कविता संग्रह >> संचयिता संचयितारामधारी सिंह दिनकर
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प्रस्तुत है उत्तरी शाश्वत रचनाओं की अन्यतम निधि...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सबसे बड़ा पारखी है समय और वह किसी का लिहाज नहीं करता। जो रचना काल की
कसौटी पर खरी उतरती है, उसकी सार्थकता एवं चिर नवीनता के सम्मुख
प्रश्नचिन्ह्र लगाना असम्भव है। दिनकर जी की एक नहीं अनेक रचनाएँ ऐसी हैं
जिनका महत्व तो अक्षुण्ण है ही, उनकी प्रासंगिकता भी न्यूयाधिक पूर्ववत्
ही है। आज की पीढ़ी का रचनाकार भी दिनकर-साहित्य से अपने को उसी प्रकार
जुड़ा हुआ अनुभव करता है जिस प्रकार उसके समकालीनों ने किया। ऐसे ही समय
की कसौटी पर खरी उतरी शाश्वत रचनाओं की अन्यतम निधि है-संचयिता। और यह
निधि दिनकर जी ने भारतीय ज्ञानपीठ के आग्रह पर तब संजोयी थी जब उन्हें
उनकी अमर काव्यकृति उर्वशी के लिए 1972 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित
किया गया था।
इस संकलन में दिनकर जी के प्रखर व्यक्तित्व के साथ उनकी व्यक्तिगत रुचि भी झलकती है। इन रचनाओं को लेकर वे देश के कोने-कोने में गये और अपनी ओजस्वी वाणी से काव्य-प्रेमियों को कृतार्थ करते रहे। उनके काव्य-प्रेमियों को आज भी देश के लाखों काव्य-प्रेमियों के मन में वैसी की वैसी ही बनी हुई है।
परवर्ती पीढ़ियों पर दिनकर-काव्य की छाप निरन्तर पड़ती रहती है। छायावादोत्तर हिन्दी काव्य को समझने में ही नहीं वरन् आज के साहित्य के मर्म तक पहुँचने में भी काव्य के हर विद्यार्थी के लिए दिनकर-काव्य का गम्भीर अनुशीलन अनिवार्य है। पुस्तक के आरम्भ में ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अवसर पर दिनकर जी का दिया हुआ चिरस्मरणीय भाषण के जुड़ जाने से इस कृति की उपयोगिता और भी बढ़ गयी है।
इस संकलन में दिनकर जी के प्रखर व्यक्तित्व के साथ उनकी व्यक्तिगत रुचि भी झलकती है। इन रचनाओं को लेकर वे देश के कोने-कोने में गये और अपनी ओजस्वी वाणी से काव्य-प्रेमियों को कृतार्थ करते रहे। उनके काव्य-प्रेमियों को आज भी देश के लाखों काव्य-प्रेमियों के मन में वैसी की वैसी ही बनी हुई है।
परवर्ती पीढ़ियों पर दिनकर-काव्य की छाप निरन्तर पड़ती रहती है। छायावादोत्तर हिन्दी काव्य को समझने में ही नहीं वरन् आज के साहित्य के मर्म तक पहुँचने में भी काव्य के हर विद्यार्थी के लिए दिनकर-काव्य का गम्भीर अनुशीलन अनिवार्य है। पुस्तक के आरम्भ में ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अवसर पर दिनकर जी का दिया हुआ चिरस्मरणीय भाषण के जुड़ जाने से इस कृति की उपयोगिता और भी बढ़ गयी है।
प्रस्तुति
(प्रथम संस्करण से)
भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा प्रयत्न किया है कि पुरस्कार-समर्पण समारोह के
