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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


उसे जो कछ कहना था...वह सारा कछ उसके दिमाग में चक्कर काटता रहा। बातें तो सारी वही हैं...बस उन्हें सजाकर रखने का ढंग ही कुछ नया होगा।...वही मालिक और मजदूर की लड़ाई।...वही स्थापित और विस्थापित...श्रेणीबद्ध और श्रेणीविहनि...सरमायादार और सर्वहारा की एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाई। सवाल यह है कि ''आजादी की इस लड़ाई में बेहिसाब और बेशुमार सैनिक लड़े और मर मिटे...रसद और कुमक पहुँचाते रहे...क्या उनके जीवन का अँधेरा मिट सका? उन्हें

याद रखने की जिम्मेदरिा किन पर है? इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों पर सोने के अक्षरों में जिनका नाम लिखा होगा...अगली कतार में खड़े सेनापतियों के त्याग और निष्ठा की...ढेर सारी लड़ाइयों और लाछनाओं की कहानी को पढ़ते-पढ़ते क्या किसी का ध्यान इन अभागों की ओर जाता भी है? जीवन की लड़ाई में हार गये और अपमानित किये गये पैदल सैनिकों की तरफ?'' उमड़ते भावों की लम्बी-चौड़ी दलीलें बघारते चले जा रहे थे...वह सज्जन। दिमाग को शान्त रखकर और कागज-पेंसिल को हाथ में ले इन्हीं बातों को लिखते चले जाने पर ही बात बन सकती थी।

लेकिन जब तक दिमाग ठण्डा हो, तब तक उसे नींद आ गयी थी। कैसे घिनौने और बेहूदे माहौल में जयन्ती को रहना पड़ रहा है-इसे क्या सलिल सेन समझते हैं; आखिर कितनी देर तक सोती रही जयन्ती?

यही कोई दो घण्टे...। दस घण्टे? या पूरे एक युग तक...। ऐसा न होता तो बिजन बाबू इस तरह के दीन-कातर भाव सै पुकार क्यों उठते, ''जया...जया बेटी जल्दी उठ। देख तेरी माँ कैसे पड़ी है...हाथ-पैर कैसे सुन्न पड़े हैं...मैं जरा डॉक्टर को बुला लूँ जया...उठ बैठो...तेरी माँ हाथ-पैर पटक रही है।''...

आखिर यह कैसी भाषा है?

आखिर वह क्या कर रही है?

जयन्ती हड़बड़ाकर उठ बैठी और बेवकूफों की तरह ताकती रही। गले में गंजी डालते हुए विजन बाबू रुँधे स्वर मैं बोलते जा रहे थे, ''और अब डॉक्टर भी क्या कर लेगा? सब खत्म हो गया होगा अब तक...। थोड़ी-सी भी हरकत नहीं...और नस-नाड़ी का तो पता ही नहीं चल रहा। बेटी...तू जरा साहस सै काम ले और माँ के पास ही बैठ। मैं जरा देख आऊँ। डॉक्टर आना चाहेगा भी कि नहीं...भगवान ही जानता है। पानी पीने को उठी और बस गिरकर बेहोश हो गयी...मैं तो कुछ समझ ही न पाया।''

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