लोगों की राय

जीवन कथाएँ >> लज्जा

लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

360 पाठक हैं

प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...

लज्जा

सुरंजन सोया हुआ है। माया बार-बार उससे कह रही है, 'भैया उठो, कुछ तो करो देर होने पर कोई दुर्घटना घट सकती है।' सुरंजन जानता है, कुछ करने का मतलब है कहीं जाकर छिप जाना। जिस प्रकार चूहा डर कर बिल में घुस जाता है फिर जब उसका डर खत्म होता है तो चारों तरफ देखकर बिल से निकल आता है, उसी तरह उन्हें भी परिस्थिति शांत होने पर छिपी हुई जगह से निकलना होगा। आखिर क्यों उसे घर छोड़कर भागना होगा? सिर्फ इसलिए कि उसका नाम सुरंजन दत्त, उसके पिता का नाम सुधामय दत्त, माँ का नाम किरणमयी दत्त और बहन का नाम नीलांजना दत्त है? क्यों उसके माँ-बाप, बहन को घर छोड़ना होगा? कमाल, बेलाल या हैदर के घर में आश्रय लेना होगा? जैसा कि दो साल पहले लेना पड़ा था। तीस अक्तूबर की सुबह कमाल अपने इस्कोटन के घर से कुछ आशंका करके ही दौड़ा आया था, सुरंजन को नींद से जगाकर कहा, 'जल्दी चलो, दो-चार कपड़े जल्दी से लेकर घर पर ताला लगाकर सभी मेरे साथ चलो। देर मत करो, जल्दी चलो।' कमाल के घर पर उनकी मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं थी, सुबह नाश्ते में अंडा रोटी, दोपहर में मछली भात, शाम को लॉन में बैठकर अड्डेबाजी, रात में आरामदेह बिस्तर पर सोना, काफी अच्छा बीता था वह समय। लेकिन क्यों उसे कमाल के घर पर आश्रय लेना पड़ता है? कमाल उसका बहुत पुराना दोस्त है। रिश्तेदारों को लेकर वह दो-चार दिन कमाल के घर पर रह सकता है। लेकिन उसे क्यों रहना पड़ेगा? उसे क्यों अपना घर छोड़कर भागना पड़ता है, कमाल को तो भागना नहीं पड़ता? यह देश जितना कमाल के लिए है उतना ही सुरंजन के लिए भी तो है। नागरिक अधिकार दोनों का समा न ही होना चाहिए। लेकिन कमाल की तरह वह क्यों सिर उठाये खड़ा नहीं हो सकता। वह क्यों इस बात का दावा नहीं कर सकता कि मैं इसी मिट्टी की संतान हूँ, मुझे कोई नुकसान मत पहुँचाओ।

सुरंजन लेटा ही रहता है। माया बेचैन होकर इस कमरे से उस कमरे में टहल रही है। वह यह समझना चाह रही है कि कुछ अघट घट जाने के बाद दुखी होने ये कोई फायदा नहीं होता। सी. एन. एन. टीवी पर बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का दृश्य दिखा रहा है। टेलीविजन के सामने सुधामय और किरणमयी स्तंभित बैठे हैं। वे सोच रहे हैं कि सन् 1990 के अक्तूबर की तरह इस बार भी सुरंजन किसी मुसलमान के घर पर उन्हें छिपाने ले जायेगा। लेकिन आज सुरंजन को कहीं भी जाने की इच्छा नहीं है, उसने निश्चय किया है कि वह सारा दिन सो कर ही बिताएगा। कमाल या अन्य कोई यदि लेने भी आता है तो कहेगा, 'घर छोड़कर वह कहीं नहीं जायेगा, जो होगा देखा जायेगा।'

Next...

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book