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जीवन कथाएँ >> योगी अरविन्द

योगी अरविन्द

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :302
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2680
आईएसबीएन :9788170286554

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इस पुस्तक में रोमांचकारी जीवन के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला गया है....

Yogi Arvind

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘मेरा जीवन-चरित्र लिखना एकदम असम्भव है। उसे कौन लिख सकता है ? न केवल मेरे बारे में बल्कि किसी भी कवि, दार्शनिक अथवा योगी की जीवनी लिखने का प्रयत्न करना निर्रथक है। वे लोग अपनी बाहरी जीवनी में नहीं रहते।’’

ये वचन श्री अरविन्द के हैं। इस पर मैंने खूब मनन किया। फिर मैं उस महान दार्शनिक योगी और कवि की जीवनी क्यों लिखूँ ?
मैंने तय किया कि जीवनी नहीं लिखूँगा, मैं उपन्यास लिखूँगा। क्योंकि जीवनी जहाँ समाप्त होती है, उपन्यास वहाँ से शुरू होता है। यह एक ऐसा उपन्यास है जिसमें मैंने उन्हें जिया, अपने गहरे अन्तरमन में अनुभव किया। और तो और, मैं उनसे संवाद कर सका। इस कार्य में मुझे आन्तरिक प्रसन्नता मिली और घनीभूत रसात्मकता।

राजेन्द्र मोहन भटनागर


यह उपन्यास श्री अरविन्द की साधना का प्रेरक, और जीवन्त चित्रण है तथा उनकी अलौकिक अनुभूतियों और दिव्य जगत का अन्तर्पट खोलता है। साथ ही जीवन के अनेक प्रश्नों के मर्म पर से पर्दा हटाता है।

क्रान्तिकारी, पत्रकार, सम्पादक, प्रोफेसर, प्रिंसिपल और पाश्चात्य सभ्यता के परिवेश व संस्कार लिए श्री अरविन्द अचानक योग समर्पित क्यों और कैसे हुए ? क्या उन्हें गीता के श्री कृष्ण ने साक्षात् दर्शन दिए ? क्या वे उनकी अमृतवाणी सुन सके ? लाल बाजार से अलीपुर जेल की एकान्त कोठरी में उन्हें यह आदेश किसने दिया कि ‘प्रतीक्षा करो और देखो’। उनके तीन पागलपन क्या थे ? वे किस महती शक्ति की खोज में थे ? 24 नवम्बर, 1926 का दिन उनके जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्यों हैं ? क्यों सर स्टेफर्ड क्रिप्स की योजना की उन्होंने प्रशंसा की और उसमें अखण्ड भारत की अखण्ड ज्योति का अनुभव किया ? अनंत जिज्ञासाओं, सात्त्विक प्रेरणाओं, आत्मिक स्वप्न आकांक्षओं और सहज साधनों से भरा उनका जीवन समाज और आने वाले कल का प्रेरणास्रोत क्यों है ? उनकी उपस्थिति आज पहले से अधिक जाग्रत तथा जाज्वल्यमान क्यों है ?
श्री अरविन्द के रोमान्चकारी जीवन के सभी पक्षों पर प्रकाश डालने वाला रोचक उपन्यास

समर्पण


उन ममतामयी माँ को जो फ्रांस में जन्मी और जिन्हें तेरह वर्ष की अल्प अवस्था में आध्यात्मिक ज्योति का अनुभव होने लगा।

उन अमृतमयी माँ को जिनमें श्री अरविन्द का नीलचन्द्र उदित होकर सकल मानवता के शिव के लिए अनन्त अन्तःप्रेरणा का अक्षय स्रोत बन सका।
उन वैराग्यमयी माँ को जिनमें गहरे बैरागी रंग का लम्बा चोगा पहने वह महान् योगी, हिरण्यमय देव अवतरित हुआ, जिसे दुःख पुरुष (मैन ऑफ सॉरोज़) से भी स्मरण किया गया।

उन करुणामयी माँ को जो परस्पर विरोधी तत्त्वों में समस्वरता लाने का अनवरत अथक प्रयत्न करती रहीं।
उन साधनामयी माँ को जिनके बिना श्री अरविन्द अपने चैत्य स्वप्न को इस पावन धरती पर अंकुरति होने की कल्पना करने में ठिठके रहते।

