कानपुर

आख़िर आज निशीथ का पत्र आ गया। धड़कते दिल से मैंने उसे खोला। इतना छोटा-सा पत्र।

प्रिय दीपा,

तुम अच्छी तरह पहुंच गईं, यह जानकर प्रसन्नता हुई। तुम्हें अपनी नियुक्ति का तार तो मिल ही गया होगा। मैंने कल ही इरा जी को फ़ोन करके सूचना दे दी थी, और उन्होंने बताया था कि वे तार दे देंगी। ऑफ़िस की ओर से भी सूचना मिल जाएगी।

इस सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करना। सच, मैं बहुत खुश हूं कि तुम्हें काम मिल गया! मेहनत सफल हो गई। शेष फिर।

शुभेच्छु,

निशीथ।

बस! धीरे-धीरे पत्र के सारे शब्द आंखों के आगे लुप्त हो जाते हैं, रह जाता है केवल : ‘शेष फिर!’’

तो अभी उसके पास ‘कुछ’ लिखने को शेष है! क्यों नहीं लिख दिया उसने अभी? क्या लिखेगा वह?

‘‘दीप!’’

मैं मुड़कर दरवाज़े की ओर देखती हूं। रजनीगंधा के ढेर सारे फूल लिये मुसकराता-सा संजय खड़ा है। एक क्षण मैं संज्ञा-शून्य-सी उसे इस तरह देखती हूं, मानो पहचानने की कोशिश कर रही होऊं। वह आगे बढ़ता है, तो मेरी खोई हुई चेतना लौटती है, और विक्षिप्त-सी दौड़कर मैं उससे लिपट जाती हूं।

‘‘क्या हो गया है तुम्हें, पागल हो गई हो क्या?’’

‘‘तुम कहां चले गए थे–संजय? और मेरा स्वर टूट जाता है। अनायास ही आंखों से आंसू बह चलते हैं।

‘‘क्या हो गया? कलकत्ता का काम नहीं मिला क्या?…मारो भी गोली काम को। तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो उसके लिए?’’

पर मुझसे नहीं बोला जाता। बस, बांहों की जकड़ कसती जाती है, कसती जाती है। रजनीगन्धा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन पर छा जाती है। तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती हूं और मुझे लगता है, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था…।

और हम दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बंधे रहते हैं–चुम्बित, प्रति-चुम्बित!

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    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

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