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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


बिजन बाबू जूते डालना तक भूल गये और नंगे पाँव बाहर निकल गये।

गनीमत थी कि डॉक्टर साहब आ गये थे।

लेकिन वे इलाज किसका करते? पत्थर के टुकड़े का भी कहीं इलाज हुआ है? इसी बात पर तो विज्ञान आज तक पराजित है।

ही डॉक्टर ने इतना जरूर बता दिया कि सावित्री का रक्तचाप एकबारगी कितना ज्यादा बढ़ गया था-आकड़ों की सहायता से।

सावित्री की दुबली-पतली और पीली-सी देह में रक्त का दबाव इतना ज्यादा बढ़ गया था। आखिर कब और कैसे? अचानक फूट पड़े उस रक्त-प्रवाह ने दिमाग की नसों और रक्त कोशिकाओं को फाड़ डाला और किसी को-खुद सावित्री तक को-कुछ पता नहीं चला। पता चलता तो कोई-न-कोई उपाय तो किया ही जाता।

अजीब है वह बीमारी?

चुपचाप और निरुपाय बैठे रहो और मौत की प्रतीक्षा करते रहो......? बस। इधर-उधर भागने और हाय-ताबा मचाने की जरूरत नहीं। अगर यह किसी बड़े घर का मामला रहा होता तो बेवजह जमीन-आसमान को एक करने का नाटक जारी रहता लेकिन कंगालों को यह सब करना शोभा नहीं देता।

बिछावन के एक किनारे पड़े रहने के सिवा बिजन बाबू और कुछ करने की, स्थिति में थे भी नहीं। सुबह होने पर.........एक बार डॉक्टर कौ खबर दे देंगे.........और इससे ज्यादा किया भी क्या जा सकता था!

सावित्री की सारी संवेदनाऐ मर चुकी हैं-यह सोचकर घर के सारे लोगों की अनुभूतियाँ खत्म हो गयीं।...... सारी रात जगने के चलते दूसरे दिनों के मुकाबले चाय पीने की इच्छा बिजन बाबू के मन में और अधिक जग गयी थी। और यही हाल जयन्ती का भी था। छोटे बच्चों ने भी उठकर रोना-धोना शुरू कर दिया था। आज उनका रोना-कलपना पहले सै कहीं ज्यादा ही था।

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