प्रस्तावना

एक उषा-नगरी का स्वप्न

समय अनवरत, निर्बाध और निर्द्वन्द्व बहता है। इतिहास समय पर आँख रखता है। यदाकदा इतिहास का प्रारब्ध चमकता है और विलक्षण घटनाएँ सामने आती हैं। इस दृष्टि से 1893 को स्मरण किया जा सकता है। इसी समय स्वामी विवेकानन्द शिकागो और गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका जा रहे थे और श्री अरविन्द और निवेदिता भारत आ रहे थे। ये सब युवा थे। अदम्य उत्साह से भरे थे। कुछ लकीर से हटकर दिखलाना चाहते थे। रुकावटें वे मानते नहीं थे, हटना वे जानते नहीं थे, इरादों के पक्के थे, पूरे चौकन्ने थे और सकल मानव जाति के आन्तरिक शुभचिन्तक और दक्ष प्रहरी थे।

मेरा ‘विवेकानन्द’ उपन्यास छप चुका था। गाँधी जी पर मैं ‘अर्धनग्न फकीर’ दसेक वर्ष से लिख रहा हूँ। सन् 1893 की श्रृंखला में श्री अरविन्द पर मेरा अनायास ध्यान गया। उसे पढ़ा। उसके लिखे को पढ़ा। उस पर दूसरों के लिखे को पढ़ा। पढ़ता गया। ‘सावित्री’ कितने बार पढ़ा। कितने नोट्स लिए। फिर ठहरा। कारण, एक नए संसार को आत्मसात करना था। दिव्य विद्याएँ, ध्यान, योग रूपान्तरण आदि से निर्मित यह संसार अपने संसार से सर्वथा भिन्न था। उसे जानना सहज नहीं था। पर सहज था भी। यहीं से जानना और नहीं जानना समानान्तर चलते-चलते एक बिन्दु पर आकर एकाकार हो उठता है और समूचा लौकिक-अलौकिक हो जाता है।

मैंने योग शुरू किया। ध्यान लगाया। एकान्त में गया। एक बार नहीं अनेक बार क्योंकि मैं जानना चाहता था दिव्य शक्तियाँ क्या हैं ? हैं भी या नहीं भी हैं। क्या वासुदेव की अमृतवाणी किसी को सुनाई पड़ सकती है ? क्या स्वयं वसुदेव प्रकट हो सकते हैं ? क्या समूचे ब्रह्माण्ड का निर्माता कोई एक है जैसे—परमेश्वर अल्लाह, गॉड ! ब्रह्माण्ड पढ़ने के बाद शायद ही कोई इस तत्त्व को स्वीकार करने के लिए तैयार हो सके। मैं कतई तैयार नहीं था। परन्तु स्वामी विवेकानन्द के राजयोग ने, वेदों ने, पुराणों ने मेरे नकार पर प्रश्न-चिह्न जड़ दिए। एक भीतरी, बहुत भीतरी आवाज़ उठी, ‘‘सन्देह श्रृंखलाए जो इन्सान को कारागार में ला पटकती हैं और उसके अस्तित्व की जीवन्तता को तोड़ती हैं। पहले अपने पर विश्वास करो। मन में श्रद्धा-भक्ति लाओ। यह तब सम्भव होगी, जब तुम सबसे प्रेम करोगे। अपने से भी औरों से भी।’’
एक बार जब मैं पाण्डिचेरी में था तब गोकिलम्बल थिरुकामेश्वर मन्दिर का दस दिवसीय मेला चल रहा था। पन्द्रह मील लम्बा रथ और सागदरीय लहरों-सा उमड़ता जुलूस हर्षातिरेक से रंग-बिरंगे आसमान को छू रहा था। मैं यहाँ बराबर आता रहा, मेले के बाद भी। एक शाम जब मैं थिरुकामेश्वर के ध्यान में मग्न था, तब मैंने सुना, ‘‘यहाँ से तुम्हारी नयी यात्रा प्रारम्भ होती है। अपने को मुझे पर छोड़ दो। दुनियादारी से बाहर चले आओ।’’

