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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


रमोला आखिर इस मोसिया सास को किस तरह सबक सिखाए! जब उसका पति ही इस मामले में उस पर पाबन्दियाँ लगाने को उतारू है और मजे की बात यह है कि वह मन-ही-मन अपने पति से डरती भी है। अपनी जुबान से वह भले ही चाहे जो कह ले उसके मन में डर तो बैठा ही रहता है।

लेकिन जैसा कि कहा भी गया है, चोर के सौ दिन तो साधु का एक दिन। पता नहीं, रमोला के लिए कभी वह दिन आएगा भी या नहीं!

तभी अपने एक मुवक्किल के काम से विभूति को तीन दिनों के लिए आसनसोल जाना पड़ा। अन्ना मौसी के बारे में उसकी चिन्ता ने उसे परेशान न किया हो, ऐसी बात नहीं। लेकिन इस बारे में साफतौर पर अपनी पत्नी को यह कह सके कि मेरे न रहने पर मौसी के साथ कोई बुरा सलूक न करना, बताना भूल गया।

चार दिनों के बाद जब वह लौटा तो अपनी दूसरी व्यस्तताओं के चलते मौसी की खोज-खबर लेने की फुरसत नहीं मिली। उसे जब इस बात का खयाल आया तो उसने हँसी-हँसी में कहा, ''अरे भाई, बात क्या है? मिण्टू और अन्ना मौसी की आवाज सुनाई नहीं पड़ रही। लगता है घर कों लखवा मार गया है।''

मिण्टू ने डरकर अपना चेहरा एक बार ऊपर उठाया और फिर नीचे झुका लिया। ग्यारह-बारह साल की बड़ी ही होशियार लड़की...दुनियादारी की बहुत-सी बातों को समझने वाली।...उसने एक बार अपनी माँ की ओर देखा और फिर अपनी आँखें नीचे कर लीं।

''बात क्या है? माँ-बेटी एक-दूसरे का मुँह क्यों ताक रही हैं?''

विभूति की झुँझलाहट छिप न सकी। और बाप की इस परेशानी के डर से नहीं, बल्कि बाप के प्यार के भरोसे ही मिण्टू ने जल्दी से बात उगल दी, ''अन्ना दादी किष्टो चाचा की मौत की खबर सुनने के बाद...दो दिनों से गुम-सुम बैठी हैं। अपने कमरे में। चोर की तरह।"

विभूति लगभग एक मिनट तक घरवाली की ओर चुपचाप देखता रहा। उसके होठों पर फिर एक कुटिल मुस्कान खिंच गयी। उसने पूछा, ''इतना अच्छा मौका तुम भला छोड़ भी कैसी सकती थी...है न?'

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