अवसर पर पुरस्कृत कृति का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जाए, या यदि कृति
हिन्दी की है तो पुरस्कृत साहित्यकार के रचना-संसार की एक झांकी प्रस्तुत
करने के लिए उसकी कृतियों से सृजेता द्वारा स्वयं चुनी गयी रचनाओं का
संकलन प्रकाशित किया जाए।
बाँसुरी (शंकर कुरूप), गणदेवता (ताराशंकर वद्योपाध्याय), (श्रीरामायण-दर्शनम् (अशतः) (के.पी..पुट्टप्पा) एवं निशीथ (उमाशंकर जोशी), चिदम्बरा संचयन (विविध भारतीय भाषाओं में अनूदित—पन्त), बज़्में ज़िन्दगी रंगे शाइरी (फ़िराक़), स्मृति सत्ता भविष्यत तथा अन्य कविताएँ (विष्णु दे)-ये सब कृतियाँ समारोह-आयोजन के अंग बनकर प्रकाशित हुई हैं। निःसंदेह हिन्दी साहित्य इन प्रकाशनों से समृद्ध हुआ है और भारतीय ज्ञानपीठ ने इनके माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण आनुषंगिक उपलब्धि पायी है।
1 दिसम्बर 1973 को आयोजित पुरस्कार समारोह के लिए जब पुरस्कृत कृति ‘उर्वशी’ के रचयिता दिनकर जी के कृतित्व के प्रकाशन का प्रश्न आया तो हमने दिनकरजी से अनुरोध किया कि इस अवसर के लिए वह एक ऐसा काव्य-संकलन तैयार कर दें जो उनके ‘सर्वश्रेष्ठ’ का प्रतिनिधित्व करता हो, और इस रूप में जिसका चुनाव मात्र उन्हीं के द्वारा हुआ हो। दिनकर जी ने हमारे अनुरोध को मान दिया, और अब यह संचयिता’ इस रूप में आपके हाथ में है। इस संकलन का प्रकाशनोत्शव भी पुरस्कार-समारोह के मंच से हुआ है, अतः यह कृति अपने आप में दिनकर जी के जीवन के कृतित्व के इतिहास की अविस्मरणीय कड़ी बन गयी है।
अब तक प्रकाशित लगभग तीस काव्य-कृतियों, संकलनों आदि में से श्रेष्ठतम चुनना बहुत कठिन है, किसी के लिए भी, स्वयं कवि के लिए तो असम्भव ही है क्योंकि प्रत्येक रचना उसकी आत्मजा है; वह किसे कहे कि यह वरणीय नहीं। दिनकरजी के लिए समस्या कितनी भी कठिन क्यों न रही हो, हमें इसे ‘श्रेष्ठतम’ कहने में संकोच इसलिए नहीं कि चक्रवाल (1956), कविश्री (1957) और लोकप्रिय दिनकर (1960) जैसे संकलन पहले प्रकाशित हो चुके हैं, और दिनकरजी ने अपनी कविता के मान-प्रतिमान निश्चित करने में प्रत्येक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाशकीय सहयोग दिया होगा। ‘संचयिता’ कृति की विशेषता यह है कि यह न केवल पिछले एक दशक की कविताओं की श्रेष्ता को समाहित कर रही है, प्रत्युत श्रेष्ठों’ के संकलनों में से ‘श्रेष्ठतर’ का यह संकलन है।
दिनकर का काव्य विस्तार की दृष्टि से कालावधि को परिमापित करने की दृष्टि से, भाषागत, विषयगत प्रयोगों की दृष्टि से, गुणगत और प्रकृतिगत विविधता की दृष्टि से, तथा सर्वोपरि, साहित्यिक प्रभाव की दृष्टि से अदिवितीय है, अएद्भुत है, महत् है। पुरस्कार समारोह में समर्पित प्रशस्ति का साध्य इस प्रकार है :
