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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


सारे घर का माहौल सबको बड़ा अजीब-सा लग रहा था।

ऐसी स्थिति में, बिजन बाबू ने अपनी शर्मिन्दगी को परे रखकर बेटी को पास बुलाया और कहा, ''तू ऐसा कर बेटी, एक बार जाकर चूल्हा तो जला दे.........इन बच्चों को तो कुछ खिलाना-पिलाना होगा। और थोड़ी-सी चाय भी बना ले।''

जयन्ती को नौकरी पर भी जाना है.........आज यह बात उनके मन में आयी भी नहीं थी शायद।

जयन्ती मानो नींद से उठी-अच्छा तो आज से उसे ही यह सब करना होगा.........ओह.........!

लेकिन रसोईघर में आते ही बेचारी के पाँव जम गये।

वह कहां आग सुलगाए.........? अपनी साड़ी में?-चूल्हे के गले तक तो राख की ढेर जमी थी-ठसाठस। इन सारी राख और जले कोयले का क्या होगा? सारे रसोईघर में बर्तन-भाण्डे बिखरे थे, पीढे औंधे पड़े थे.........मिनू और सानू की आपसी लड़ाई की निशानी के तौर पर पानी के गिलास इधर-उधर बिखरे थे।

लगता है पिछली रात यह सारा कुछ सावित्री धो-मांज नहीं पायी थी। हर रोज.........हर रात जब सारा घर सो जाता है तब सावित्री के अगले दिन का काम शुरू हो जाया करता था।

बर्तन धोना-माँजना और घर की सफाई, चूल्हे की झाडू-पोंछ और कोयले तोड़ना, साग-सब्जी काटना-कूटना और मसाले पीसना-ये सारे काम चुपचाप किये जाना और वह सब भी इतनी कम रोशनी में। ताकि घर के लोगों की नींद न टूटे और न ही मिट्टी का तेल ही ज्यादा खर्च हो।

क्या जयन्ती ने आज तक देखा भी है कि सावित्री कब सोने गयी?

लेकिन आज सावित्री के बारे में कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। वह सारी दुनिया से आँखें मूँदकर सोयी हुई है। शायद जयन्ती को सबक सिखाने के लिए ही। अब इस घड़ी जयन्ती क्या करे?

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