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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


इकहत्तर में सुधामय मयमनसिंह के एक अस्पताल में डॉक्टर थे। उस समय वे घर और बाहर दोनों जगह काफी व्यस्त रहते थे। शाम को स्वदेशी बाजार में एक दवा की दुकान पर बैठते थे। तब किरणमयी की गोद में छह महीने का बच्चा था। बड़े बेटे सुरंजन की उम्र बारह वर्ष थी। इसलिए उनका उत्तरदायित्व कम नहीं था। अस्पताल में भी उनको अकेले ही सब कुछ सम्भालना पड़ता था। उसी बीच समय मिलते ही शरीफ के साथ अड्डेबाजी करने जाते थे। वह मार्च की सात या आठ तारीख होगी। रेसकोर्स के मैदान में शेख मुजीब का भाषण सुनकर आये शरीफ, बबलू, फैजुल, निमाई ने रात के बारह बजे आकर सुधामय के ब्रह्मपल्ली के घर का दरवाजा खटखटाया। शेक्ष मुजीबुर्रहमान ने जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा है-'यदि एक भी गोली और चली, यदि मेरे और एक भी आदमी की हत्या की गई, तो फिर आप लोगों से मेरा अनुरोध है कि घर-घर को दुर्ग बना डालें। जिसके पास जो है, उसे लेकर ही मुकाबला करना होगा। हमारा संग्राम मुक्ति का संग्राम है। हमारा संग्राम स्वाधीनता का संग्राम है।' वे गुस्से से काँप रहे थे। टेबिल ठोंकते हुए बोले, 'सुधा दा, कुछ तो करना होगा। बैठे रहने से काम नहीं चलेगा।' यह तो सुधामय भी समझ रहे थे। इसके बाद पच्चीस मार्च की वह काली रात आयी। रात के अँधेरे में पाकिस्तानी सैनिकों ने सोये हुए बंगालियों के ऊपर अचानक हमला बोल दिया। दोस्तों ने आकर सुधामय के घर का दरवाजा भी खटखटाया था और फुसफुसाहट के साथ कहा था, 'युद्ध में जाना होगा। इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है।' भरा-पूरा परिवार छोड़कर युद्ध में जाना, फिर उनकी उम्र भी कुछ युद्ध में जाने की नहीं थी। फिर भी अस्पताल में उनका मन नहीं लग रहा था। कॉरीडोर में अकेले टहलते रहे। युद्ध में जाने की एक तीव्र इच्छा रह-रहकर उन्हें हिलोर रही थी। घर पर भी वे अन्यमनस्क हो रहे थे। किरणमयी से कहा, 'किरण, क्या तुम अकेले घर सम्भाल लोगी? मान लो मैं कहीं चला गया।' किरणमयी आशंका से नीला पड़ गई। बोली, 'चलो, इण्डिया चले जाते हैं। आस-पड़ोस के सभी इण्डिया चले जा रहे हैं।' सुधामय ने खुद भी पाया कि सुकांत चट्टोपाध्याय, सुधांशु हालदार, निर्मलेन्दु भौमिक, रंजन चक्रवर्ती सभी चले जा रहे हैं। सैंतालीस में जिस तरह से चले जाने की धूम मची थी, उसी तरह। उन लोगों को वे 'कावार्ड' कहकर गाली देते थे। निमाई ने एक दिन सुधामय से कहा, 'सुधा दा, सेना शहर के रास्ते में टहलदारी कर रही है। वे हिन्दुओं को पकड़ रहे हैं, चलिए भाग जाते हैं।' सैंतालीस में सुकुमार दत्त के कण्ठ में जैसी दृढ़ता थी, वही दृढ़ता सुधामय अपने कण्ठ में धारण किये हुए हैं। उन्होंने निमाई से कहा, 'तुम जाते हो तो जाओ, मैं भागने वाला नहीं हूँ। पाकिस्तानी कुत्तों को मारकर देश आजाद करना है। और, हो सके तो उस समय लौट आना! तय हुआ फैजुल के फूलपुर वाले गाँव के मकान में किरणमयी को रखकर शरीफ, बबलू, फैजुल के साथ नालिताबाड़ी की तरफ चल देंगे। लेकिन पाकिस्तानी सैनिकों के हाथों पकड़े गये। ताला खरीदने के लिए निकले थे। 'चरपाड़ा मोड़' में कोई ताला मिलता है या नहीं, यदि मिल जाता है तो घर पर ताला लगाकर रात के अंधेरे में भैंसागाड़ी में चढ़ बैठेंगे। उत्तेजना और आवेग से उनका दिल बैठा जा रहा है। शहर श्मशान की तरह सुनसान है। एक-दो दुकानों का दरवाजा आधा खुला हुआ है। अचानक ‘हाल्ट' कहकर उन्हें रोक लिया गया। वे तीन थे। एक ने पीछे से कालर खींचकर कहा, 'क्या नाम है?'

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