जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
किरणमयी घर के एक कोने में बैठी हुई थी, दीवार से पीठ सटाकर। किसी से नहीं, अपने आप कह रही थी, ‘उन लोगों ने कहा, मौसीजी आप लोगों को देखने आये हैं, आप कैसे हैं। हम लोग इसी मुहल्ले के लड़के हैं। दरवाजा खोलिए न।' उनकी उम्र कितनी होगी? बीस-इक्कीस-बाईस, इसी तरह । मैं उनका मुकाबला कैसे करती? मुहल्ले के घरों में कितनी गिड़गिड़ायी, सभी ने सिर्फ सुना ‘च्च-च्च' कर सिर्फ दुःख जताया, पर किसी ने कोई मदद नहीं की। उनमें से एक का नाम रफीक है, टोपीवाले एक लड़के को पुकारते हुए सुना था। पारुल के घर पर जाकर छिपी हुई थी, वहाँ रहने पर बच जाती! क्या माया वापस नहीं आयेगी? इससे तो अच्छा था, घर में आग लगा देते। मकान मालिक मुसलमान है न शायद इसीलिए नहीं जलाया। इससे तो अच्छा था मार डालते, मुझे ही मार डालते, बदले में मेरी मासूम लड़की को छोड़ जाते। मेरा जीवन तो खत्म हो ही चुका है लेकिन उसकी तो शुरुआत है।
सुरंजन के सिर में तेजी से चक्कर आता है। वह नल के पास जाकर हड़बड़ाकर उल्टी करता है।
बरामदे पर धूप आकर पड़ी है। काले-सफेद रंगों की चितकबरी बिल्ली इधर-उधर घूम रही है। क्या वह मछली का काँटा ढूँढ़ रही है, या माया को ढूँढ़ रही है। माया उसे गोद में लिये घूमती रहती थी, अपनी रजाई के नीचे उसे सुलाती थी, और यह भी चुपचाप उसकी रजाई में सोयी रहती थी। क्या यह जानती है कि माया नहीं है? माया अवश्य बहुत रो रही होगी। 'भैया-भैया' कहकर पुकार रही होगी। क्या वे लोग माया के हाथ-पाँव बाँध कर ले गये? क्या उसके मुँह में कपड़ा लूंस दिया गया था? 'छह वर्ष' और 'इक्कीस वर्ष' एक नहीं होता। न ही इन दोनों उम्र की लड़की को उठाकर ले जाने का उद्देश्य ही एक होता है। सुरंजन सोच सकता है कि इक्कीस वर्षीय लड़की के साथ सात पुरुष क्या कर सकते हैं! उसका सारा शरीर क्षोभ-यंत्रणा से कड़ा हो जाता है। जिस प्रकार मरे हुए आदमी का शरीर लकड़ी की तरह कड़ा हो जाता है, काफी हद तक उसी तरह । क्या सुरंजन जिंदा है? जिन्दा तो है ही, परंतु माया नहीं है। माया नहीं है, इसीलिए माया के अपने भी जिन्दा नहीं रहेंगे? जिन्दगी का हिस्सा कोई किसी को नहीं दे सकता। मनुष्य की तरह स्वार्थी जीवन दुनिया में दूसरा और नहीं है।
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