कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''अरे
मेरे गले में फन्दा डाल दे रे।...अरे बहन-बेटी दामाद के घर पर पड़ी-पड़ी
मैं मलाई और रबड़ी उड़ा रही हूँ रे...। लेकिन अब और नहीं बाबा...। इन
नौकर-चाकरों
की लात मैं खा नहीं पाऊँगी रें....। अरे विभूति कहीं चला गया रे? अभी तुरत
जाकर मेरे किष्टो को तार दे दो-वह मुझे लिवा ले जाएगा। वह वकार
हो....कंगला हो, मेरी कोख का जाया तो है....उसका टाना-पानी हराम का तो
नहीं है। इस मलाई-रबड़ी से मुझ अभागन का क्या काम। मैं बेटे के घर में
खुद्दी उबालकर खा लूँगा। तू जा और जल्दी से तार भेज दे रे, विभूति...।''
विभूति
कमरे के अन्दर चुप बैठा किसी मुवक्किल की फाइलें उलट रहा था। उसे देखकर यह
नहीं जान पड़ा कि बात उसके कान में पड़ी भी है। लेकिन रमाला के कान मैं कोई
पिघला हुआ सीसा नहीं डाला कि वह यह सुनकर भी सह ले।
वह तमतमाती हुई कमरे में
दाखिल हुई और फट पड़ी, ''आखिर ऐसा कव तक चलता रहेगा?''
विभूति जैसे असहाय-सा जान
पड़ा। उसने बड़ी बेबसी से कहा, ''तो फिर किया ही क्या जा सकता है?''
''नहीं, कुछ नहीं किया जा
सकता। है न! बस चुपचाप बैठे-बैठे इस गाली-गलौज को सहन करते रही। क्या बात
है?''
विभूति ने उत्तर में जो
कुछ कहा, वह टालने वाला ही था, ''ऐसा करो कि उसके साथ थोड़ा निबाह कर ही
चलो। ऐसा करने पर....''
"निवाह
कर...? ओ...फिर तब बादल और मिण्टू को लेकर मुझे इस घर-संसार से विदा होना
पड़ेगा। इसके सिवा उससे निवाह कर पाने का और कोई चारा नहीं। लेकिन इतना तो
मुँह से फूटो कि में किस खुशी में हमेशा इतनी अशान्ति झेलती रहूं।"
विभूति
ने झुँझलाकर कहा, ''जरा धीरे वालो। अच्छा, यह तो बताओ कि क्या किया जा
सकता है? किसी का स्वभाव तो नहीं वदला जा सकता। अब बीच में समझाने-बुझाने
की कोशिश तो करता हूँ।''
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