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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''हां, काम तो तुम हमेशा समझदारी का ही करते हो....ठीक है....तो फिर यह नौटंकी चलती रहे। वे जी भरकर हमें कोसती रहे....जो चाहें बकती-झकती रहें, दिन में पाँच बार तुम्हारे घर से चले जाने का ढोंग रचती रहें और तुम उनकी 'तुम्हीं हो माता-पिता....' कहकर आरती उतारते रहो।"

विभूति ने आहत हँसी के साथ पूछा, ''तो फिर क्या करूँ? मैं यह तो नहीं कह सकता कि 'ठीक है चली जा।' और तुम तो अच्छी तरह जानती हो रमोला, कि हम लोंगों कैं सिवा उसका कोई दूसरा ठौर-ठिकाना भी तो नहीं।''

रमोला ने खीज-भरे स्वर में कहा, ''जानती कैसे नहीं भला! खूव अच्छी तरह जानती हूँ। तभी तो इतने दिनों से सब कुछ चुपचाप सहन करती जा रही हूँ। लेकिन जिसे इस बात का होश रहना चाहिए था उसे यह सब बताये बिना एक नकली दुनिया

रचकर ओर कितने दिनों तक यह सब चलता रहेगा? आखिर कब तक? मैं यह समइा नहीं पाती कि एक गलत बात का ढोल कब तक पीटा जा सकता है। हर किसी को अपनी हालत और हैसियत के बारे में पूरी तरह चाक-चौकस रहना चाहिए। किसी पराये का आसरा मिले, इस बात की झूठी कल्पना से और झूठ के सहारे बार-बार और इतनी बुरी तरह किसी सच को कोसा नहीं जा सकता। यह तो अजीब बात है। जो लड़का छह महीने पहले मर गया और भूत हो गया-उसका इतना रोब?''

''आ हो...रमोला...तुम क्या कोई बात आहिस्ता सै नहीं बोल सकती!''

''आहिस्ता से...भला क्या बोलूँ? मैं कोई गूंगी तो नहीं।'' रमोला कहती गयी, ''मैं तुम लोगों की तरह फालतू के सेण्टिमेण्ट में पड़ी रहना नहीं चाहती, और मरने की खबर सुनकर किसी का हार्ट फेल होते हुए भी मैंने नहीं देखा। हो सकता है तुम्हारी इस प्राण-प्यारी मौसी का हो जाए। लेकिन याद रखना....मैं बताये देती हूँ मैं जगटा दिनों तक इस लुका-छिपी वाला खेल नहीं खेल पाऊँगी।''

''तुम यह सब उसके मुँह पर कह सकोगी?''

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