‘‘श्री दिनकर ने छायावाद की अस्पष्ट और वायवीय विषय-वस्तु तथा रूपों विधानोंवाली काव्य-पर्मपरा से अलग होकर आधुनिक हिन्दी कविता को एक ऐसी ओजमयी ऋतु भाषा-शैली दी जो पुनरुत्थानसील राष्ट्रीयता की अदम्य प्रेरणाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ हुई। वे हिन्दी साहित्य में एक अपूर्व घटना-तथ्य जैसे बनकतर आये, क्योंकि जिस सशक्तता से उनकी लेखनी ललकार और विद्रोह का झण्डा ऊँचा कर सकी, उसी से सुशान्त चिन्तन और गीतात्मक भाषा-शैली में मानव-मन के कोमल भावों को प्रकट करती आयी।
उनके काव्य में इन दोनों प्रवृत्तियों का बार-बार बड़ा मुग्धकर पुनरावर्तन होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अचूक आह्वान-शक्ति और भावात्मक प्रकृति दोनों के स्वभाव के कारण उनके काव्य को ‘दहकते अंगारों पर इन्द्रधनुषों की क्रीड़ा’ से उपमित किया गया है।
पुरस्कतार-जयी काव्य-नाटक ‘उर्वशी’ फल-सिद्धि है कवि की प्रतिभा और एक चिन्तक के प्रेमभाव के अर्थ, उद्देश्य और विस्तारों की अन्वेषणा की; मानव की ऐतिन्द्रिय जगत्से होते चरम परम की शोध की। तीस काव्यकृतियों और साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत ‘संस्कृति के चार अध्याय’ सहित, निबन्ध, कहानी, स्मरण-दैनिकी, समीक्षा-इतिहास आति विभिन्न साहित्य-विधानों की पचीस प्रांजल गद्य कृतियों के प्रातिभ प्रणेता दिनकरी इसी प्रकार देरशन और विश्वकाव्य तकी गहराइयों में पैठते हुए साहित्यिक उपलब्धि के उत्तरोत्तर भव्य शिखरों पहुँचने की अविराम आशाएँ बँधाये हुँ हैं।’’
दिनकर की कविता का विकास आदि से अन्त तक जूझने की कथा है—द्वन्द्व जो प्रबुद्ध-चेता कवि को चिन्तन और भावना के क्षेत्रों में, प्रत्येक स्तर पर घरते हैं, भरमाते हैं, विकल करते हैं और चुनौती देकर उसे साधना एवं समाधान के प्रगति-पथ पर ले चलते हैं। छायावाद की अभिजात्य शैली और रहस्यात्मक कथ्य से द्वन्द्व ‘रेणुका’ (1935) के सहज रचना-शिल्प और जन सुबोध, सामयिक कथ्य का; ‘हुंकार’ (1938) के क्रन्तिकारी आह्वान से द्वन्द्व ‘कुरुक्षेत्र’ (1946) का; और स्वयं ‘कुरुक्षेत्र’ है एक सर्वाधिक समर्ष अभिव्यक्ति उस द्वन्द्व की जो युद्ध और शान्ति, हिंसा और अहिंसा, प्रवृत्ति औनिवृत्ति की जीवन-पद्धति तथा ज्ञान और आत्मज्ञान की परिणति में निहित है। बीच में ‘द्वन्द्वगीत’ (1940) तो अभिधा में ही स्पष्ट है। ‘रश्मिरथी’ (1952) के प्रतिपक्ष में आ खड़ी होती है ‘उर्वशी’ (1961)—‘उर्वशी जो अप्सरा और लक्ष्मी, द्विधाग्रस्त मानव द्विधामुक्त देवता, एवं काम और अध्यात्म के द्वन्द्वों की गाथा है। रहट के घंटों की माला के उतार-चढ़ाव की भाँति ‘चक्रनेमि-क्रमेण’ ‘उर्वशी’ की प्रगतिगामी दिशा की प्रभावकारी मुद्रा ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ (1963) में परिलक्षित है।
