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कहानी संग्रह >> यही सच है

यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...

कलकत्ता

अपनी मजबूरी पर खीझ-खीझ जाती हूं। आज कितना अच्छा मौक़ा था सारी बात बता देने का। पर मैं जाने कहां भटकी थी कि कुछ भी नहीं बता पाई।

शाम को मुझे निशीथ अपने साथ ‘लेक’ ले गया। पानी के किनारे हम घास पर बैठ गए। कुछ दूर पर काफ़ी भीड़-भाड़ और चहल-पहल थी, पर यह स्थान अपेक्षाकृत शांत था। सामने लेक के पानी में छोटी-छोटी लहरें उठ रही हैं। चारों ओर के वातावरण का कुछ विचित्र-सा भाव मन पर पड़ा था।

‘‘अब तो तुम यहां आ जाओगी!’’ मेरी ओर देखकर उसने कहा।

‘‘हां!’’

‘‘नौकरी के बाद क्या इरादा है?’’

मैंने देखा, उसकी आंखों में कुछ जानने की आतुरता फैलती जा रही है, शायद कुछ कहने की भी। मुझसे कुछ जानकर वह अपनी बात कहेगा।

‘‘कुछ नहीं!’’ जाने क्यों मैं यह कह गई। कोई है जो मुझे कचोटे डाल रहा है। क्यों नहीं मैं बता देती कि नौकरी के बाद मैं संजय से विवाह करूंगी, मैं संजय से प्रेम करती हूं, वह भी मुझसे प्रेम करता है! वह बहुत अच्छा है, बहुत ही! वह मुझे तुम्हारी तरह धोखा नहीं देगा।

पर मैं कुछ भी तो नहीं कह पाती। अपनी इस बेबसी पर मेरी आंखें छलछला आती हैं। मैं दूसरी ओर मुंह फेर लेती हूं।’’

‘‘तुम्हारे यहां आने से मैं बहुत खुश हूं।’’

मेरी सांस जहां-की-तहां रुक जाती है–आगे के शब्द सुनने के लिए। पर शब्द नहीं आते। बड़े कातर, करुण और याचनाभरी दृष्टि से मैं उसे देखती हूं, मानो कह रही होऊं कि तुम कह क्यों नहीं देते निशीथ, कि आज भी तुम मुझे प्यार करते हो, तुम मुझे सदा अपने पास रखना चाहते हो, जो कुछ हो गया है, उसे भूलकर तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो, कह दो, निशीथ, कह दो!…यह सुनने के लिए मेरा मन अकुला रहा है, छटपटा रहा है! मैं बुरा नहीं मानूंगी, ज़रा भी बुरा नहीं मानूंगी। मान ही कैसे सकती हूं निशीथ! इतना सब हो जाने के बाद भी शायद मैं तुम्हें प्यार करती हूं–शायद नहीं, सचमुच ही मैं तुम्हें प्यार करती हूं।

मैं जानती हूं–तुम कुछ नहीं कहोगे, सदा के ही मितभाषी जो हो। फिर भी कुछ सुनने की आतुरता को लिए मैं तुम्हारी तरफ़ देखती रहती हूं। पर तुम्हारी नज़र तो लेक के पानी पर जमी हुई है…शांत, मौन!

आत्मीयता के ये क्षण अनकहे भले ही रह जाएं, पर अनबूझे नहीं रह सकते। तुम चाहे न कहो, पर मैं जानती हूं, तुम आज भी मुझे प्यार करते हो, बहुत प्यार करते हो! मेरे कलकत्ता आ जाने के बाद इस टूटे सम्बन्ध को फिर से जोड़ने की बात ही तुम इस समय सोच रहे हो। तुम आज भी मुझे अपना ही समझते हो, तुम जानते हो, आज भी दीपा तुम्हारी है!…और मैं?

लगता है, इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस मुझमें नहीं है। मुझे डर है कि जिस आधार पर मैं तुमसे नफ़रत करती थी, उसी आधार पर कहीं मुझे अपने से नफ़रत न करनी पड़े।

लगता है, रात आधी से भी अधिक ढल गई है।

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    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

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