जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
यज्ञ के अंत में वह एक लंबी नींद लेना चाहता है। लेकिन नींद नहीं आती। रत्ना की याद आती है। बहुत दिनों से नहीं मिला है। कैसी है वह लड़की। रत्ना की गहरी, काली आँखें पढ़ी जा सकती हैं। उसे और बात करने की जरूरत नहीं होती है। शायद वह सोच रही होगी, एक दिन सुरंजन आकर उसका दरवाजा खटखटायेगा। चाय के साथ जीवन की कथाएँ छेड़ने पर रात बीत जायेगी। सुरंजन सोचता है आज रात को वह रत्ना के घर जायेगा। कहेगा, क्या सिर्फ मैं ही मिलने आऊँगा? और क्या किसी की इच्छा नहीं होती है किसी को देखने की?
सुरंजन को विश्वास है अचानक एक उदास शाम को रत्ना सुरंजन के घर आयेगी। कहेगी, ‘अजीब खाली-खाली-सा लगता है, सुरंजन।' कितने दिनों से उसे किसी ने चम्बन नहीं लिया। परवीन चूमती थी। परवीन उससे लिपटकर कहती थी, 'तुम मेरे हो, मेरे। मेरे सिवा और किसी के नहीं, तुम्हें आज सौ बार चूमूंगी।' कमरे में अचानक किरणमयी के आ जाने से वे अलग हो जाते थे। मुसलमान के साथ शादी होने से कोई झमेला नहीं, वैसा ही जीवन उसने चुन लिया। रत्ना के मामले में तो 'जाति' का प्राब्लम नहीं। वह उसी को समर्पित करेगा अपना ठुकराया जीवन । सुरंजन जब ऐसा सोच रहा है कि आज रात को जायेगा। शरीर में जमी धूल- कालिख को धोकर धुला हुआ एक शर्ट पहनकर रत्ना के घर जायेगा। उसी समय दरवाजे पर दस्तक होती है। दरवाजा खोलकर वह देखता है, रत्ना खड़ी है। बहुत सजी-धजी है। चमकती हुई साड़ी, हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ, शायद झनझनाकर बज भी उठीं। रत्ना एक मीठी हँसी हँसती है। उसकी हँसी सुरंजन को विस्मित और अभिभूत करती है। ‘आइए, भीतर आइए' कहते-कहते वह ध्यान देता है, एक सुदर्शन पुरुष रत्ना के पीछे खड़ा है।
रत्ना को वह कहाँ बैठायेगा। घर की जो बुरी हालत है। फिर भी बैठिये-बैठिये' कहते हुए टूटी हुई कुसी को आगे बढ़ा देता है। रत्ना हँसकर कहती है, 'बोलिए तो किसे लायी हूँ?'
रत्ना के भाई को सुरंजन ने कभी देखा नहीं है। सोचता है, कहीं वही तो नहीं है। सुरंजन को रत्ना ज्यादा देर सोचने नहीं देती है। हाथ की चूड़ियों की तरह झनझन कर हँसते हुए बताती है, 'ये हुमायूँ हैं, मेरे पति।'
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