कड़ी-कड़ी मिलकर जब द्वन्द्वों की श्रृंखला एक तरह से पूरी हो गयी तो जैसे आगे चरण-निक्षेप कठिन हो गए। या, आगे की यात्रा के लिए शक्ति-संचय का दशक जैसे जरूरी हो गया। अर्थात् रश्मिरथी से उर्वशी तक आने में एक दशक लगा। बीच के व्यवधान को विश्रान्ति की कविताओं ने पाटाश ‘दिल्ली’ और ‘नीम के पत्ते’ (1954), ‘सूरज का ब्याह’ और ‘नीलकुसुम’ (1955), और ‘नये सुभाषित (1957) ने ‘परशुराम करी प्रतीक्षा’ के बाद ‘दिनकर के गीत’ (1973) तक का एक दशक और इसी प्रकार विश्रान्ति की कविताओं का काल है—‘कोला और कविता’, ‘मृत्ति तिलक’, ‘दिनकर की सूक्तिया’ और ‘आत्मा की आँखें’ (सब 1964 में प्रकाशित)।
इन दो दशकों का तथाकथित, तथा-परिलक्षित, ‘विश्रान्ति-काल’, दिनकर के लिए घोर आन्तरिक संघर्षों का काल रहा है—संघर्षो, जिसने दिनकर के बाहर के प्रसार के अन्तर्मुखी किया, जिसने उन्हें नयी उपलब्धियों से मण्डित किया—विश्व कविता का अध्ययन और प्रभाव, ‘नीलकुसुम’ (1955), ‘सीपी और शंख’ (1957), ‘काव्य की भूमिका’ (1958), ‘शुद्ध कविता की खोज’ (1966), दार्शनिक ग्रन्तों का मनन, इतिहास का अध्ययन, राष्ट्र की आत्मा को परिभाषित करने का प्रयात्न ‘संस्कृति के चार अध्याय’ (1956), ‘धर्म , नैतिकता और विज्ञान’ (1959), इन अन्तरालों में दिनकर के चिन्तन की गरिमा गद्य के निधार में व्यक्त हुई।
इन दो दशकों की विराम-कथा में जो बात छूट गयी, वही शायद अब सबसे महत्त्वपूर्ण है—हारे के हरिनाम’ (1970)। क्या आन्तरिक संघर्ष ने दिनकर को तोड़ दिया ? या, जीने की साधना का यह प्रवेश-द्वार है ? शायद दोनों ही। क्योंकि द्वन्द्व दिनकर के जीवन के श्वास-प्रश्वास हैं।
दिनकर के काव्य के उतार-चढ़ाव के प्रत्येक चरण को उनके जीवन के विकास-क्रम, या कहें घटना-क्रम के साथ जोड़ा जा सकता है, जोड़ा जाना चाहिए। जन्म-भूमि सिमरिया (मुँगेर, बिहार) के बाँस-वन, प्राकृतिक सुषमा, और साथ-साथ गाँववालों के जीवन का विकराल दैन्य, अशिक्षा और मरण की देहरी पर नवजन्म के गीत। इतिहास में आनर्स करने के बाद का आकिंचन अध्यापक, फिर एक राष्ट्रधर्मी, स्वाभिमानी सब रजिस्ट्रार जिसका सेवा के प्रथम चार वर्षों में ब्रिटश शासन ने उसे 22 बार लट्रांसफर किया कि ‘हिमालय’ और ‘हुकांर’ का यह कवि नौकरी छोड़ दे। देश की स्वतंत्रता के उपरांत पटना में छह वर्ष तक सरकारी प्रचार –विभाग का अधिकारी फिर कॉलेज में हिन्दी विभाग का अध्यक्ष-प्राध्यापक; विश्विद्यालय का कुलपति। बीच-बीच में अपने पुत्रों के प्रकाशनगृह के विए विश्रान्ति काल की इन कविताओं के योगदान की सम्भावना बनाते गये। दिनकर ने अपने कार्यकाल के 38 वर्षों में लगभग 19 वर्ष गाँवों में और 19 वर्ष दिल्ली मनें बिता.ये हैं। संसद् सदस्य के रूप में 12 वर्ष, और हिन्दी सलाहकार अधिकारी के रूप में 7 वर्ष। उनके अनुभवों की व्यापकता और गहनता के क्या कहने को संसद् सदस्य की हैसियत से दिल्ली में रहने के गौरव ने नये द्वन्द्वों को जन्म दिया। यहाँ रहकर भारत-भाग्य विधाताओं के खोखले जीवन की अन्तरंग झाँकी; शासकीय दाँव-पेंच, उखाड़-पछाड़, जनता के प्रति हृदयीन उपेक्षाभाव, क्रोड़ों के व्यय के आँकड़ों में जीवन की कंगाली के छाया-चित्रों का उपहास और त्रास दिनकर ने अभिव्यक्त किया :
