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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


'पिताजी मुझसे यह सब कुछ नहीं कहेंगे। देश से पलायन की बात उठते ही वे फायर हो जाते हैं। किसी भी तरह वे बरदाश्त नहीं कर पाते हैं।'

'क्या देश-त्याग को हम लोग ही ठीक मानते हैं? लेकिन जो जा रहे हैं, गोपनीय ढंग से जा रहे हैं। उन्हें तुम क्या कहकर लौटा सकते हो? कोई एक आश्वासन तो

उन्हें देना ही होगा। वरना कोई स्वेच्छा से अपनी मिट्टी छोड़कर जाना चाहता है? शास्त्र में एक कहावत है न, 'जो है अप्रवासी, वही है सबसे सुखी।' मुसलमान तो हिजरत के अभ्यस्त है। एक देश से दूसरे देश में घूमते रहे हैं, इतिहास ही इसका गवाह है। लेकिन हिन्दुओं के लिए माटी का बड़ा महत्त्व है।' कहते-कहते काजल देवनाथ उठकर बरामदे की ओर गये। शायद अपनी उत्तेजना शांत करने। वापस आकर बोले, 'चाय पीने की बड़ी इच्छा हो रही है। चलो, किसी चाय की दुकान पर चलते हैं।'

सुरंजन कपड़ा नहीं बदलता है। जो कपड़े पहने था, बिना नहाये, कई दिन का खाली पेट, बदन से रजाई उतार झट से खड़ा हो गया। बोला, 'चलिये! शरीर में जंग लग गई है, सोये सोये।'

सुरंजन दरवाजा खुला छोड़कर ही निकल गया। अब क्यों बंद करेगा। अघटन, जो घटना था, वह तो घट ही चुका है। चलते-चलते काजल देवनाथ ने पूछा, 'तुम्हारे घर में खाना-वाना बन रहा है?'

'माँ कमरे में रख जाती है। कभी खाता हूँ, कभी नहीं खाता। मन नहीं करता। मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता।' सुरंजन अपने बालों में उंगलियाँ फेरता है, बालों को संवारने के लिए नहीं, बल्कि भीतर की यंत्रणा कम करने के लिए।

फिर उसने पूछा, 'उनहत्तर-सत्तर में शायद हिन्दुओं का माइग्रेशन कम हुआ है, काजल दा।'

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