जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'क्या बात है सुरंजन, बेवक्त सो रहे हो?'
'मेरे लिए वक्त-बेवक्त क्या है!' सुरंजन हटते हुए काजल के बैठने की जगह कर देता है।
'माया लौटी?'
'नहीं।' सुरंजन साँस छोड़ता है।
'क्या कर सकते हैं, बताओ तो। हम लोगों को कुछ तो करना चाहिए।' 'क्या कर सकते हैं?'
काजल देवनाथ के अधपके बाल, उम्र चालीस के ऊपर, ढीला-ढाला शर्ट पहने हैं। उनके ललाट पर भी चिन्ता की सिकुड़न पड़ी है। सिगरेट निकालकर बोले, 'पिओगे क्या?'
'दीजिए।' सुरंजन हाथ बढ़ाता है। बहुत दिनों से उसने सिगरेट नहीं खरीदी। पैसा किससे माँगेगा वह। किरणमयी से? शर्म के मारे तो उसने उस कमरे में जाना ही छोड़ दिया है। मानो माया के खो जाने की लज्जा उसी की है, सुरंजन को ऐसा ही लगता है। क्योंकि देश को लेकर ज्यादा उछल-कूद तो उसी ने की है। इस देश का आदमी असाम्प्रदायिक है, यह प्रमाणित करने के लिए वही ज्यादा चिल्लाता रहा है, लज्जा इसीलिए उसी की है। वह इस लज्जित चेहरे को लेकर सुधामय की तरह एक आदर्शवादी, सत्य और न्यायनिष्ठ व्यक्ति के सामने खड़ा नहीं होना चाहता। सुरंजन भूखे पेट सिगरेट पीता है। माया अगर देखती तो कहती, खबरदार भैया, अच्छा नहीं होगा जो तुमने खाली पेट सिगरेट पी तो। तुम्हें कैंसर होगा, मर जाओगे।
सुरंजन को यदि कैंसर होता, तो बुरा नहीं होता। लेटे-लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा करता किसी उम्मीद को लेकर जीना नहीं पड़ता।
काजल देवनाथ क्या करें, कुछ सोच नहीं पा रहे थे। उन्होंने कहा, 'आज तुम्हारी बहन को उठा ले गये, कल मेरी लड़की को उठा लेंगे। उठाएंगे ही तो। आज गौतम के सिर पर वार किया है, कल मेरे या तुम्हारे सिर पर वार करेंगे।'
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