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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


'क्या कहा?' पुलक ने चौंककर सुरंजन को देखा। एक ही साथ देवव्रत, नयन और विरुपाक्ष ने भी।

सुरंजन का शरीर तब भी दबी हुई रुलाई से हिल रहा था। शराब पड़ी की पडी रह गयी। गिलास उलटा पड़ा था। बची हुई गिलासों की शराब जमीन पर पड़ रही है। ‘माया नहीं है' इस वाक्य के आगे सब तुच्छ हो गया। किसी को कहने के लिए कुछ शब्द नहीं मिला। इसके लिए तो ऐसा कोई सांत्वना-वाक्य नहीं है, जैसे बीमार आदमी से कहा जाता है-सोचो मत, जल्दी ही ठीक हो जाओगे।

पूरा कमरा जब चुप्पी में डूबा हुआ था, तभी बेलाल अंदर आया। उसने कमरे के माहौल को देखा। फर्श पर पड़े सुरंजन के शरीर को छूकर कहा, 'सुरंजन, सुना है माया को उठा ले गये हैं?'

सुरंजन ने सिर नहीं उठाया।

'जी. डी. एन्ट्री कराये हो?'

सुरंजन ने फिर भी सिर नहीं उठाया।

बेलाल ने बाकी लोगों की तरफ देखते हुए जवाब की उम्मीद की। लेकिन उनके भाव से पता चला कि किसी को इस मामले में कोई जानकारी नहीं है।

'कुछ पता लगाये हो, कौन लोग ले गये हैं?'

सुरंजन ने इस बार भी सिर नहीं उठाया।

बेलाल बिस्तर पर बैठ गया, सिगरेट सुलगायी। बोला, 'क्या कुछ शुरू हुआ है चारों तरफ! गुंडे-बदमाशों को अच्छा मौका मिला है। उधर इंडिया में भी तो हम लोगों को मार रहे हैं।"

'आप लोगों को मतलब?'

'मुसलमानों को! बी. जे. पी. तो पकड़कर धड़ाधड़ काट रही है।'

'ओह!'

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