यह अन्तर्ध्वनि वहाँ सेरेनिटी बीच, पैराजडाइज बीच, माहे बीच आदि, जहाँ मैंने सर्वाधिक एकान्त समय बिताया, पीछा करती रही। एक बार मैं वेस्ट बुलवार्ड के समानान्तर चिन्ना सुब्रय्या सड़क से गुजर रहा था कि पहले खिलन्दड़ी हवाओं का तेज़ झोंका आया और फिर एक महीन व मधुर आवाज़ ने मेरे कन्धों को छुआ। वह कह रही थी, ‘‘जिस आशा से तू यहाँ आया है, उसे अपने में बहने दे। बता जाने दे, तू धीरे-धीरे अनुभव कर सकेगा कि वही तेरी अन्तर्दृष्टि बनने लगी है। तू उसे देख-सुन पा रहा है, जिसका लक्ष्य बनाकर तू यहाँ आया है। मैं जब अब तेरे में उतर रहे हैं। अब मैं चलती हूँ, अब तू अपने नंगे पाँव चलने की भी आहट सुन सकेगा।’’ और मैं जब तब एक मधुर और धीमी आवाज़ के संकेतों को सुनने-देखने लगा। मैं उससे प्रार्थना कर उठा ‘उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि।’’ उससे आशा कर उठा कि वह मेरे सारे कूड़े-करकट को जलाकर राख कर देगी—न वासना का जादू रहेगा और न इच्छाओं की मृगतृष्णाओं का सम्मोहन।

अब मैं उस दिव्य आवाज़ को जब-तब सुनने लगा, ‘‘सत्य हो रहा है। कोई शक्ति तुम्हें और पृथ्वी को छू रही है। तुम उससे कहो कि वह तुम्हें असत्य मुक्त कराए।’’ तब मैं रय् फ्रांसना यार्तें पर स्थित उस घर में था, जहाँ कभी अरविन्द रहे थे, बाद में वहीं उनके सात मीरा आल्फासा (Mirra Alfassa) रही थीं। वहीं मीरा के दूसरे पति भी ठहरे थे—पॉल रिशार। वे (Paul Richard) फ्रांसीसी थे। रिशार उनका फ्रेंच उच्चारण है, जिसे मैंने रिचार्ड से याद किया है।

‘‘आओ, अब तुम मेरी शरण में आओ। मैं भी अधिमानस हूँ। एक सार्वभौम चेतना, जिसमें तुम्हारा लोप नहीं होगा। तुम अपनी लेखनी सँभालने में शीघ्रता मत करना। स्फुरणों की संख्या बढ़ते जाने देना....तब तक बढ़ते जाते देना जब तक कि तुम्हें दूसरी ही चेतना का अनुभव न होने लगे। हाँ, तब तुम उसकी गहरी आन्तरिक निःस्वनता में लेखनी उठाना। अब तुममें उन लहरों ने आना शुरू कर दिया है जिनकी तुम्हें प्रतीक्षा थी और जिन्हें तुम नहीं जानते थे। यह कहना ज्यादे ठीक होगा कि तुम जिन्हें जानना नहीं चाहते थे।...अब तुम देख रहे हो, पीठवाली एक कुर्सी और उस पर बैठे एक पुरुष को, जिसकी बाँहें लम्बी हैं और जिसके पाँव एक पाद पीठिका का स्पर्श कर रहे हैं। आगे से तुम यहाँ आकर इनसे मिलते रहोगे और तब तक मिलते रहोगे, जब तक तुम्हें पीठवाली कुर्सी पर बैठे भद्र पुरुष, हिरण्यमय देव के दर्शन न होने लगें।’’ मैं तब मछुओं के एक मन्दिर में नितान्त अकेला खड़ा था। वहाँ से लौटते वक्त एक वृद्ध मछुआ मिला। शायद इस मन्दिर का पुजारी था।

मैंने उससे कुछ सवाल किए, जिनके उत्तर उसने बहुत धैर्य से, गहरे सोचते हुए दिए। तब मैं समुद्र की ओर मुँह किए था और उसकी तरफ़ पीठ किए था। उसके सिर और दाढ़ी के गहरे व लम्बे बाल एकदम चाँदनी से चमक रहे थे। वह नाटे कद का, सुनहरी देह वाला इन्सान था।

