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जीवन कथाएँ >> लज्जा

लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


माँ ने क्या दिया है, पूछने से पहले ही माया चली गयी। सुरंजन ने लिफाफा खोलकर देखा। उसमें कल रात के दो हजार रुपये हैं। सुरंजन का चेहरा अपमान से लाल हो गया। क्या यह किरणमयी का अहंकार है? या फिर उसने सोचा कि बेरोजगार लड़का है, कहीं से चोरी-डकैती करके लाया होगा? अभिमान और लज्जा से सुरंजन को फिर कुछ बात करने की इच्छा नहीं हुई। विरुपाक्ष के साथ भी नहीं! किरणमयी के पिता ब्राह्मणबाड़ी के जाने-माने व्यक्ति थे। बहुत बड़े वकील। उनका नाम था अखिल चन्द्र बसु। सोलह साल की लड़की की डाक्टर से शादी करके पूरे परिवार को लेकर कलकत्ते चले गये थे। उन्होंने सोचा था कि बेटी और दामाद भी किसी समय कलकत्ता चले आयेंगे। किरणमयी ने भी सोचा था कि एक-एक कर जब पिता, माँ, ताऊ, चाचा, बुआ, मामा-भौसी, करीब-करीब सभी चले गये तो वह भी शायद चली जायेगी। लेकिन वह एक अद्भुत परिवार में आ पड़ी है, सास-ससुर के साथ मात्र छह वर्षों तक रही है। इन छह वर्षों में उसने अपनी आँखों के सामने रिश्तेदार, पड़ोसियों, जान-पहचान के लोगों को बोरिया-बिस्तर बाँधते देखा है। फिर भी इस परिवार ने कभी भूलकर भी देश छोड़ने की बात नहीं सोची। किरणमयी छिप-छिपकर रोती रहती थी। इण्डिया से पिता का पत्र आता था, 'बेटी किरण, क्या तुम लोगों ने न आने का फैसला कर लिया है? सुधामय से और एक बार सोचने के लिए कहो। देश छोड़कर आना तो हम भी नहीं चाहते थे। लेकिन आने के लिए बाध्य हुए। यहाँ आकर बहुत अच्छा हूँ, ऐसी बात नहीं। देश के लिए मन बहुत रोता है। फिर भी वास्तविकता को तो मानना ही पड़ेगा। तुम्हारे लिए सोचता हूँ। तुम्हारा पिता।' इन चिट्ठियों को किरणमयी बार-बार पढ़ती थी, आँसू पोंछती थी, और रात में सुधामय से कहती थी, 'तुम्हारे रिश्तेदारों में काफी लोग अब यहाँ नहीं हैं। मेरे भी सारे रिश्तेदार चले गये हैं। यहाँ रहकर बीमारी में, असमय में मुँह में एक बूंद पानी डालने को कोई नहीं मिलेगा।' सुधामय विद्रूपता भरी हँसी हँसते हुए कहते, 'तुम पानी की इतनी कंगाल हो। तुम्हें पूरा ब्रह्मपुत्र दे दूंगा। कितना पानी पी सकती हो देलूंगा। क्या रिश्तेदारों में ब्रह्मपुत्र से अधिक पानी है?' देश छोड़कर जाने के उनके प्रस्ताव को न ससुर, न सास, न पति, यहाँ तक कि कोख के जाये बेटे सुरंजन ने भी नहीं माना। लाचार होकर किरणमयी को इस परिवार के संस्कारों को मानकर चलना पड़ा। इसके दौरान किरणमयी ने पाया कि इस परिवार के सुख-दुःख, सम्पन्नता-विपन्नता के साथ खुद को उसने सुधामय से ज्यादा जोड़ लिया है।

किरणमयी ने अपने हाथ के दोनों कंगन हरिपद डाक्टर की पत्नी को वेच दिये। घर के किसी व्यक्ति को यह जानने नहीं दिया है। इन बातों को कहने में रखा ही क्या है। सोना-चाँदी इतनी मूल्यवान वस्तु तो नहीं है जिसे आवश्यकता पड़ने पर बेचा न जा सके। सुधामय का स्वस्थ होना इस वक्त ज्यादा अहमियत रखता है। इस व्यक्ति के प्रति कब से इतना प्यार जन्मा है, किरणमयी समझ ही नहीं पाती। उस इकहत्तर के बाद से तो सुधामय को वह अंतरंग रूप से नहीं पा सकी। बीच-बीच में सुधामय कहते हैं, 'किरण शायद मैंने तुम्हें बहुत ठगा है, है न?'

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