बाँसुरी (शंकर कुरूप), गणदेवता (ताराशंकर वद्योपाध्याय), (श्रीरामायण-दर्शनम् (अशतः) (के.पी..पुट्टप्पा) एवं निशीथ (उमाशंकर जोशी), चिदम्बरा संचयन (विविध भारतीय भाषाओं में अनूदित—पन्त), बज़्में ज़िन्दगी रंगे शाइरी (फ़िराक़), स्मृति सत्ता भविष्यत तथा अन्य कविताएँ (विष्णु दे)-ये सब कृतियाँ समारोह-आयोजन के अंग बनकर प्रकाशित हुई हैं। निःसंदेह हिन्दी साहित्य इन प्रकाशनों से समृद्ध हुआ है और भारतीय ज्ञानपीठ ने इनके माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण आनुषंगिक उपलब्धि पायी है।
1 दिसम्बर 1973 को आयोजित पुरस्कार समारोह के लिए जब पुरस्कृत कृति ‘उर्वशी’ के रचयिता दिनकर जी के कृतित्व के प्रकाशन का प्रश्न आया तो हमने दिनकरजी से अनुरोध किया कि इस अवसर के लिए वह एक ऐसा काव्य-संकलन तैयार कर दें जो उनके ‘सर्वश्रेष्ठ’ का प्रतिनिधित्व करता हो, और इस रूप में जिसका चुनाव मात्र उन्हीं के द्वारा हुआ हो। दिनकर जी ने हमारे अनुरोध को मान दिया, और अब यह संचयिता’ इस रूप में आपके हाथ में है। इस संकलन का प्रकाशनोत्शव भी पुरस्कार-समारोह के मंच से हुआ है, अतः यह कृति अपने आप में दिनकर जी के जीवन के कृतित्व के इतिहास की अविस्मरणीय कड़ी बन गयी है।
अब तक प्रकाशित लगभग तीस काव्य-कृतियों, संकलनों आदि में से श्रेष्ठतम चुनना बहुत कठिन है, किसी के लिए भी, स्वयं कवि के लिए तो असम्भव ही है क्योंकि प्रत्येक रचना उसकी आत्मजा है; वह किसे कहे कि यह वरणीय नहीं। दिनकरजी के लिए समस्या कितनी भी कठिन क्यों न रही हो, हमें इसे ‘श्रेष्ठतम’ कहने में संकोच इसलिए नहीं कि चक्रवाल (1956), कविश्री (1957) और लोकप्रिय दिनकर (1960) जैसे संकलन पहले प्रकाशित हो चुके हैं, और दिनकरजी ने अपनी कविता के मान-प्रतिमान निश्चित करने में प्रत्येक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाशकीय सहयोग दिया होगा। ‘संचयिता’ कृति की विशेषता यह है कि यह न केवल पिछले एक दशक की कविताओं की श्रेष्ता को समाहित कर रही है, प्रत्युत श्रेष्ठों’ के संकलनों में से ‘श्रेष्ठतर’ का यह संकलन है।
दिनकर का काव्य विस्तार की दृष्टि से कालावधि को परिमापित करने की दृष्टि से, भाषागत, विषयगत प्रयोगों की दृष्टि से, गुणगत और प्रकृतिगत विविधता की दृष्टि से, तथा सर्वोपरि, साहित्यिक प्रभाव की दृष्टि से अदिवितीय है, अएद्भुत है, महत् है। पुरस्कार समारोह में समर्पित प्रशस्ति का साध्य इस प्रकार है :
