नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
हानूश : (हताश-सा हो जाता है) मैं ताले तो अब भी बनाता हूँ।
पादरी : मैं चाहता हूँ कि तुम केवल ताले ही बनाओ। कम-से-कम कुछ मुद्दत के लिए।
(थोड़ा चुप रहने के बाद) अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या
है! मेरे से तो पाँच बरस छोटे हो। और फिर, मेरा असर-रसूख इस शहर में, भगवान की
दया से, अच्छा है। कहोगे तो चौक में तुम्हें दुकान ले दूंगा। दुकान पर बैठो और
ताले बनाओ और बेचो। अगर ताले नहीं बनाना चाहते तो गिरजे में कहीं नौकर करवा
दूंगा, चैन से पड़े रहना। गिरजे का घंटा बजाया करना। मामूली-सा काम है। लोग यह
तो कहेंगे कि एक भाई छोटा लाट पादरी है और दूसरा घड़ियाल की रस्सी खींचता है,
मगर कहने दो, जो कहता है।
हानूश : क्या माली इमदाद और कहीं से नहीं मिल सकती? यह काम बीच में कैसे छोड़
दूँ भाईजान?
पादरी : तुम अपनी स्थिति को पहचानो, हानूश! कात्या वक़्त से पहले बूढ़ी हो चली
है। तुम अपना एक बेटा खो बैठे हो। कात्या पर सारे घर का बोझ है। तुम्हारे ताले
अब बिकते नहीं, दूसरे कुफ़्लसाज़ बाज़ार में आ गए हैं। उधर कोई तुम्हें मदद
देने के लिए तैयार नहीं और यह काम माली इमदाद के बिना पूरा हो नहीं सकता। इस पर
तेरह साल का लम्बा अर्सा बीत चुका है और तुम्हारा कुछ बना-बनाया नहीं।
हानूश : यह तो सही है, भाई साहिब!
पादरी : मैं यह नहीं कहता कि सदा के लिए छोड़ दो। जब तुम्हारी माली हालत सुधर
जाए तो बेशक अपना शौक़ पूरा करते रहना। तब घड़ी बने या नहीं बने, तुम्हें घर की
चिन्ता तो नहीं होगी। [देर तक सोचता रहता है।]
पादरी : इसमें नुक़सान नहीं, तुम्हारा फ़ायदा है। घड़ी साल-दो साल बाद भी बन
सकती है। और अगर न भी बने तो दुनिया का कारोबार बन्द नहीं हो जाएगा।
हानूश : मगर आज ऐसी क्या बात हुई है कि आपका रवैया बिलकुल बदल गया है? क्या
इसलिए कि गिरजेवालों ने मदद देने से इनकार कर दिया है? मदद तो गिरजेवालों ने एक
बार पहले भी देना बन्द कर दिया था, पर आपने मुझे इस काम को बन्द कर देने को
नहीं कहा था?
पादरी : न तुम्हारे घर में आज आग जली है, न खाना बन पाया है। कितने दिन तक तुम
इस तरह काम कर सकते हो? तुम इस तरह से चलते रहे तो कुछ भी तुम्हारे हाथ नहीं
आएगा; बल्कि बिलकुल टूट जाओगे।
हानूश : मैं बाज़ार में तालों के बारे में ही बात करने जा रहा था जब रास्ते में
बूढ़ा लोहार मिल गया और नई कमानी दिखाने अपने साथ ले गया। आप चिन्ता नहीं कीजिए
भाई साहिब, तालों की बिक्री का इन्तज़ाम मैं कर लूँगा। मैं आज ही कुछ ताले बेच
आऊँगा। जब तक बिकेंगे नहीं, घर नहीं लौटूंगा। पर आप कहीं से घड़ी के लिए माली
इमदाद का इन्तज़ाम ज़रूर करवा दीजिए। मैं यहाँ तक पहुँचकर इस काम को कैसे छोड़
दूँ?
पादरी : यह आज की बात नहीं है, हानूश! यह हर रोज़ की ज़रूरत है।
हानूश : मैं सब जानता हूँ भाई साहिब । कात्या और घर के बारे में अपने फर्ज़ को
मैं भूला नहीं हूँ।
पादरी : तुम्हारे मन पर सारा वक़्त घड़ी छाई रहती है। तुम्हारा मन उस तरफ़ से
हटेगा तो तुम कुछ और सोच सकोगे।
हानूश : (हँसकर) आपकी इजाज़त हो तो मैं अपनी इस नई कमानी की जाँच कर लूँ। अगर
काम कुछ बनता नज़र आया तो ठीक, वरना आपकी दया से, सारा सामान उठाकर खिड़की से
बाहर फेंक दूंगा।
पादरी : मैं कई बार सोचता हूँ हानूश, इनसान की ज़िन्दगी का मकसद क्या है!
हानूश : क्यों, क्या आज मुझसे कोई और भी भूल भी हो गई है? जब कभी मुझसे भूल हो
जाए तो आप हमेशा इसी ढंग से बात शुरू करते हैं। क्या कात्या ने कुछ कहा है?
पादरी : कात्या क्या कहेगी!
हानूश : यह आपका ढंग है, भाई साहिब-उसे भी दिलासा देंगे, मुझे भी दिलासा देंगे।
कात्या से कहेंगे-हौसला रख। मुझे कहेंगे-मन में स्थिरता होनी चाहिए।
पादरी : अगर मेरे बारे में तू ऐसा ही सोचता है तो मैं आइन्दा कुछ भी नहीं
कहूँगा। तुम जानो और तुम्हारा काम जाने।
हानूश : नहीं, भाई साहिब, अपना-अपना स्वभाव होता है। आप अशान्ति नहीं चाहते-न
घर में, न बाहर। आप स्थिरता चाहते हैं। पर स्थिरता तो भाई साहिब, पोखर के पानी
में ही होती है, और कहीं तो मैंने स्थिरता नहीं देखी।
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