नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
पादरी : क्या दूसरे को दुख देकर ही तुम्हारा जीवन सार्थक हो पाएगा? जब दुनिया
में घड़ी नहीं थी तो भी दुनिया का व्यापार चलता ही था न? अब तेरी घड़ी बजेगी
तभी क्या दुनिया के लोग जागेंगे? अभी तक क्या दुनिया सो रही थी?
हानूश : आप मेरे काम का मज़ाक बेशक उड़ाएँ, आप मुझसे बड़े हैं, मुझ पर आपके
बड़े एहसान हैं...।
पादरी : मैं तुम्हारे काम का मज़ाक नहीं उड़ा रहा, मैं तो इनसान की कमजोरियों
की बात कर रहा हूँ। इनसान अपने काम का बहुत ऊँचा मूल्य आँकता फिरता है। कहाँ गए
रोम के महल और किले? जब वे बनाए गए थे तो इनसान समझता था कि उसने दुनिया बदल दी
है।
हानूश : (हँसकर) मैंने कब कहा है कि घड़ी बनाकर मैं दुनिया बदल दूंगा? भाई
साहिब, जब भी आप मेरे साथ बात करते हैं तो मेरे अन्दर भय-सा छा जाता है। आप
बड़े समझदार हैं, दुनिया देख चुके हैं, पर आपसे मिलने के बाद दिल दहल-सा जाता
है। ऐसा क्यों होता है?
पादरी : हानूश, मैंने डर-डरकर ही जीवन बिताया है। और तुम देख रहे हो कि मेरा
जीवन बुरे ढंग से नहीं बीता है। आज तीन गिरजे मेरे नीचे हैं और उम्मीद है,
जल्दी ही मैं लाट पादरी भी बन जाऊँगा।
हानूश : ठीक है, भाई साहिब!
पादरी : इस वक़्त तो तुम्हें यह छोड़ना ही पड़ेगा। इसी में तुम्हारी और
तुम्हारे परिवार की भलाई है।
[लोहार बाहर से बोलता आ रहा है :]
लोहार : लो हानूश, मैं तुम्हारी तार ले आया। लो, यह तार मिली है। ठीक है?
[कात्या पिछले दरवाज़े में आकर खड़ी हो जाती है। पादरी भाई बाएँ हाथ, जबकि
हानूश सिर झुकाए कमरे के बीचोबीच खड़ा है।
यही तार दरकार थी न? आओ, लगाओ। देखते हैं, यह तरीक़ा बेहतर है या नहीं। अरे,
क्यों, क्या बात है?
हानूश : कुछ नहीं, बड़े मियाँ।
लोहार : अभी-अभी तो बड़ा चहक रहे थे। यह देख तार। ठीक है न? बोलता क्यों नहीं?
मैं बूढ़ा आदमी भागता हुआ इसे लेकर आया हूँ, मेरी साँस फूल रही है, और इधर तू
बुत बना खड़ा है।
पादरी : मैं चलूँगा, हानूश, तुम सोच-विचार लो, मैं दो-एक दिन में तुमसे
मिलूँगा। अच्छा, बड़े मियाँ। ख़ुदा हाफ़िज़, कात्या।
लोहार : (फिर से अपनी बात पर लौटते हुए।) बोलता क्यों नहीं? क्या घड़ी को आज फिर साँप सूंघ गया है?
हानूश : नहीं बड़े मियाँ, मुझे साँप सूंघ गया है। अब इस काम से कुछ लेना-देना नहीं है।
लोहार : आगे बोल कि यह काम मेरे बस का नहीं, मैं इसे छोड़ रहा हूँ। यही न? (दार्शनिक अन्दाज़ में) पिछले तेरह बरस में हर तीसरे-चौथे महीने यह फ़िकरा मैं तेरे मुँह से सुन चुका हूँ कि इस काम से तुझे कुछ लेना-देना नहीं है।
हानूश : यह आख़िरी बार सुन रहे हैं, बड़े मियाँ!
लोहार : अरे, मैं तुमसे अपने पैसे माँगने तो नहीं आया। रोता क्यों है?
हानूश : वह तो आपकी दया है। आपका एहसान तो मैं कभी भुला ही नहीं सकता।
लोहार : यह फ़िकरा भी मैं सौ बार सुन चुका हूँ। सुन हानूश, तू यह काम छोड़ नहीं सकता। यह झिक-झिक भी सदा चलती रहेगी। सोमवार को कहोगे-घड़ी बनाना छोड़ या, मंगल को भागे-भागे मेरे पास आओगे-कमानी में कितना लोहा, कितना पीतल लगेगा।
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