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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


माँ की इस बेबात की बात और बेसिर-पैर के झगड़े से जयन्ती की देह में आग-सी लग जाती है। घृणा...जलन और खीज की मिली-जुली कौंध उसकी आँखों में चमक उठती है। लेकिन बिना कुछ कहे वह वहाँ से जाने को हुई कि सावित्री ने उसे पुकारकर कहा, ''क्या, बात क्या है? किस खुशी में आज खाना गले नहीं उतरेगा!''

बहुत ही तीखे स्वर में जयन्ती ने कुछ ऐसा सुलगता हुआ जवाब दिया कि बारूद धधक उठी, ''अब इस घर का एक भी दाना गले सै उतारने की साध नहीं होती है, माँ!''

''क्या...क्या बताया...साध नहीं होती...मेरे हाथों का खाना खाने की इच्छा नहीं होती...भला क्यों...जरा मुँह से तो फूटो...तुम लोगों की तरह जूते-मोजे डालकर घर से बाहर निकल नहीं पाती...इसलिए...हैं न...!''

''बात ऐसी नहीं है, माँ!...लेकिन मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ...आज के लिए मुझे माफ करो...मुझे शान्ति चाहिए। मैं ही यहाँ से चली जाऊँगी।"

टूटी-फूटी जुबान में इस बात को बोलकर जयन्ती अपने कमरे मैं वापस आ गयी और इस बात का इंतजार करती रही कि खिन्न कर देने वाली कोई जोरदार आंधी-सी आएगी। लेकन उसे हैरानी हुई कि सारा घर किसी मन्त्र-बल से शान्त हो गया।...एक ऐसा घहराता चलता-फिरता यन्त्र...जैसे यकायक झटके से...बन्द हो गया हो।

जयन्ती बिछावन पर यूँ ही दुनिया भर की चिन्ता लिये बेचैन-सी पड़ी रही...कल उसके यूनियन की सभा है। सबका यही दबाव है कि वह भी कुछ बोले। अगर वह कोई वक्तव्य न देना चाहे तो लिखित तौर पर ही सही, कुछ पढ़ दे।...उसका ढाँचा रात को ही तैयार कर रखना जरूरी था...अब इस समय...इस भरे हुए दिमाग से क्या किया जाए? गनीमत है कल शनिवार का दिन है। शाम को पाँच बजे सभा है। इस दौरान प्रारूप तैयार कर लिया जाएगा। अगर सम्भव हुआ तो वह सीधे उनके घर ही पहुँच जाएगी।...अपने घर में तो लंका-काण्ड चलता ही रहता है। वक्तव्य में रखी जाने वाली दो-चार बातों की ओर यूनियन के सचिव सलिल सैन ने इशारा तो कर ही दिया था। उनकी राय में, स्त्रियों के नेतृत्व में, काम कहीं ज्यादा होता है। इसीलिए उन्होंने जयन्ती से यह आग्रह किया था।

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