उसने कहा था—कभी यह जगह पुटुचेरी से जानी जाती थी। अगस्त्य ऋषि का भव्य आश्रम यहीं था। अब ये पाण्डिचेरी से विख्यात है। तब भी यहाँ ऑरोबिल था, जिसकी अब पुनः नीव डाली गई है—एक अन्तर्राष्ट्रीय समाज। उसकी नींव डाली है मीरा अल्फासा ने जिसका छानवे वर्ष की आयु में निधन हुआ था लेकिन जो आज भी योगेश्वर श्री अरविन्द के साथ यहाँ की पावन धरा पर विद्यमान है। धोती पहनते हुए, हृदय प्रवेश से अनावृत्त वह ऋषि श्री अरविन्द ही है, जिसने स्वयं को ऑरोबन डोगोस कहा था। प्रायः नंगे पाँव चलने वाला वह दिव्य पुरुष नए अमृतमय संसार की नींव रखने वाला है।
नित्या गोलोविन, फ्रांसीसी चालीस वर्षीय युवती, आध्यात्मिक चित्रकार, जिसके लम्बे घने सुनहरे बाल थे और जो योग, ध्यान और दिव्य ध्वनियों को सान्निध्य में एक के बाद एक लैण्डस्केप बना रही थी और दिव्य ध्वनियों को सुनने, पहचानने और उनकी अर्थसत्ता के भीतर प्रवेश करने का अनुभव रखती थी। वह मुझसे गोकिललम्ब थिरुकामेश्वर के मेले में मिली थी और फ्रेंच मिश्रित हिन्दी में बात कर रही थी। पता नहीं क्यों और कैसे हमारा मिलना-जुलना लय पकड़ता गया। उसने बताया था, ‘‘एक कैनवस पर एक संपूर्ण कथा को यह तूलिका लिख देती है। इसे सब पढ़ सकते हैं। इसको अनुवाद कराने की आवश्यकता नहीं पड़ती।’’ परन्तु मेरे साथ ऐसा नहीं है, यह मैं गोलोविन से नहीं कह सका। हम सेरेनिटी बीच पर थे। वह लैण्डस्केप पूरा कर, सब सामान समेट कर मेरे पास आयी। पूछा, ‘‘बैठ सकती हूँ।...कुछ लिख रहे हो क्या ? बाधा तो नहीं हुई।’’

‘‘नहीं।’’
‘‘क्या लिखा हुआ है सुना सकते हो ?’’
‘‘हाँ, पर वह अधूरी कविता है।’’
‘‘सुनूँगी।’’ नित्या गोलोबिन ने गद्गद भाव से कहा।
‘‘तुमने समुद्री लाल चिड़िया को शान्त लहरों पर आराम करते देखा है, पंख समेटे हुए।’’ उसने सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं।’’ मैंने कहा कि मैंने देखा है। उसने जो मुझसे कहा, वही सुना रहा हूँ—

तन ने गाया/मन ने सुना/मन ने गाया/आत्मा ने सुना/आत्मा ने गाया/परमात्मा ने सुना/सब हुए आत्म-विभोर, प्रसन्न।
फिर किसी ने दोहराया/रिक्तता उतरकर चतुर्दिक छा गयी/तब परमात्मा ने उस पाषाण चुप्पी को तोड़ा/उसने गाया/आह्लाद से भरकर गाया/उम्मीद से गाया/पर किसी ने नहीं सुना/न कोई गद्गद हुआ/सन्नाटा अपनी जगह पसरा रहा।

आगे कविता नहीं थी। वह थी और उसका लैण्डस्केप था। मुझे लगा कि उसमें मेरी यह कविता किसी अन्तर्ध्यान होती नदी के बीच में खड़ी अपने गीले कुन्तलों को सुखा रही है। उसमें सुखाने वाली आकृति नहीं है सिर्फ अनुभूति है। उसने एक शब्द का उच्चारण  किया—‘‘वॉल्ट फास’। फ्रेंच वर्ड। यानी काया पलट। फिर आगे कहा, ‘‘मैं इस कविता पर एक लैण्डस्केप और बनाऊँगी, जिसमें समुद्र की निन्द्रित लहरें होंगी जैसे माँ अपने शिशु को छाती से लगाए सुला रही हो और समुद्री चिड़िया के लाल पंख शून्य बन उठ रहे हों।

