जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'हूँ!' हैदर की आवाज में निर्लिप्त भाव था। वह लुंगी पहने खाली वदन था। दोनों हाथों से बदन को खुजलाया। बोला, 'इस बार उतनी ठंड नहीं पड़ी है न? आज भी सभा नेत्री के घर पर मीटिंग थी। शायद जुलूस का प्रस्ताव आएगा। गुलाम आजम का मामला जब चरम सीमा पर था, तभी साला दंगा शुरू हो गया। असल में यह सब 'बी. एन. पी.' की चाल है, समझे! इस मामले को घुमा देना भी उनकी ही चाल है।
‘अच्छा हैदर, रफीक नाम के किसी लड़के को पहचानते हो? उनमें रफीक नाम का एक लड़का था।'
'किस मुहल्ले का?'
'पता नहीं। उम्र इक्कीस-बाईस की होगी। इस मुहल्ले का भी हो सकता है।'
'इस तरह के किसी लड़के को तो नहीं पहचानता हूँ! फिर भी आदमी लगा कर पता करता हूँ।
'चलो निकलते हैं। देर करना ठीक नहीं। माँ-पिताजी के चेहरे की तरफ देख नहीं पा रहा हूँ। पिताजी को दिल का दौरा पड़ा है। इस टेंशन में कोई बड़ी दुर्घटना न घट जाए।
'इस वक्त तुम्हारा मेरे साथ घूमना उचित नहीं!'
'क्यों, उचित क्यों नहीं है?'
‘समझ नहीं पा रहे, क्यों? समझने की कोशिश करो।'
सुरंजन खूब समझ रहा है, क्यों हैदर उसके साथ न रहने की बात कह रहा है! उसके साथ रहना उचित इसलिए नहीं होगा क्योंकि सुरंजन हिन्दू है। हिन्दू होकर मुसलमानों को गाली देना ठीक नहीं लगता। चाहे मुसलमान चोर हो, बदमाश हो, या खूनी हो। मुसलमान के चंगुल से हिन्दू लड़की को छुड़ा लाना शायद ज्यादा धृष्टता दिखाना हो जाता है।
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