जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन लौट आता है। कहाँ लौटेगा वह? घर? उस सन्नाटा भरे घर में उसकी लौटने की इच्छा नहीं होती। सुरंजन माया को वापस ले जायेगा, इस भरोसे चातक पक्षी की तरह तृष्णातुर होकर वे बैठे हुए हैं। माया को लिये बिना उसकी घर लौटने की इच्छा नहीं होती। हैदर ने माया को ढूँढ़वाने के लिए आदमी लगाया है, उसे विश्वास करने का मन हो रहा है कि उसके लोग एक दिन माया को खोज निकालेंगे और संशय का दाना भी बँध रहा है कि माया नहीं है तो इससे उनका क्या? उनको तो 'माया' के लिए कोई माया नहीं। हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों की माया रहेगी ही क्यों? अगर उनको माया होती तो वगल वाले मुसलमान के घर तो लूट-मार नहीं होती, उनका तो घर तोड़ा नहीं जाता! तोड़ा जाता है तो सिर्फ सुरंजन का घर, जलाया जाता है सिर्फ गोपाल हलदार का घर, काजलेन्दु का घर। सुरंजन घर नहीं लौटता। रास्ते में भटकता रहता है। सारा शहर घूमकर माया को ढूँढ़ता है। माया का क्या अपराध था जो उन लोगों ने उसका अपहरण किया? हिन्दू होने का अपराध इतना ज्यादा है? इतना ज्यादा कि उसका घर-वार तोड़ा जा सकता है, उसे मनचाहा पीटा जा सकता है, उसे पकड़कर ले जाया जा सकता है, उसका बलात्कार किया जा सकता है! सुरंजन इधर-उधर भटकता है, दौड़ता है। रास्ते में किसी भी इक्कीस-वाईस वर्प के लड़के को देखकर उसे लगता है कि यही शायद माया को ले आया है, उसके भीतर संशय ने डेरा डाल लिया है। और वह बढ़ता ही गया।
इस्लामपुर की एक परचून दुकान में खड़ा होकर वह एक ठोंगा ‘मूढ़ी' खरीदता है। दुकानदार उसकी तरफ तिरछी नजरों से देखता है। शायद उस आदमी को भी मालूम है कि उसकी बहन का अपहरण हुआ है। वह आड़े-तिरछे चलता रहा। नया बाजार के टूटे-फूटे मैदान में बैठा रहा। सुरंजन को किसी भी तरह चैन नहीं मिलता। किसी के भी घर पर जाने से वही बाबरी मस्जिद का प्रसंग। उस दिन तो सलीम ने कह ही दिया कि तुम लोग हमारी मस्जिद तोड़ सकते हो तो हम लोगों के मंदिर तोड़ने से क्यों एतराज है? यह बात सलीम ने मजाक ही मजाक में कही थी, उसके मन में यह सवाल आया ही नहीं होगा, यह भी तो नहीं कहा जा सकता है।
माया यदि इसी वीच घर लौट आयी हो तो, लौट भी सकती है। बलात्कृत होकर भी वह लौट आए, फिर भी लौट तो आए। माया शायद लौट आयी हो, यह सोचते-सोचते सुरंजन घर वापस आया, देखा, दो प्राणी आँख, कान सजग रखकर निस्पंद, स्थिर माया की प्रतीक्षा में हैं। माया नहीं लौटी है, इससे ज्यादा निष्ठुर, निर्मम सूचना क्या हो सकती है। तकिये में सिर छिपाकर औंधे मुँह सुरंजन पड़ा रहता है। उस कमरे में से सुधामय के कराहने की आवाज आ रही है। रात की निस्तब्धता में जुगनू की तरह महीन स्वर में सुनायी पड़ रही किरणमयी के रोने की आवाज ने उसे सारी रात सोने नहीं दिया। इससे तो अच्छा होता अगर जहर मिल जाता तो तीनों उसे खाकर मर जाते। उनको इस तरह तिल-तिल करके न मरना होता! क्या जरूरत है जिन्दा रहने की! हिन्दू बनकर इस बांग्लादेश में जिन्दा रहने का कोई मतलब नहीं होता।
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