नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
पादरी : तुम बहुत ज़्यादा उत्तेजित रहते हो, यह ठीक नहीं। आदमी के मन में
स्थिरता होनी चाहिए।
हानूश : मैं क्या करूँ भाईजान, यह काम ही ऐसा है...।
पादरी : मन शान्त रहे तो इनसान बहुत-कुछ सोच सकता है।
हानूश : आप ठीक कहते हैं, भाईजान!
पादरी : मैं तुम्हें अपनी कहूँ। एक बार गिरजे में मुझे छोटा लाट पादरी बनाने की
बात चली। जब इसकी ख़बर मुझे मिली तो मैं उत्तेजित हो उठा। मेरी तो नींद हराम हो
गई। सारा वक़्त आँखों के सामने छोटा लाट पादरी ही घूमने लगा-कब मैं छोटा लाट
पादरी बनूँगा और नया लबादा पहनूँगा और चाँदी का झिलमिलाता सलीब छाती पर लटकता
होगा? रात को सो ही नहीं पाऊँ। कभी एक बड़े पादरी से मिलने जाऊँ, कभी दूसरे से।
हानूश : (हँसकर) क्या पादरी लोग भी रात को सो नहीं पाते?
पादरी : सुनो, सुनो, यही तो बता रहा हूँ। फिर एक दिन मुझे पता चला कि मेरी जगह
किसी दूसरे को छोटा लाट पादरी बना दिया गया है। वह उम्र में आठ साल मुझसे छोटा
था। मैं और भी ज़्यादा बेचैन हो उठा। जी चाहता था कि पादरी का बाना उतारकर
जंगलों में कहीं निकल जाऊँ। पर एक दिन ऐसे ही चलते हुए मुझे अन्दर से आवाज़ आई,
'ठहर जाओ!' मैं ठहर गया। फिर आवाज़ आई, 'तू नगर के गिरजे का पादरी है-न इससे
कम, न इससे ज़्यादा। तेरा काम प्रवचन देना और प्रार्थना करना है-न इससे कम, न
इससे ज़्यादा।' फ़ौरन मेरे मन में स्थिरता आ गई। सारी बेचैनी दूर हो गई।
हानूश : आप क्या कहना चाहते हैं? मुझे कौन-सी नसीहत करना चाहते हैं, भाईजान?
पादरी : (उँगली उठाकर उसे चुप रहने का इशारा करते हुए)
उस दिन से मेरे मन में शान्ति आ गई है।...और जिस दिन मेरे मन में शान्ति आई,
उसी दिन से छोटा लाट पादरी बनने की मेरी सम्भावनाएँ भी बढ़ गई हैं।
हानूश : जी!
पादरी : आम तौर पर लोग यही ग़लती करते हैं कि लाट पादरी बनने से पहले ही
मन-ही-मन अपने को लाट पादरी समझने लगते हैं, लाट पादरी का लाल लबादा मन-ही-मन
पहले से पहन लेते हैं, पर जब उन्हें असलियत का एहसास होता है तो अन्दर-ही-अन्दर
छटपटाने लगते हैं। मैं कभी ख़्वाब नहीं देखता, सदा अपने को छोटा मानता हूँ,
इसीलिए बड़े-से-बड़े ओहदे को हथिया भी लेता हूँ। मेरी क्या बिसात थी, जब मैं
पादरी बना था? (सलीब का चिह्न छाती पर बनाते हुए) और अब भगवान की दया से...।
हानूश : आप क्या चाहते हैं, मैं क्या करूँ?
पादरी : तुम घड़ी बनाने का ख़याल छोड़ दो। तुम अपने को घड़ीसाज़ मानने लगे हो,
वैसे ही जैसे मैं अपने को लाट पादरी समझने लगा था। तुम कुफ़्लसाज़ हो और अपने
को कुफ़्लसाज़ ही समझो। और तुम्हारा काम कुफ़्ल बनाना है-न इससे कम, न इससे
ज़्यादा!
हानूश : यह क्या कह रहे हैं, भाईजान? मेरी तेरह साल की मेहनत, और अब इसे छोड़
दूँ?
पादरी : तुमने ज़िन्दगी के तेरह साल इसमें खोए हैं, इसीलिए कह रहा हूँ कि इस
काम में से निकल आओ। अभी भी वक़्त है। यह काम तुम्हारे बस का नहीं है।
हानूश : मैं घड़ीसाज़ बनने के सपने तो नहीं देखता बड़े भाई, मैं तो घड़ी बना
रहा हूँ। वह कैसे बने, इसी के बारे में सोचता रहता हूँ। और कोई बात तो मेरे
जेहन में नहीं आती। (हँसकर) आप क्या कह रहे हैं? आप तो हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया
करते थे, आज क्या बात हो गई है?
पादरी : ठीक है, मैं तुम्हारी हिम्मत बँधाता रहा हूँ। पहले मैं भी सोचता था कि
घड़ी बन जाएगी तो अपने ही गिरजे पर इसे लगवा दूंगा। मैंने लाट पादरी से कह भी
दिया था कि घड़ी बन रही है जो भगवान के घर की शोभा बढ़ाएगी। लेकिन अब ज़ाहिर हो
गया है कि यह ख़ामख़याली थी, इसे छोड़ देना ही उचित था। मैं स्वयं एक सपना
देखने लगा था।
हानूश : आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं, बड़े भाई। साफ़-साफ़ बताइए, बात क्या है?
आपने अभी-अभी कहा था कि मेरी दरख्वास्त नामंजूर हो गई है। क्या सचमुच वह मेरी
इमदाद नहीं करेंगे? क्या इसके अलावा और भी कोई बात है?
पादरी : गिरजे के अधिकारियों ने माली इमदाद देने से इनकार कर दिया है, यह ठीक
है। लेकिन मुख्य बात यह नहीं है। मुख्य बात है कि तुम अपने पेशे पर लौट आओ।
तुम्हारा काम ताले बनाना है, घड़ी बनाना नहीं है।
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