कविता संग्रह >> परशुराम की प्रतीक्षा परशुराम की प्रतीक्षारामधारी सिंह दिनकर
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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...
खण्ड चार
कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं ;
है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।
पर, हाँ वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,
देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है;
यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है,
बदले में कोई दूब हमें देती है।
पर, हमने तो सींचा है उसे लहू से,
चढ़ती उमंग की कलियों की खुशबू से।
क्या यह अपूर्व बलिदान पचा वह लेगी?
उद्दाम राष्ट्र क्या हमें नहीं वह देगी?
ना, यह अकाण्ड दुष्काण्ड नहीं होने का,
यह जगा देश अब और नहीं सोने का।
जब तक भीतर की गाँस नहीं कढ़ती है,
श्री नहीं पुनः भारत-मुख पर चढ़ती है,
कैसे स्वदेश की रूह चैन पायेगी?
किस नर-नारी को भला नींद आयेगी?
कुछ सोच रहा है समय राह में थम कर,
है ठहर गया सहसा इतिहास सहम कर।
सदियों में शिव का अचल ध्यान होता है,
तोपों के भीतर से भविष्य बोला है।
चोटें पड़ती यदि रहीं, शिला टूटेगी,
भारत में कोई नयी धार फूटेगी।
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