इसी अन्तर्यात्रा में हमारे मध्य बुअर मालोटके, जर्मन वायलिनवादक का प्रवेश हो गया। वह वृद्ध युवक वायलिन पर समुद्र की लहरों, पक्षियों की चहचाहट, स्वरहीन मछलियों की थपथपाहट, पौधे, टहनियों और पत्तियों की सरसराहट, हवाओं की खिलखिलाहट आदि धुनों को आत्मलीन होकर, निकालता था। कभी-कभी उदास-धुनों को भी छेड़कर अकेला सुनता था।
नित्या गोलोविन, बुअर मालोटके और मैं अपनी दुनिया में डूबते-तैरते थे। उन दोनों ने श्री अरविन्द पर लिखे इस उपन्यास के लगभग दो सौ पृष्ठ सुने। उन पर परस्पर चर्चा की। वे इसका क्रमशः फ्रेंच और जर्मन भाषा में अनुवाद करेंगे अथवा करवाएंगे अतः वे अपने साथ उन पृष्ठों की फोटोस्टेट प्रति ले गए।
वे दोनों वहीं रहे। मुझे उनसे बिछड़ना पड़ा। यह बिछड़न अत्यन्त संवेदनशील और आत्मीयता से भरा था। देर तक हम आमने-सामने गुमसुम बैठे रहे। नित्या गोलोविन ने एक पेण्टिंग मुझे दी और मैंने उन दोनों को अपनी उस कविता की हस्तलिखित एक प्रति भेंट की जिसमें मेरे साथ लाल पंखों वाली समुद्री चिड़िया थी। बुअर मालोटके ने वायलिन पर एक धुन बजायी और मैं चल पड़ा।

मैं श्री अरविन्द को अपने में अनुभव करने लगा था और सोचने लगा था कि मुझमें उनके अमूर्त और कुछ-कुछ मूर्त चित्र घोंसला बनाने लगे हैं। यदाकदा मैंने उनकी बहुत देर तक धीमी-धीमी आवाज़ सुनी है। कभी मैंने सुना है, ‘‘कला के पुजारी तर्क की दुनिया से बहुत आगे जा पहुँचते हैं, जहाँ से लौटना उनके वश में नहीं होता है। जैसे मैं बड़ौदा छोड़कर कुछ साथियों के साथ यहाँ आ गया। फिर कभी यहाँ से लौटना नहीं हुआ। इसके लिए तर्क मत खोजो। कुछ खोजना है तो अपनी आत्मा को निरन्तर तलाशते रहो। उसके बोलने तक धैर्य और संयम से प्रतीक्षा करो। वह बोलेगी। अवश्य बोलेगी। मनुष्य का जन्म उसके लिए ही हुआ है। मनुष्य में उसकी सम्भावनाओं ने घोंसला बनाया हुआ है। सद्यः जन्मे पक्षियों को उससे बाहर आकर अपने पंख फड़फड़ाने की जादूगरी की प्रतीक्षा करो। वे अपने नन्हें-नन्हें पंखो में चुटकी भर नव स्फूर्त महकदार पवन को भरकर और आह्लादित होकर आसमान नापने चल देंगे। तुम्हें उनके साथ चलने के लिए हर समय तैयार रहना है।...वह समय किसी पल भी तुम्हारी जिन्दगी में आ सकता है। तुम कभी उसके साथ आसमान नापने के लिए उड़ सकते हो और वह भी बिना पंखों के परन्तु पंखों के गहरे आत्मविश्वास के साथ। तब तुम अपनी जिज्ञासाओं के आसमान में तैर रहे होगे और अपने को सुन रहे होगे। वहाँ भी मैं हो सकता हूँ। वहाँ तुम्हें सुनने को विरल परन्तु आनन्दमय अनुभव हो सकता है और वही तुम्हारे लिखने का साध्य भी बन सकता है।’’

अचरज ऐसा हुआ। मैं उड़ने लगा। महकदार स्फूर्त पवन अपने अदृश्य पंखों में भरकर मैं अपनी जिज्ञासाओं के साथ सैर को अकेले ही निकल पड़ा। क्या आप भी ऐसे अधिक अनुभव की सैर पर निकलने का मन बना रहे हैं तो आइए यह कृति आपके भी अदृश्य पंखों में परिमल पवन के स्फूर्त मन को उड़ेलने के लिए तत्पर है।


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