कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''अच्छी
मुसीबत है...!'' विभूति ने पूछा, ''तुम क्या अभी इसी घड़ी निकल जाओगी? अगले
महीने बादला का उपनयन संस्कार होना है। तुम्हारे न रहने पर यह सब कैसे
होगा भला?''
''मैं
भला किस गिनती में हूँ बेटा कि मेरे न होने से सारा काम रुक जाएगा। तू भी
क्या कह रहा है?'' कहती हुई मौसी ने चैन की एक साँस ली और फिर उठ खड़ी हुई।
इसके बाद गर्दन ऊँची कर बोली, ''मैं भी यही चाह रही थी कि
बच्चे
के गल में मोटी जनेऊ पहनाकर ही जाऊँगी। अब तुम्हारी बात पर रुकना ही
पड़ेगा। बहूरानी ठहरी पढ़ा-लिखी...उसका इन सारी रति-नीत वाली बातों से क्या
लेना-देना? लेकिन याद रहे इसके बाद एक दिन के लिए भी नहीं रुकूँगी। पहले
ही बोल बता दिया...हां...।''
और इस बात को कोई नहीं
जानता कि विभूति की आँखें क्यों छलछला उठी हैं।
च्च...।
बस थोड़े-से ही सन्तुष्ट हो जाती है बेचारी...इन लोगों के लिए थोड़ा-सा
सम्मान इतना अधिक मूल्यवान हो उठता है? और इस सम्मान के लिए अगर थोड़ा-सा
दिखावा भी करना पड़े तो इसमें क्या आता-जाता है? आखिर छोटी-मोटी सहानुभूति
दिखाने में भी आदमी इतनी कंजूसी क्यों करता है भला? उसने मौसी से भरे गले
से कहा, ''अच्छा, तब की तब देखी जाएगी। अभी के लिए तो निश्चिन्त हुआ बाबा।
उस जेल में रहना कोई बच्चों का खेल है। अब तुम लोगों ने जितना कुछ जान रखा
है...ठीक वैसा होता नहीं है...अच्छा, आज तुम्हारी निरामिष रसोई में क्या
कुछ बनेगा, बताओ तो? बहुत दिनो से बड़ी खाने को नहीं मिली और केले के मोचे
की सब्जी...वह सब क्यों नहीं?''
अन्ना
मौसी ने पोपली हँसी हँसते हुए कहा, ''लो, सुनो इस पगले की बात! केले के
मोचे की सब्जी क्या मुँह से निकली बात की तरह बन सुनाती है? उसे रात में
ही काट-कूटकर पानी में भिगोना नहीं पड़ता? अब आज तो बन नहीं पाएगी। और...कल
है मंगलवार...इस दिन मोचा नहीं खाते। अब तो परसों ही बनेगी।''
विभूति ने निराश होकर
कहा, ''हाय रे मेरा नसीब! अब परसों किसने देखा है?
''माँ
षष्ठी...तेरी सहाय हों...। तू भी...जो मुँह में अल्ल-बल्ल आता है...बक
देता है...'' ऐसा कहते और असीसते हुए अन्ना मौसी बड़े प्रसन्न मन से
निरामिष रसोईघर की ओर बढ़ गयी...चूल्हा सुलगाने के लिए।
लेकिन वह पास ही, दालान
में जल रहे चूल्हे से भी कहीं अधिक दाह लिये और भीतर से भरी बैठी रमोला की
ओर तीखी नजरों से तकना नहीं भूली।
आये दिन इस तरह की घटनाएँ
घटती ही रहती थीं।
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