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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


सुरंजन की आँखों के सामने उभर आया नब्बे की लूटपाट का भयावह दृश्य। क्या नब्बे की घटना को दंगा कहा जा सकता है? दंगा का अर्थ मारपीट-एक सम्प्रदाय के साथ दूसरे सम्प्रदाय के संघर्ष का नाम ही दंगा है, लेकिन इसे तो दंगा नहीं कहा जा सकता। यह है एक सम्प्रदाय के ऊपर दूसरे सम्प्रदाय का हमला, अत्याचार। खिड़की से होकर धूप सुरंजन के ललाट पर पड़ रही है। जाड़े की धूप है। इस धूप से बदन नहीं जलता। लेटे-लेटे उसे चाय की तलब महसूस होती है।

अब भी सुधामय की आँखों में वह दृश्य बसा हुआ है। चाचा, बुआ, मामा, मौसी सभी एक-एक कर देश छोड़कर जा रहे हैं। मयमनसिंह जंक्शन से फूलवाड़ी की तरफ के लिए गाड़ी छूटती है। कोयले का इंजन धुआँ छोड़ता हुआ सीटी बजाकर चल देता है। गाड़ी के डिब्बे से हृदय विदारक रोने की आवाज आ रही है। पड़ोसी भी जाते-जाते कह रहे हैं, 'सुकुमार, चलो! यह मुसलमानों का होमलैंड है। यहाँ अपनी जिन्दगी की कोई निश्चयता नहीं है।' सुकुमार दा जुबान के पक्के हैं, उन्होंने कहा, 'अपनी मातृभूमि में यदि निश्चयता नहीं है तो फिर पृथ्वी के किस स्थान पर होगी? देश छोड़कर मैं भाग नहीं सकता। तुम लोग जा रहे हो तो जाओ। मैं अपने पुरखों की जमीन छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। नारियल, सुपारी का बगीचा, खेती-बाड़ी, जमीन जायदाद, दो बीघा जमीन पर बना हुआ मकान, यह सब छोड़कर सियालदह स्टेशन का शरणार्थी बनूँ, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।' सुधामय तब उन्नीस वर्ष के थे। कॉलेज के दोस्त उनके सामने ही चले जा रहे थे। उन्होंने कहा था, 'तुम्हारे पिताजी बाद में पछताएँगे।' सुधामय ने भी उस समय अपने पिता की तरह बोलना सीखा था, 'अपना देश छोड़कर दूसरी जगह क्यों जाऊँगा? मरूँगा तो इसी देश में और जीऊँगा भी तो इसी देश में। 1947 में कॉलेज खाली हो गया। जो नहीं गये थे, वे भी जायेंगे कह रहे थे। उँगलियों पर गिने जाने लायक कुछ मुसलमान छात्र और बचे हुए थे दरिद्र हिन्दुओं के साथ कॉलेज पास करने के पश्चात् सुधामय लिटन मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो गये।

1952 में वे चौबीस वर्षीय गरम खून के युवक थे। ढाका के रास्ते में जब 'राष्ट्रभाषा बांग्ला होनी चाहिए' का नारा लगाया जा रहा था तब सारे देश में उत्तेजना की लहर दौड़ गई। 'उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा होगी'-मुहम्मद अली जिन्ना के इस सिद्धान्त को सुनकर साहसी और प्रबुद्ध बंगाली युवक उत्तेजित हो गये थे। बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग को लेकर पाकिस्तानी शासक दल के सामने वे झुकी हुई रीढ़ की हड्डी को अब सीधा कर, तन कर खड़े हो गये। विरोध किया, पुलिस की गोली खाकर मौत को अपनाया, खून से लथपथ हो गये। लेकिन किसी ने राष्ट्रभाषा बांग्ला होने की माँग नहीं छोड़ी। सुधामय उस समय काफी उत्तेजित थे, जुलूस के सामने खड़े होकर 'बांग्ला चाहिए' का नारा लगाया था। जिस दिन पुलिस की गोली से रफीक सलाम, बरकत, जब्बर ने जान दी थी, सुधामय भी उसी जुलूस में थे। गोली उन्हें भी लग सकती थी। वे भी देश के महान शहीदों में एक हो सकते थे। उनहत्तर के आन्दोलन में भी सुधामय घर पर बैठे नहीं थे। उस समय अयूब खान के आदेश पर पुलिस जुलूस देखते ही गोली चलाती थी। तब भी बंगाली 'ग्यारहवीं दफा' की माँग को लेकर गोली से मरे। आलमगीर मंसूर, मिंटू की लाश को कंधे पर उठाये वे मयमनसिंह की सड़कों पर घूमे थे, उनके पीछे सैकड़ों शोक संतप्त बंगाली, पाकिस्तानी सैनिकों के विरुद्ध फिर एक बार कमर कस कर उतरे थे।

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