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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


पता नहीं उस लड़के के आने के बाद विभूति के मन में ऐसी कौन-सी करुणा का संचार हुआ कि उसने इस बात को अन्ना मौसी से छुपाये रखा और आज तक उसे प्रकट नहीं कर सका। बात न तो अन्ना मौसी की धृष्टता की थी और न रमोला के उत्पीड़न की। विभूति यही सोचता रहा कि अन्ना मौसी की बकझक में छिपी पीड़ा की जो ग्रन्थि है उस ओर से रमोला ने अपनी आँखें क्यों मूँद रखी हैं? अगर वह उस पर तरस नहीं खा सकती तो कम-से-कम उसे अपमानित तो न करे। आखिर रमोला में ऐसी उदारता क्यों नहीं है? अगर किष्टो की मौत की खबर उसे न भी हो तो बहन-जमाई के घर में दो मुट्ठी भात पाने का जो लालच है उससे भी वंचित होकर वह आखिर जाएगी कहां? अपने उसी गाँव में...जहाँ उपवास रखने के सिवा और कोई चारा नहीं। क्या रमोला इस छोटी-सी बात को समझ नहीं पाती? ये औरतें एक असहाय वृद्धा को भला किस तरह अपमानित कर सकती हैं? जो आश्रित है उसी से कुढ़ती-चिढ़ती हैं।

लेकिन रमोला पर ही दोष मढ़ने से क्या होगा? वे जो किसी के भरोसे रहते हैं उन्हें भी तो दैन्य भाव से अधीनता स्वीकार करनी चाहिए। यह तो होता नहीं, उल्टे वह विभूति के पास दौड़ी आएगी और रो-रोकर बोलेगी, ''अरे बेटा, और कितने दिनों तक तेरी गृहस्थी में झाड़ और लात खाकर गुजारा करूँगी। तू ही कोई रास्ता निकाल, बेटा!''

अन्ना मौसी के अचानक टपक पड़ने और उसकी दुहाई सुनते हुए विभूति ने हैरानी से चारों ओर देखा। आस-पास ही कहीं रमोला तो नहीं? यह जिस तरह घबरा उठी है, उससे बड़ा डर लगता है। वैसे अन्ना मौसी का जैसा रवैया है, रमाला ठीक ही डरी हुई है। आँखों से भले ही दीख न पड़े, कानों को इस बारे में सारी खबर है। यह तो विभूति का आग्रह ही था, जिसकी रक्षा करने के लिए ही अन्ना मौसी ने अपने घर जाना मुलवी कर दिया-और इस बात को अगर रमाला ही नहीं जान पायी तो फिर इसका क्या फायदा?

अब चाहे जो भी हो, ओट में रहना ही सुविधाजनक है...जानकर विभूति ने बड़े सहज भाव से कहा, ''अच्छा...अच्छा, सब हो जाएगा। इतनी जल्दी भी क्या है? आखिर किसने क्या कह दिया? मैं उसे अभी बुलाकर डपट देता हूँ...ये छोकरे सभी बड़े पाजी हो गये हैं।''

अन्ना मौसी की आँखें अब तक छलछला उठीं। वह बोली, ''किसी का कोई दीप नहीं है बेटा...मैं ही सारी आफत की जड़ हूँ। इस पापन को आखिर कब तक पोसते रहोगे, बेटा! इस आफत-बलाय को धक्के देकर निकलवाने के लिए कुछ तो करो।''

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