‘‘श्री दिनकर ने छायावाद की अस्पष्ट और वायवीय विषय-वस्तु तथा रूपों विधानोंवाली काव्य-पर्मपरा से अलग होकर आधुनिक हिन्दी कविता को एक ऐसी ओजमयी ऋतु भाषा-शैली दी जो पुनरुत्थानसील राष्ट्रीयता की अदम्य प्रेरणाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ हुई। वे हिन्दी साहित्य में एक अपूर्व घटना-तथ्य जैसे बनकतर आये, क्योंकि जिस सशक्तता से उनकी लेखनी ललकार और विद्रोह का झण्डा ऊँचा कर सकी, उसी से सुशान्त चिन्तन और गीतात्मक भाषा-शैली में मानव-मन के कोमल भावों को प्रकट करती आयी।
उनके काव्य में इन दोनों प्रवृत्तियों का बार-बार बड़ा मुग्धकर पुनरावर्तन होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अचूक आह्वान-शक्ति और भावात्मक प्रकृति दोनों के स्वभाव के कारण उनके काव्य को ‘दहकते अंगारों पर इन्द्रधनुषों की क्रीड़ा’ से उपमित किया गया है।
पुरस्कतार-जयी काव्य-नाटक ‘उर्वशी’ फल-सिद्धि है कवि की प्रतिभा और एक चिन्तक के प्रेमभाव के अर्थ, उद्देश्य और विस्तारों की अन्वेषणा की; मानव की ऐतिन्द्रिय जगत्से होते चरम परम की शोध की। तीस काव्यकृतियों और साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत ‘संस्कृति के चार अध्याय’ सहित, निबन्ध, कहानी, स्मरण-दैनिकी, समीक्षा-इतिहास आति विभिन्न साहित्य-विधानों की पचीस प्रांजल गद्य कृतियों के प्रातिभ प्रणेता दिनकरी इसी प्रकार देरशन और विश्वकाव्य तकी गहराइयों में पैठते हुए साहित्यिक उपलब्धि के उत्तरोत्तर भव्य शिखरों पहुँचने की अविराम आशाएँ बँधाये हुँ हैं।’’
दिनकर की कविता का विकास आदि से अन्त तक जूझने की कथा है—द्वन्द्व जो प्रबुद्ध-चेता कवि को चिन्तन और भावना के क्षेत्रों में, प्रत्येक स्तर पर घरते हैं, भरमाते हैं, विकल करते हैं और चुनौती देकर उसे साधना एवं समाधान के प्रगति-पथ पर ले चलते हैं। छायावाद की अभिजात्य शैली और रहस्यात्मक कथ्य से द्वन्द्व ‘रेणुका’ (1935) के सहज रचना-शिल्प और जन सुबोध, सामयिक कथ्य का; ‘हुंकार’ (1938) के क्रन्तिकारी आह्वान से द्वन्द्व ‘कुरुक्षेत्र’ (1946) का; और स्वयं ‘कुरुक्षेत्र’ है एक सर्वाधिक समर्ष अभिव्यक्ति उस द्वन्द्व की जो युद्ध और शान्ति, हिंसा और अहिंसा, प्रवृत्ति औनिवृत्ति की जीवन-पद्धति तथा ज्ञान और आत्मज्ञान की परिणति में निहित है। बीच में ‘द्वन्द्वगीत’ (1940) तो अभिधा में ही स्पष्ट है। ‘रश्मिरथी’ (1952) के प्रतिपक्ष में आ खड़ी होती है ‘उर्वशी’ (1961)—‘उर्वशी जो अप्सरा और लक्ष्मी, द्विधाग्रस्त मानव द्विधामुक्त देवता, एवं काम और अध्यात्म के द्वन्द्वों की गाथा है। रहट के घंटों की माला के उतार-चढ़ाव की भाँति ‘चक्रनेमि-क्रमेण’ ‘उर्वशी’ की प्रगतिगामी दिशा की प्रभावकारी मुद्रा ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ (1963) में परिलक्षित है।
