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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


छिः। पिछली बार वह गधा था जो कमाल के घर गया था। इस बार कोई आयेगा तो साफ कह देगा, 'तुम्हीं लोग मारोगे और तुम्हीं लोग दया भी करोगे, यह कैसी बात है। इससे तो अच्छा है कि तम लोग सारे हिन्दुओं को इकट्ठा करके एक फायरिंग स्क्वाड में ले जाओ और गोली से उड़ा दो। सब मर जायेंगे तो झमेला ही खत्म हो जायेगा। फिर तुम्हें बचाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। सारा झमेला ही एक बार में खत्म हो जायेगा। सुरंजन ज्यों ही रास्ते में निकला सुनकर हैरान हो गया कि मुहल्ले के एक झुण्ड लड़के, जिनकी उम्र यही कोई बारह से पन्द्रह के बीच होगी, उसके घर से थोड़ी दूर पर खड़े थे। उसे देखकर चिल्ला उठे, 'हिन्दू है, पकड़ो-पकड़ो!' सात वर्षों से वह उन लड़कों को देख रहा है। सुरंजन उनमें से एक-दो को पहचानता भी है। उनमें से आलम नाम का लड़का प्रायः उसके घर चन्दा माँगने आता है। मुहल्ले में उनका एक क्लब है। क्लब के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुरंजन गाना भी गाता है। कुछ लड़कों को वह डी. एल. राय और हेमांग विश्वास का गाना सिखायेगा उसने सोचा था। कल तक यही लड़के अपनी हर जरूरत में अक्सर, 'भैया यह कर दो, वह कर दो। यह सिखा दो, वह सिखा दो' कहते-कहते उसके आगे-पीछे घूमते रहते थे। इस मुहल्ले के लोगों का कहना है सुधामय लम्बे समय तक मुफ्त में इलाज करते रहे हैं और यही लोग 'वह देखो, हिन्दू है। पकड़ो-पकड़ो!' कहकर सुरंजन को पीटना चाहते हैं।

सुरंजन उनकी तरफ देखकर उल्टे रास्ते चलने लगा। डर कर नहीं, बल्कि लज्जित होकर। मुहल्ले के परिचित लड़के उसे पीटेंगे, यह सोचकर ही वह लज्जित हो गया। यह लज्जा वह स्वयं पिट रहा है इसलिए नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए जो उसे पीट रहे हैं। लज्जा पीड़ित होने की नहीं, बल्कि जो अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए होती है।

सुरंजन चलते-चलते 'शापला' इलाके में आकर रुका। चारों ओर सन्नाटा था। जगह-जगह पर लोगों की भीड़ है। रास्ते में ईंटों के टुकड़े, जली हुई लकड़ी, टूटे हुए कांच बिखरे पड़े हैं! देखकर लग रहा है, अभी-अभी भीषण तांडव हुआ होगा। एक-दो युवक इधर-उधर दौड़ रहे हैं। कुछ कुत्ते बीच रास्ते में इधर से उधर भाग रहे हैं। घंटी बजाते हुए एक-दो रिक्शे इधर से उधर जा रहे हैं। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि कहाँ क्या हो रहा है। कुत्तों को कोई डर नहीं। क्योंकि उन्हें जात का कोई डर नहीं। सुरंजन ने अंदाजा लगाया कि वे कुत्ते खाली रास्ता पाकर ही इधर-उधर भाग रहे हैं। सुरंजन का भी जी चाह रहा है कि वह सड़क पर दौड़े। मोती झील के कोलाहलपूर्ण व्यस्त रास्ते को इस तरह सुनसान देखकर सुरंजन के मन में बचपन की तरह डम्भा से फुटबॉल खेलने की या चॉक से निशान बनाकर क्रिकेट खेलने की इच्छा हो रही है। सुरंजन यह सब सोचते हुए चल ही रहा था कि अचानक उसकी निगाह बायीं ओर के एक जले हुए मकान पर पड़ी। जिसका नामपट्ट, दरवाजा, खिड़की सब कुछ जल गया था। यह इण्डियन एयरलाइंस का दफ्तर है। कुछ लोग उस जले हुए दफ्तर के सामने खड़े होकर हँस रहे हैं। क्या किसी ने भौं सिकोड़कर सुरंजन को देखा? उसके मन में संदेह होता है।

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