जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन कहीं नहीं जायेगा। माया को ढूँढ़ने से कोई फायदा नहीं, यह वह समझ गया है। रास्ते में निकलते ही लोग कहेंगे, ‘साला मालाउन का बच्चा!' इससे तो अच्छा है घर में ही पड़ा रहे। यह सब सुनते-सुनते सूरंजन के कान सड़ते जा रहे हैं। अब वह किसी समाजवादी पार्टी, वामपंथी नेता-वेता पर विश्वास नहीं करता। उसने बहुतेरे वामपंथियों को 'साला, मालाउन का बच्चा' कहकर गालियाँ देते सुना है। कृष्ण विनोद राय को सभी कहते थे कबीर भाई। रवीन दत्त को नाम बदलकर अब्दुस्सलाम होना पड़ा। कम्युनिस्ट पार्टी में रहकर भी यदि हिन्दू नाम बदलना पड़ा तो और किस पार्टी पर भरोसा किया जाये! या वह जमात पार्टी में नाम लिखायेगा? सीधे निजामी से जाकर कहेगा, 'हुजूर, अस्सलाम वालेकुम!' दूसरे दिन अखबारों में मोटे-मोटे अक्षरों में निकलेगा, 'हिन्दू का जमाते इस्लामी में योगदान।' सुना है, गोबर गणेश होकर भी जमाते इस्लामी को वोट मिलता है। इसका कारण है रुपया। हर महीने पाँच हजार रुपया मिलने पर कौन जमाती को वोट नहीं देगा। सुरंजन वामपंथी दलों से बदला लेना चाहता है। जिन्होंने उसे आशा के बदले निराशा में डुबा दिया। दल के लोग एक-एक कर दूसरे दल में घुस गये। आज एक बात कहते हैं तो कल दूसरा कुछ। कामरेड फरहाद के मर जाने पर सी. पी. बी. ऑफिस में कुरानखानी और मिलाद महफिल का आयोजन किया गया। धूमधाम से कामरेड का जनाजा निकाला गया। क्यों ऐसा हुआ, क्यों अंततः कम्युनिस्टों को इस्लामी झंडे के नीचे आश्रय लेना पड़ता है? जनता के 'नास्तिकता के आरोप से बचने के लिए ही तो! क्या इससे वे लोग बचे भी हैं? इतना सिर पीट कर भी देश की सबसे पुरानी पार्टी जनता का विश्वास अर्जित नहीं कर पायी। सुरंजन इसका दोष जनता को नहीं देता, देता है दिग्भ्रमित वामपंथी नेताओं को ही।
देश में आज मदरसों की तादाद बढ़ रही है। एक देश को आर्थिक दृष्टि से पंगु बनाने की इससे बेहतर परिकल्पना और क्या हो सकती है। शायद शेख मुजीब ने ही गाँव-गाँव में मदरसे को बढ़ावा दिया था। पता नहीं, कहाँ से कौन आकर इस देश का सर्वनाश कर गया। जिस जाति ने भाषा आंदोलन किया, इकहत्तर का मुक्ति युद्ध लड़ा, उस जाति का ऐसा सर्वनाश आँखों से न देखने पर विश्वास ही नहीं किया जा सकता। कहाँ गया बंगाली संस्कृति का वह बोध, कहाँ गया बांग्ला का हिन्दू, बांग्ला का बौद्ध, बांग्ला का क्रिश्चियन, बांग्ला का मुसलमान, हम सब बंगालि का वह स्वर, वह चेतना? सुरंजन बड़ा अकेला महसूस करने लगा। बहुत अकेला। मानो वह बंगाली नहीं, मनुष्य नहीं, एक हिन्दू दोपाया जीव है जो खुद की जमीन पर ‘परवासी' होकर बैठा है।
इस देश के मंत्रालयों में 'धर्म मंत्रालय' नामक एक मंत्रालय है। धर्म के खाते में पिछले वर्ष का बजट बड़ा उपादेय था। सुरंजन इसे उपादेय ही कहेगा। विकास के मद में धार्मिक उद्देश्य से सहायता मंजूरी राशि : इस्लामी फेडरेशन को 1,50,00,000 रुपये, वक्फ प्रशासन के लिए 8,00,000 रुपये, अन्य धार्मिक खाते में 2,60,00,000 रुपये अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के लिए अमानत खाते में 2,50,000 रुपये। मस्जिद में मुफ्त की विद्युत आपूर्ति के लिए 1,20,00,000। मस्जिद में मुफ्त जलापूर्ति के लिए 50,00.000 रुपये। ढाका तारा मस्जिद 3,00,000 रुपये। कुल 8,45,70,000 रुपये। वायतुल मुकर्रम मस्जिद की देखरेख के लिए 15,00,000 रुपये। इनमें अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के लिए अमानत खाते में महज 2,50,000 रुपये की मंजूरी दी गयी। प्रशिक्षण और उत्पादनमुखी कार्यक्रमों के संचालन और प्रसार के लिए कुल 144 धार्मिक क्षेत्रों में 10,93,38,000 रुपये। देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की संख्या करीब ढाई करोड़ है। ढाई करोड़ लोगों के लिए ढाई लाख रुपये की मंजूरी कितनी मजेदार बात है।
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