कड़ी-कड़ी मिलकर जब द्वन्द्वों की श्रृंखला एक तरह से पूरी हो गयी तो जैसे आगे चरण-निक्षेप कठिन हो गए। या, आगे की यात्रा के लिए शक्ति-संचय का दशक जैसे जरूरी हो गया। अर्थात् रश्मिरथी से उर्वशी तक आने में एक दशक लगा। बीच के व्यवधान को विश्रान्ति की कविताओं ने पाटाश ‘दिल्ली’ और ‘नीम के पत्ते’ (1954), ‘सूरज का ब्याह’ और ‘नीलकुसुम’ (1955), और ‘नये सुभाषित (1957) ने ‘परशुराम करी प्रतीक्षा’ के बाद ‘दिनकर के गीत’ (1973) तक का एक दशक और इसी प्रकार विश्रान्ति की कविताओं का काल है—‘कोला और कविता’, ‘मृत्ति तिलक’, ‘दिनकर की सूक्तिया’ और ‘आत्मा की आँखें’ (सब 1964 में प्रकाशित)।
इन दो दशकों का तथाकथित, तथा-परिलक्षित, ‘विश्रान्ति-काल’, दिनकर के लिए घोर आन्तरिक संघर्षों का काल रहा है—संघर्षो, जिसने दिनकर के बाहर के प्रसार के अन्तर्मुखी किया, जिसने उन्हें नयी उपलब्धियों से मण्डित किया—विश्व कविता का अध्ययन और प्रभाव, ‘नीलकुसुम’ (1955), ‘सीपी और शंख’ (1957), ‘काव्य की भूमिका’ (1958), ‘शुद्ध कविता की खोज’ (1966), दार्शनिक ग्रन्तों का मनन, इतिहास का अध्ययन, राष्ट्र की आत्मा को परिभाषित करने का प्रयात्न ‘संस्कृति के चार अध्याय’ (1956), ‘धर्म , नैतिकता और विज्ञान’ (1959), इन अन्तरालों में दिनकर के चिन्तन की गरिमा गद्य के निधार में व्यक्त हुई।
इन दो दशकों की विराम-कथा में जो बात छूट गयी, वही शायद अब सबसे महत्त्वपूर्ण है—हारे के हरिनाम’ (1970)। क्या आन्तरिक संघर्ष ने दिनकर को तोड़ दिया ? या, जीने की साधना का यह प्रवेश-द्वार है ? शायद दोनों ही। क्योंकि द्वन्द्व दिनकर के जीवन के श्वास-प्रश्वास हैं।
दिनकर के काव्य के उतार-चढ़ाव के प्रत्येक चरण को उनके जीवन के विकास-क्रम, या कहें घटना-क्रम के साथ जोड़ा जा सकता है, जोड़ा जाना चाहिए। जन्म-भूमि सिमरिया (मुँगेर, बिहार) के बाँस-वन, प्राकृतिक सुषमा, और साथ-साथ गाँववालों के जीवन का विकराल दैन्य, अशिक्षा और मरण की देहरी पर नवजन्म के गीत। इतिहास में आनर्स करने के बाद का आकिंचन अध्यापक, फिर एक राष्ट्रधर्मी, स्वाभिमानी सब रजिस्ट्रार जिसका सेवा के प्रथम चार वर्षों में ब्रिटश शासन ने उसे 22 बार लट्रांसफर किया कि ‘हिमालय’ और ‘हुकांर’ का यह कवि नौकरी छोड़ दे। देश की स्वतंत्रता के उपरांत पटना में छह वर्ष तक सरकारी प्रचार –विभाग का अधिकारी फिर कॉलेज में हिन्दी विभाग का अध्यक्ष-प्राध्यापक; विश्विद्यालय का कुलपति। बीच-बीच में अपने पुत्रों के प्रकाशनगृह के विए विश्रान्ति काल की इन कविताओं के योगदान की सम्भावना बनाते गये। दिनकर ने अपने कार्यकाल के 38 वर्षों में लगभग 19 वर्ष गाँवों में और 19 वर्ष दिल्ली मनें बिता.