जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन ने अंगड़ाई लेकर कहा, 'नहीं, काजल दा, नहीं खाऊँगा। मन नहीं हो रहा। तबीयत भी कुछ ठीक नहीं लग रही है।'
'इसका कोई मतलब है?'
'मतलब शायद नहीं है, लेकिन क्या करूँ, बताइए न। कभी भूख लगती है तो कभी चली जाती है। खट्टी डकार आती है, छाती में जलन होती है। नींद आती है लेकिन जब सोने जाता हूँ तो नींद नहीं आती।'
यतीन चक्रवर्ती सुरंजन के कंधे पर हाथ रखकर बोले, 'तुम टूट गये हो, सुरंजन! हमारे इस तरह से हताश होने से चलेगा? धीरज रखो। जिन्दा तो रहना ही होगा।'
सुरंजन सिर झुकाये खड़ा था। यतीन दा की बातें सुधामय की तरह लग रही थीं। अस्वस्थ पिता के माथे के पास वह कितने दिनों से नहीं बैठा था। आज और ज्यादा देर तक वह बाहर नहीं रहेगा। काजल दा के घर आने पर ऐसा ही होता है। कई तरह के लोग आते हैं। जमकर अड्डेवाजी चलती है, राजनीति, समाज नीति के विषय में गंभीर बातें आधी रात तक चलती रहती हैं। उसमें से सुरंजन कुछ सुनता है, कुछ नहीं सुनता।
टेबल पर रखा खाना छोड़कर वह चला जाता है। बहुत दिनों से उसने घर पर खाना नहीं खाया, आज खायेगा। आज माया. किरणमयी. सधामय के साथ वह खाना खाने बैठेगा। उसके और उसके परिवार वालों के बीच काफी दूरी आ गयी है। दूरी पैदा करने का कारण भी वह खुद ही है, अब और वह अपने सामने कोई दीवार नहीं रखेगा। जिस तरह आज सुबह उसका मन बहुत प्रसन्न था, वह हमेशा इसी तरह मन प्रसन्न रखेगा, सबके साथ हँसेगा, बातें करेगा, बचपन के उन दिनों की तरह, जब वे सब धूप में बैठकर पीठा खाया करते थे। तब लगता ही नहीं था कि कौन किसका पिता है, कौन किसका पुत्र, कौन किसी का भाई या बहन, मानो सभी दोस्त हैं, बहुत नजदीकी दोस्त! वह आज और किसी के घर नहीं जायेगा, न पुलक के घर, न रत्ना के घर। सीधे टिकाटुली जाकर दाल-भात जो भी होगा, खाकर सबके साथ काफी रात तक बातें करता रहेगा। उसके बाद सोयेगा।
काजल उसे नीचे के गेट तक छोड़ने आये। बहुत आत्मीयता से बोले, 'तुम्हारा इस तरह बाहर निकलना ठीक नहीं। हम लोग इस चाहरदीवारी के अंदर जितना भी घूम फिर रहे हैं, इसके बाहर नहीं। यहाँ पर जो भी आये हैं उनमें कोई दूर से नहीं आया। और तुम हो कि अकेले शहर में घूम रहे हो। कब क्या घटना घट जाये, कहा नहीं जा सकता।'
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