जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
किरणमयी समझती है, सुधामय 'किस तरह' के ठगने की बात करते हैं। वह चुप रहती है। क्या कुछ वह कहेगी, यानी कहेगी कि नहीं, मैं कब ठगी गई? वह कह नहीं सकती। उसे कहने को कुछ नहीं मिलता। सुधामय लम्बी साँस छोड़कर कहते, 'क्या तुम मुझे छोड़कर चली जाओगी किरण? मुझे बहुत डर लगता है!'
किरणमयी कभी सुधामय को छोड़कर जाने की बात सोच नहीं सकती। क्या सुधामय के साथ उसका बस वही एक ही रिश्ता मुख्य है? और सब तुच्छ है? तुच्छ हो जायेगा पैंतीस वर्ष एक साथ बिताया हुआ जीवन? इतनी आसानी से म्लान हो सकता है लम्बे आनन्द-वेदना का जीवनयापन? किरणमयी सोचती है, नहीं, मनुष्य का एक ही जीवन है। यह जीवन बार-बार नहीं मिलता। जीवन में कुछ दुःसहवास मान ही लिया तो क्या हुआ। इकहत्तर से सुधामय यौन-जीवन में अक्षम पुरुष हैं। इस बात से वे किरणमयी के सामने बहुत लज्जित हैं। अक्सर गहरी रात में वे फुस-फुसाकर उसे जगा कर कहते, 'क्या तुम्हें बहुत तकलीफ हो रही है किरण?'
'कैसी तकलीफ?' किरणमयी समझकर भी न समझने का नाटक करती।
सुधामय को कहने में हिचकिचाहट होती थी। वे अक्षमता की वेदना से तकिये में मुँह दबा लेते थे। और किरणमयी दीवार की तरफ मुँह फेरकर नींद न आने वाली रात काटती। बीच-बीच में सुधामय कहते, 'यदि तुम चाहो तो नया घर बसा सकती हो, मैं बुरा नहीं मानूँगा।'
किरणमयी के शरीर में कोई तृष्णा नहीं थी, यह बात नहीं थी! सुधामय के दोस्त जब आते थे, उनके सामने बैठकर बातें करते थे, और उनकी छाया किरणमयी की गोद में पड़ती थी, तो किरणमयी प्रायः अपनी गोद की तरफ तिरछी नजर से देखती। हठात् उसकी इच्छा होती कि उसकी गोद की छाया यदि सच हो जाती, यदि छाया का वह व्यक्ति एक बार उसकी गोद में सिर रखता! शरीर की वह प्यास बहुत दिनों उसे नहीं सता पायी। संयम-संयम में ही बीत गयी। क्या उम्र भी रुकी रहती है! इक्कीस वर्ष देखते-ही-देखते बीत गये। इस बीच किरणमयी ने यह भी सोचा कि सुधामय को छोड़कर जिस व्यक्ति के पास जायेगी, वह भी यदि ऐसा ही अक्षम पुरुष हुआ तो! या फिर अक्षम न होकर भी सुधामय की तरह इतना हृदयवान न हुआ तो!
रह-रहकर किरणमयी सोचती है कि शायद सुधामय उससे बहुत प्यार करते हैं। उसे साथ लिये बिना खाना नहीं खाते। मछली का बड़ा 'पीस' खुद न खाकर किरणमयी की थाली में रख देते हैं। घर पर नौकर-चाकर न रहने पर कहते हैं, बर्तन-वर्तन माँजना हो तो बोलो, मैं अच्छा बर्तन माँज लेता हूँ।
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