जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
इतने में पुलक अंदर आया। पूछा, 'क्या बात है? दरवाजा खोलकर बैठे हो!'
'दरवाजा खुला है, शराब पी रहा हूँ, चिल्ला रहा हूँ। डर किस बात का? मरना होगा, मर जाएँगे! तुम क्यों बाहर निकले!'
'परिस्थिति काफी हद तक शांत है। इसीलिए बाहर निकलने की हिम्मत हुई!'
'फिर अशांत होने पर दरवाजे में कुंडी लगाकर बैठे रहोगे, है न,' सुरंजन जोर से हँसा।
पुलक हैरानी के साथ सुरंजन का शराब पीना देखता रहा। वह डरते हुए, अपने को स्कूटर में छिपाते हुए आया है। देश की हालत कितनी भयावह है। और सुरंजन की तरह राजनीति-सजग लड़का घर बैठा हँस रहा है और शराब पी रहा है। ऐसे दृश्य की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। सुरंजन अचानक इतना कैसे बदल गया?
सुरंजन ने गिलास से एक घूँट लेते हुए कहा, 'गुलाम आजम, गुलाम आजम, गुलाम आजम! गुलाम आजम से मेरा क्या? गुलाम आजम को सजा मिलने से मुझे क्या मिलेगा? उसके खिलाफ आन्दोलन करने से मुझे कोई उत्साह नहीं मिलता। माया को तो उसके नाम तक से घृणा होती है। उसका नाम सुनते ही उल्टी आती है। मुक्ति युद्ध में पाकिस्तानियों ने मेरे रिश्ते के दो चाचा और तीन मामा को गोली से उड़ा दिया। मेरी समझ में नहीं आता कि पिताजी को उन लोगों ने क्यों जिन्दा रखा था। शायद स्वाधीनता का मजा लेने के लिए। अब मजा चख रहे हैं न? बीवी-बच्चों के साथ स्वाधीनता की धूप ताप रहे हैं न, डाक्टर सुधामय दत्त?'
सुरंजन फर्श पर पैर पसारे बैठा हुआ है। पुलक भी बैठ जाता है। धूल-धूसरित कमरा, टूटी हुई कुर्सी, बिखरी हुई किताबें, सारे कमरे में सिगरेट के टुकड़े, एक कोने में टूटी हुई आलमारी। सुरंजन का जैसा मिजाज है, शायद शराब पीकर सब तोड़ा होगा। घर इतना शांत क्यों है? नहीं लगता कि यहाँ कोई और भी है।
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