कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
तीन दिन साथ रहकर भी हमने उस प्रसंग को नहीं छेड़ा। शायद नौकरी की बात ही हमारे दिमाग़ों पर छाई हुई थीं। पर आज…आज अवश्य ही वह बात आएगी! न आए, यह कितना अस्वाभाविक है! पर नहीं, स्वाभाविक शायद यही है! तीन साल पहले जो अध्याय सदा के लिए बन्द हो गया, उसे उलटकर देखने का साहस शायद हम दोनों में से किसी में नहीं है। जो सम्बन्ध टूट गए, अब उन पर बात कौन करे? मैं तो कभी नहीं करूंगी, पर उसे तो करनी चाहिए। तोड़ा उसने था, बात भी वही आरम्भ करे। मैं क्या करूं, और मुझे क्या पड़ी है? मैं तो जल्दी ही संजय से विवाह करने वाली हूं। क्यों नहीं मैं इसे अभी संजय की बात बता देती? पर जाने कैसी विवशता है, जाने कैसा मोह है कि मैं मुंह नहीं खोल पाती। एकाएक मुझे लगता है जैसे उसने कुछ कहा।…
‘‘आपने कुछ कहा?’’
‘‘नहीं तो!’’
मैं खिसिया जाती हूं।
फिर वही मौन। खाने में मेरा ज़रा भी मन नहीं लग रहा है, पर यंत्रचालित-सी मैं खा रही हूं। शायद वह भी ऐसे ही खा रहा है। मुझे फिर लगता है कि उसके होंठ फड़क रहे हैं, और स्ट्रॉ पकड़े हुए उंगलियां कांप रही हैं। मैं जानती हूं, पूछना चाहता है दीपा, तुमने मुझे माफ़ तो कर दिया न?
वह पूछ ही क्यों नहीं लेता? मान लो, यदि पूछ ही ले, तो क्या मैं कह सकूंगी कि मैं तुम्हें ज़िन्दगी-भर माफ़ नहीं कर सकती, मैं तुमसे नफ़रत करती हूं, मैं तुम्हारे साथ घूम-फिर ली, या कॉफ़ी पी ली, तो यह मत समझो कि मैं तुम्हारे विश्वासघात की बात को भूल गई हूं?
और एकाएक ही पिछला सब कुछ मेरी आंखों के आगे तैरने लगता है। पर यह क्या? असह्य अपमानजनित पीड़ा, क्रोध और कटुता क्यों नहीं याद आती? मेरे सामने तो पटना में गुज़ारी सुहानी संध्याओं और चांदनी रातों के वे चित्र उभर आते हैं, जब घंटों समीप बैठे, मौनभाव से हम एक-दूसरे को निहारा करते थे। बिना स्पर्श किए भी जाने कैसी मादकता तन-मन को विभोर किए रहती थीं, जाने कैसी तन्मयता में हम डूबे रहते थे…एक विचित्र-सी, स्वप्निल दुनिया में!…मैं कुछ बोलना भी चाहती तो वह मेरे मुंह पर उंगली रखकर कहता, आत्मीयता के ये क्षण अनकहे ही रहने दो, दीप!
आज भी हम मौन ही हैं, एक-दूसरे के निकट ही हैं। क्या आज भी हम आत्मीयता के उन्हीं क्षणों में गुज़र रहे हैं? मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर चीख़ पड़ना चाहती हूं, नहीं!…नहीं!…नहीं!…पर कॉफ़ी सिप करने के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर पाती। मेरा यह विरोध हृदय की न जाने कौन-सी अतल गहराइयों में डूब जाता है!
निशीथ मुझे बिल नहीं देने देता। यह विचित्र-सी भावना मेरे मन में उठती है कि छीना-झपटी में किसी तरह मेरा हाथ उसके हाथ से छू जाए। मैं अपने स्पर्श से उसके मन के तारों को झनझना देना चाहती हूं। पर वैसा अवसर नहीं आता। बिल वही देता है, मुझसे तो विरोध भी नहीं किया जाता।
मन में प्रचंड तूफ़ान! पर फिर भी निर्विकार भाव से मैं टैक्सी में आकर बैठती हूं…फिर वही मौन, वही दूरी। पर न जाने क्या है कि मुझे लगता है कि निशीथ मेरे निकट आ गया है, बहुत ही निकट। बार-बार मेरा मन करता है कि क्यों नहीं निशीथ मेरा हाथ पकड़ लेता, क्यों नहीं मेरे कंधे पर हाथ रख देता? मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानूंगी, ज़रा भी नहीं। पर वह कुछ भी नहीं करता।
सोते समय रोज़ की तरह मैं आज भी संजय का ध्यान करते हुए ही सोना चाहती हूं, पर निशीथ है कि बार-बार संजय की आकृति को हटाकर स्वयं आ खड़ा होता है।…
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