ये हैं। संसद् सदस्य के रूप में 12 वर्ष, और हिन्दी सलाहकार अधिकारी के रूप में 7 वर्ष। उनके अनुभवों की व्यापकता और गहनता के क्या कहने को संसद् सदस्य की हैसियत से दिल्ली में रहने के गौरव ने नये द्वन्द्वों को जन्म दिया। यहाँ रहकर भारत-भाग्य विधाताओं के खोखले जीवन की अन्तरंग झाँकी; शासकीय दाँव-पेंच, उखाड़-पछाड़, जनता के प्रति हृदयीन उपेक्षाभाव, क्रोड़ों के व्यय के आँकड़ों में जीवन की कंगाली के छाया-चित्रों का उपहास और त्रास दिनकर ने अभिव्यक्त किया :
‘‘मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूँ।
जनता तो चट्टानों का बोझ सहा करती
मैं चाँदनियों का बोझ किसी विध सहता हूँ।
गन्दगी, गरीबी, मैलेपन को दूर रखो
शुद्धोदन के पहरेवाले चिल्लाते हैं,
है कपिलवस्तु पर फूलों का श्रृंगार पड़ा
रथ-सामरूढ़ सिद्धार्थ घूमने जाते हैं।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखने वालों
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो ?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में
तुम भी क्या घर पर पेट बाँधकर सोये हो ?’’
जनता तो चट्टानों का बोझ सहा करती
मैं चाँदनियों का बोझ किसी विध सहता हूँ।
गन्दगी, गरीबी, मैलेपन को दूर रखो
शुद्धोदन के पहरेवाले चिल्लाते हैं,
है कपिलवस्तु पर फूलों का श्रृंगार पड़ा
रथ-सामरूढ़ सिद्धार्थ घूमने जाते हैं।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखने वालों
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो ?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में
तुम भी क्या घर पर पेट बाँधकर सोये हो ?’’
दिनकर धन्य हैं कि उन्हें जीवने में वह सब मिला जिसकी भाग्यवान् लोग कामना
किया करते हैं। यशस्वी कवि जिसे जनता ने प्यार किया, सचमुच उसकी कविता से
साक्षात्कार करके उससे प्रभालित होकर। पुरस्कार और पदक और पद और पद्मभूषण।
और, प्रेम...कौन कवि लिख सकता था ‘उर्वशी’ बिना प्रेम
के
अगोचर छोरों को छुए ?
‘‘मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग,
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे रक्त के कण में समाकर
प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ।’’
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे रक्त के कण में समाकर
प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ।’’
सौभाग्य की मंजूषा रीती न रह जाए इसलिए दिनकर को विधाता ने वेदनाओं से मथा
है : तरुण पुत्र की मृत्यु, गृह-उच्छेद, विषण्णता, राग-उद्वेग और घोर
चिन्ता !
‘‘हृदय छोटा हो,
तो शोक वहाँ नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है
जिसका भाग्य खुलता है
तो शोक वहाँ नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है
जिसका भाग्य खुलता है
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